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Blog / 21 Jul 2019

(राष्ट्रीय मुद्दे) श्रम क़ानून और सुधार (Labour Laws and Reforms)

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(राष्ट्रीय मुद्दे) श्रम क़ानून और सुधार (Labour Laws and Reforms)


एंकर (Anchor): कुर्बान अली (पूर्व एडिटर, राज्य सभा टीवी)

अतिथि (Guest): अमरजीत कौर (महासचिव, आल इंडिया ट्रेड यूनियन कांग्रेस), प्रो. रवि श्रीवास्तव (श्रम क़ानूनों के जानकार)

चर्चा में क्यों?

सुरक्षा, स्वास्थ्य सुविधाएं और कार्यस्थलों में कामकाज की बेहतर स्थितियां श्रमिकों के कल्याण के साथ-साथ देश के आर्थिक विकास के लिए भी पहली शर्त है। इसी उद्द्येश्य से, बीते 10 जुलाई को केंद्रीय मंत्रिमंडल ने 13 केंद्रीय श्रम कानूनों को मिलाकर एक संहिता बनाने से जुड़े विधेयक को मंजूरी दे दी। ये सभी 13 क़ानून कार्यस्थल पर श्रमिकों को शारीरिक क्षति से बचाव, स्वास्थ्य और कार्य की दशाओं से जुड़े हैं। लेकिन देश के बहुत से ट्रेड यूनियन सरकार के इस विधेयक का विरोध किया है।

ग़ौरतलब है कि सरकार मौजूदा 44 श्रम कानूनों की जगह सिर्फ 4 कानून रखना चाहती है। इसमें वेतन संहिता को पहले ही मंज़ूरी दी जा चुकी है, जबकि औद्योगिक संबंध संहिता और सामाजिक सुरक्षा संहिता को अभी कैबिनेट की मंज़ूरी नहीं मिल पायी है।

किन-किन क़ानूनों में बदलाव किए जाने हