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Blog / 19 Sep 2019

(राष्ट्रीय मुद्दे) पुलिस सुधार और सुझाव (Police Reforms and Suggestions)

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(राष्ट्रीय मुद्दे) पुलिस सुधार और सुझाव (Police Reforms and Suggestions)


एंकर (Anchor): कुर्बान अली (पूर्व एडिटर, राज्य सभा टीवी)

अतिथि (Guest): विभूति नारायण राय, (पूर्व डी. जी. पी. उत्तर प्रदेश), संजय कुमार (निदेशक, सी.एस.डी.एस)

चर्चा में क्यों?

हाल ही में, भारत में पुलिस की स्थिति को लेकर ‘स्टेटस ऑफ पुलिसिंग इन इंडिया रिपोर्ट 2019’ जारी की गई। यह रिपोर्ट एनजीओ ‘कॉमन कॉज़’ और ‘सेंटर फॉर द स्टडी ऑफ़ डेवलपिंग सोसाइटीज’ द्वारा संयुक्त रूप से तैयार की गई है। इस रिपोर्ट में इस बाबत चर्चा की गई है कि पुलिस की गिरती साख पर आम धारणा कैसी है।

  • इसके अलावा 22 सितम्बर को हर साल “पुलिस सुधार दिवस” मनाया जाता है।

इस रिपोर्ट की खासियत

इस तरह की यह दूसरी संयुक्त रिपोर्ट है, इसके पहले साल 2018 इस रिपोर्ट का पहला संस्करण जारी हुआ था। ग़ौरतलब है कि अक्टूबर 2018 में, दिल्ली उच्च न्यायालय ने हाशिमपुरा नरसंहार मामले पर अपने फैसले में, स्टेटस ऑफ़ पोलिसिंग इन इंडिया रिपोर्ट के 2018 संस्करण को सही माना था।

इस बार पुलिसकर्मियों की संख्या और उनके काम करने की परिस्थितियों को लेकर सर्वेक्षण किया गया है। सर्वेक्षण में 22 राज्यों के 12,000 पुलिसकर्मियों और उनके परिवार के सदस्यों को शामिल किया गया है।

सर्वेक्षण के निष्कर्ष

बुनियादी सुविधाएं:

  • राज्यों के स्तर पर
  • 70 पुलिस स्टेशनों में वायरलेस डिवाइस नहीं थे।
  • 214 पुलिस स्टेशनों में टेलीफोन कनेक्शन नहीं है।
  • 24 पुलिस स्टेशन ऐसे हैं जिनमें ना तो वायरलेस है ना ही टेलीफोन कनेक्शन।
  • औसतन एक पुलिस स्टेशन में सिर्फ 6 कंप्यूटर हैं। बिहार और आसाम जैसे कुछ राज्यों में तो 1 से भी कम कंप्यूटर हैं।
  • करीब 240 पुलिस स्टेशन ऐसे हैं, जहां पर गाड़ियां भी नहीं हैं।
  • हर पांच में से एक महिला पुलिसकर्मी का कहना है कि उनके पुलिस स्टेशन में अलग शौचालय भी नहीं है।
  • एक पुलिसकर्मी औसतन 14 घंटे काम करता है।

सामाजिक रवैया

पुलिसकर्मियों के दिमाग में महिलाओं, निचली जातियों और अल्पसंख्यकों को लेकर भारी पूर्वाग्रह देखने को मिला।

  • हर चार पुरुष पुलिसकर्मी में से एक अपनी महिला सहयोगी को लेकर विचित्र पूर्वाग्रह से ग्रसित है।
  • कई राज्य ऐसे हैं जहाँ हर चार में से एक पुलिस कर्मी को लैंगिक संवेदनशीलता के सम्बन्ध में कोई प्रशिक्षण ही नहीं दिया गया है। यहां पर ज्यादातर पुलिसकर्मियों का मानना है कि लैंगिक हिंसा और यौन हमले से संबंधित शिकायतें फर्जी और गलत मानसिकता से प्रेरित होती हैं।
  • सर्वेक्षण में शामिल करीब 25 फ़ीसदी महिलाओं ने बताया कि कार्य-स्थल पर यौन उत्पीड़न से निपटने के लिए कोई ‘आंतरिक समिति’ नहीं है।
  • करीब 50 फ़ीसदी पुलिसकर्मियों का पूर्वाग्रह है कि मुसलमान ‘स्वाभाविक रूप से’ अपराधी होते हैं।
  • सर्वेक्षण में शामिल 35 फ़ीसदी पुलिस कर्मियों का मानना है कि भीड़ द्वारा गोहत्या के मामलों में "अपराधी" को दंडित करना एक स्वाभाविक बात है। साथ ही 43 फ़ीसदी पुलिस कर्मियों को लगता है कि बलात्कार के आरोपी को भीड़ द्वारा सजा देना एक सामान्य सी घटना है।
  • 37 फ़ीसदी पुलिसकर्मियों का मानना था कि छोटे-मोटे अपराधों के लिए कानूनी मुकदमे के बजाय पुलिस को ही सजा देने का अधिकार दे दिया जाना चाहिए।
  • 72 फीसदी पुलिस कर्मियों को प्रभावशाली व्यक्तियों से जुड़े मामलों की जांच के दौरान "राजनीतिक दबाव" का अनुभव होता है।
  • अपने राजनीतिक आकाओं की जीहुजूरी में असफल वरिष्ठ पुलिस कर्मियों को बार-बार स्थानांतरित करना एक आम बात हो चुकी है।

भारत में मौजूदा पुलिस व्यवस्था

भारतीय पुलिस बल की मौजूदा व्यवस्था भारतीय पुलिस अधिनियम, 1861 (IPA) के द्वारा निर्देशित होती है। देश में पुलिस विभागों की संरचना और उनके कामकाज का तरीका इसी कानून के मुताबिक तय किया जाता है। कई राज्यों के अपने पुलिस मैनुअल भी होते हैं जिनमें इस बात का विवरण होता है कि राज्य पुलिस का संगठन किस प्रकार किया जाए, उनकी भूमिकाएं और जिम्मेदारियां क्या हैं, किन रिकॉर्डों का रखरखाव किया जाना चाहिए, इत्यादि।

  • भारतीय पुलिस अधिनियम 1861 के अलावा कुछ और भी कानून हैं जिनसे पुलिस की प्रशासनिक व्यवस्था निर्देशित की जाती है। इन कानूनों में भारतीय दंड संहिता, 1862 (IPC); भारतीय साक्ष्य अधिनियम, 1872 (IEA); और दंड प्रक्रिया संहिता, 1861 (सीआरपीसी) शामिल हैं।
  • भारतीय संविधान के अनुच्छेद 246 और आईपीए की धारा 3 के अनुसार, पुलिस बल राज्य सूची का विषय है, इसलिए केंद्र स्तर पर इसके लिए कानून नहीं बनाया जाता।
  • राज्य पुलिस को कई प्रशासनिक इकाइयों में बाँटा जाता है। पदानुक्रम के शीर्ष स्तर पर पुलिस महानिदेशक (DGP) का पद होता है। DGP राज्य पुलिस बल का प्रमुख होने के साथ-साथ पुलिस के प्रशासन और इससे जुड़े मुद्दों पर सरकार को सलाह देने का भी काम करता है।

हमें पुलिस सुधार की जरूरत क्यों है?

समाज की सुरक्षा और लोक-कल्याण इस बात पर निर्भर करती है कि वहाँ की कानून व्यवस्था कैसी है। इसलिए पुलिस सुधार जरूरी है।

  • पुलिस को जनता के प्रति संवेदनशील बनाकर उनका विश्वास जीतना और पुलिस जैसी संस्था में उनके भरोसे को बढ़ाने के लिए पुलिस सुधार जरूरी है।
  • चूँकि वर्तमान में पुलिस अपराधीकरण का शिकार होने के साथ-साथ राजनीतिकरण का भी शिकार है। इसलिए समय की मांग है कि अनावश्यक राजनीतिक हस्तक्षेप को खत्म करने के लिए पुलिस सुधार किया जाना चाहिए।
  • यदि पुलिस को हर तरीक़े से अपडेट और आधुनिक नहीं बनाया जाता है तो दूसरी सेवाओं को संचालित करना बहुत ही मुश्किल हो जाएगा।
  • समय के साथ, हमारी अर्थव्यवस्था विकसित हो रही है उसमें साइबर अपराध और धोखाधड़ी जैसे अपराधों की संख्या में भी बढ़ोत्तरी होना स्वाभाविक है। इसलिए बदलती ज़रूरतों के साथ पुलिस सुधार समय की मांग है।

मौजूदा पुलिस व्यवस्था में क्या दिक्कतें हैं?

मौजूदा पुलिस व्यवस्था में कई ख़ामियाँ हैं, जिनमें परंपरागत संगठन व्यवस्था, मूलभूत सुविधाओं की कमी और दबाव भरे काम के माहौल जैसे कारक शामिल हैं। इसके अलावा, गैर-प्रचलित और पुराने हथियार, खुफ़िया जानकारी जुटाने की परंपरागत तकनीक, भ्रष्टाचार और जनशक्ति की कमी दूसरे ऐसे कारक हैं जिनसे यह जाहिर होता है कि देश में पुलिस व्यवस्था बहुत संतोषजनक स्तर पर नहीं है।

पुलिस की जवाबदेही: पुलिस की ड्यूटी की प्रकृति को देखते हुए इस बात की संभावना रहती है कि इसको मिली हुई शक्तियों का दुरुपयोग किया जा सकता है। इसके अलावा, आईपीए की धारा 4 के अनुसार, पुलिस न केवल अपने वरिष्ठ अधिकारी के प्रति बल्कि कार्यपालिका के नियंत्रण में काम करती है। हालांकि दूसरे प्रशासनिक सुधार आयोग ने टिप्पणी की थी कि कार्यपालिका द्वारा इस शक्ति का दुरुपयोग किया जाता है, और मंत्रीगण व्यक्तिगत और राजनीतिक कारणों के लिए पुलिस बलों का उपयोग करते हैं। इसलिए विशेषज्ञों ने सुझाव दिया था कि राजनीतिक कार्यकारिणी की शक्तियों का दायरा कानून के तहत सीमित किया जाना चाहिए।

पुलिसकर्मियों की अपर्याप्त संख्या: अंतरराष्ट्रीय मानकों के मुकाबले भारत में प्रति लाख आबादी पर स्वीकृत पुलिसकर्मियों की संख्या काफी कम है। संयुक्त राष्ट्र के मानकों के अनुसार, जहां प्रति लाख व्यक्तियों पर 222 पुलिसकर्मी होने चाहिए, वहीँ भारत की प्रति लाख व्यक्तियों पर 181 पुलिसकर्मी स्वीकृत हैं। उससे भी विचित्र बात यह है कि वास्तव में प्रति दस लाख व्यक्तियों पर मात्र 137 पुलिसकर्मी ही तैनात हैं।

भारत में अपराधों की रिपोर्टिंग दर कम होना: यदि हम 2015 के आंकड़ों को देखें, तो आईपीसी के तहत दर्ज अपराधों के लिए सजा दर केवल 47% थी। विधि आयोग ने इस कमी के लिए जांच की खराब गुणवत्ता को ज़िम्मेदार ठहराया था।

खराब बुनियादी ढांचा: आधुनिक पुलिसिंग के लिए एक मजबूत संचार व्यवस्था, अत्याधुनिक हथियारों और उच्च स्तर की गतिशीलता की जरूरत होती है। नियंत्रक एवं महालेखा परीक्षक यानी कैग ने अपने कई रिपोर्टों में इन कमियों का उल्लेख किया है।

पुलिस और जनता के बीच पर्याप्त सहयोग की कमी: आमजन की भागीदारी के बिना पुलिस व्यवस्था नहीं चलाई जा सकती है। अपराध और अव्यवस्था को रोकने के लिए लोगों के विश्वास, सहयोग और समर्थन की जरूरत होती है। दूसरे प्रशासनिक सुधार आयोग ने अपनी रिपोर्ट में बताया है कि पुलिस और आम जनता के बीच का संबंध बिल्कुल ही असंतोषजनक स्थिति में है। पुलिस को लेकर लोगों के मन में भ्रष्ट, अक्षम, राजनीतिक रूप से पक्षपातपूर्ण और गैर-जिम्मेदाराना रवैये की छवि बनी हुई है।

ट्रेनिंग की बेहद ही खराब गुणवत्ता: पुलिस की ट्रेनिंग की गुणवत्ता का अंदाजा इसी बात से लगाया जा सकता है कि बहुत कम पुलिसकर्मियों को आईपीसी और सीआरपीसी का पर्याप्त ज्ञान होता है।

पुलिस सुधार से संबंधित विभिन्न समितियाँ/आयोग/निर्देश

  • राष्ट्रीय पुलिस आयोग (1977-81)
  • रिबेरो समिति (1988)
  • पद्मनाभैय्या समिति (2000)
  • मलिमथ समिति (2002-03)
  • पुलिस एक्ट मसौदा समिति (2005)
  • प्रकाश सिंह बनाम भारत संघ मामले में सर्वोच्च न्यायालय का आदेश (2006)
  • पुलिस सुधार पर द्वितीय प्रशासनिक सुधार आयोग की सिफ़ारिशें
  • पुलिस एक्ट मसौदा समिति-2 (2015)

राष्ट्रीय पुलिस आयोग

साल 1977 में सरकार ने एक एक राष्ट्रीय पुलिस आयोग का गठन किया था। इस आयोग का मानना था कि आज़ादी के बाद से देश के राजनीतिक, सामाजिक और आर्थिक क्षेत्र में अब तक काफी परिवर्तन आया है लेकिन इतने बड़े बदलाव के बावजूद पुलिस व्यवस्था की कोई व्यापक समीक्षा नहीं की गई। इसलिए आयोग ने इस बाबत अपनी तमाम सिफारिशें सरकार के समक्ष प्रस्तुत किया था। हालांकि इन सिफारिशों को लेकर सरकार का रवैया बहुत सकारात्मक नहीं रहा।

प्रकाश सिंह बनाम भारत संघ मामले में सुप्रीम कोर्ट का निर्देश

साल 2006 में, भारत के सर्वोच्च न्यायालय ने प्रकाश सिंह बनाम भारत संघ मामले में एक ऐतिहासिक फैसला दिया। अदालत ने केंद्र और राज्य सरकारों को पुलिस सुधार से जुड़े सात निर्देश जारी किए। इन निर्देशों में पुलिस सुधार शुरू करने के लिए एक व्यावहारिक तंत्र का खाका प्रस्तुत करने की कोशिश की गई थी।

  1. हर राज्य में एक राज्य सुरक्षा आयोग का गठन हो जो (क) यह सुनिश्चित करे कि राज्य सरकार पुलिस पर अनावश्यक दबाव न डाले, (ख) व्यापक नीतिगत दिशानिर्देश तैयार करे और (ग) राज्य पुलिस के प्रदर्शन का आकलन करे।
  2. राज्य के डीजीपी की नियुक्ति योग्यता आधारित पारदर्शी प्रक्रिया के जरिए किया जाए और उस का न्यूनतम कार्यकाल 2 साल का हो।
  3. डीजीपी के अलावा अन्य पुलिस अधिकारियों का भी न्यूनतम 2 साल का कार्यकाल निर्धारित किया जाए ताकि वे अपनी ड्यूटी बिना किसी दबाव के निभा सकें।
  4. अमूमन पुलिस की दो भूमिकाएँ होती हैं - पहला विभिन्न मामलों की जांच और छानबीन करना दूसरा राज्य में कानून व्यवस्था को बनाए रखना। न्यायालय ने कहा कि पुलिस की इन दोनों भूमिकाओं को अलग किया जाए।
  5. डीएसपी और उससे नीचे के पदों के पुलिसकर्मियों के ट्रांसफर, पोस्टिंग, पदोन्नति और सेवा संबंधी अन्य मामलों पर निर्णय लेने के लिए एक पुलिस स्थापना बोर्ड (पीईबी) का गठन किया जाए। साथ ही यह बोर्ड डीएसपी के पद से ऊपर की पोस्टिंग और ट्रांसफर पर सिफारिशें देने का भी काम करेगा।
  6. गंभीर कदाचार, हिरासत में मौत, गंभीर चोट या पुलिस हिरासत में बलात्कार के मामलों में डीएसपी से ऊपर के पुलिस अधिकारियों के खिलाफ सार्वजनिक शिकायतों की जांच करने के लिए राज्य स्तर पर पुलिस शिकायत प्राधिकरण (पीसीए) की स्थापना की जाए। गंभीर कदाचार के मामलों में डीएसपी पद के नीचे के पुलिसकर्मियों के खिलाफ़ सार्वजनिक शिकायतों की जांच जिला स्तर पर एक पुलिस शिकायत प्राधिकरण का गठन किया जाए।
  7. केंद्र स्तर पर एक राष्ट्रीय सुरक्षा आयोग का गठन किया जाए जो केंद्रीय पुलिस संगठनों (CPO) के प्रमुखों के चयन और नियुक्ति के संबंध में एक पैनल तैयार करने का काम करेगा। यह पैनल इन प्रमुखों के चयन और नियुक्ति के संबंध में सिफारिशें करेगा और इन प्रमुखों का कार्यकाल न्यूनतम 2 साल अवश्य हो।

सर्वोच्च न्यायालय का निर्देश कहाँ तक प्रभावी हुआ?

कॉमनवेल्थ ह्यूमन राइट्स इनीशिएटिव (सीएचआरआई) द्वारा पुलिस सुधारों पर एक स्टडी में यह खुलासा हुआ है कि प्रकाश सिंह बनाम भारत सरकार मामले में शीर्ष अदालत के निर्देशों को पूरी तरह से किसी भी राज्य ने लागू नहीं किया है। सरकारों ने इन निर्देशों को या तो अनदेखा किया है या फिर स्पष्ट रूप से मानने से इनकार कर दिया है या फिर निर्देशों की अहम विशेषताओं को कमजोर कर दिया है।

सीएचआरआई के रिपोर्ट में बताया गया है कि केवल 18 राज्यों ने 2006 के बाद नए पुलिस एक्ट को पारित किया है। इसके अलावा बाकी राज्यों ने सरकारी आदेश/अधिसूचनाएं जारी की हैं लेकिन किसी भी एक राज्य ने अदालत के निर्देशों का पूरे तरीके से पालन नहीं किया है।

पुलिस सुधार के संबंध में नीति आयोग क्या कहता है?

नीति आयोग ने अपनी एक रिपोर्ट में पुलिस सुधार को लेकर कई सिफारिशें की थी।

  • राज्यों को इस बात के लिए प्रोत्साहित किया जाए कि वे अपने यहां 'मॉडल पुलिस अधिनियम 2015' लागू करें और इसके लिए उन्हें राजकोषीय सहायता भी प्रदान किया जाए।
  • राज्य में महिला पुलिसकर्मियों की संख्या में पर्याप्त बढ़ोतरी की जाए।
  • पुलिसकर्मियों के लिये आधुनिक प्रशिक्षण व्यवस्था, रिफ्रेशर पाठ्यक्रम लाया जाए और उनकी शिक्षा जारी रखने की समुचित व्यवस्था की जाए।
  • एफआईआर दर्ज करने की वर्तमान व्यवस्था में सुधार किया जाए। छोटे-मोटे अपराधों के लिये ई-एफआईआर की व्यवस्था की जानी चाहिए।
  • नागरिकों की सुरक्षा से जुड़े इमरजेंसी सेवाओं के लिए राष्ट्रीय स्तर पर एक कॉमन ‘इमरजेंसी कांटेक्ट नंबर’ की शुरुआत की जाए।
  • समय के साथ नए-नए अपराध मसलन साइबर अपराधों/साइबर ख़तरों और धोखाधड़ी से निपटने के लिये एक अलग काडर बनाया जाय।

पुलिस सुधार की प्रक्रिया अभी भी सुस्त क्यों है?

SMART पुलिस की अवधारणा को वास्तविकता में बदलने के लिए सरकार द्वारा पर्याप्त प्रयास नहीं किये गए हैं।

  • कानून और व्यवस्था को समवर्ती सूची में रखने जैसी कोई विधायी पहल नहीं की जा रही है।
  • भ्रष्ट आचरण, लालफीताशाही और पक्षपात ने पुलिस सुधार और पुलिस विभाग को पंगु सा बना दिया है।
  • राष्ट्रीय पुलिस आयोग की मुख्य सिफारिशों पर सरकार की नकारात्मक प्रतिक्रिया दुर्भाग्यपूर्ण ही कहा जाएगा।
  • केवल पुलिस प्रणाली ही नहीं बल्कि पूरी आपराधिक न्याय प्रणाली में सुधार की ज़रूरत है।

आगे क्या किया जाना चाहिए?

प्रकाश सिंह बनाम भारत सरकार मामले में सुप्रीम कोर्ट द्वारा दिए गए निर्देशों को सही तरीके से लागू किया जाना चाहिए, ताकि पुलिस व्यवस्था में आंतरिक पारदर्शिता और जवाबदेही जैसे मूल्य सुनिश्चित किये जा सकें।

  • मलिमथ समिति की रिपोर्ट को प्रभावी तरीके से लागू किया जाए। जिसमें पुलिस के मुख्य कार्यों को उसके अन्य सहायक कामों से अलग करने की सिफारिश की गई है।
  • ‘मॉडल पुलिस कोड 2006’ का पालन किया जाना चाहिए।
  • SMART पुलिसिंग की अवधारणा से नागरिकों और पुलिस के बीच बढ़ते अविश्वास को कम करने में काफ़ी मदद मिलेगा।
  • बुनियादी सुविधाओं और प्रशिक्षण गुणवत्ता को बेहतर बनाने, जनशक्ति बढ़ाने और रिसर्च के कामों में निवेश बढ़ाया जाना चाहिए।
  • फाइलिंग, एफआईआर और जांच की रिपोर्ट अपडेट करने जैसे आंतरिक और बाहरी कामों के लिए आधुनिक तकनीक के उपयोग को बढ़ावा दिया जाय।
  • कुछ राज्यों में शुरू की गई बेहतरीन पहल जैसे कि केरल में ‘जन मैत्री सुरक्षा’ (Janamaithri Suraksha) और असम में ‘मीरा-पाइबा’ (मशालधारक) जैसी योजनाओं से प्रेरणा ली जानी चाहिए।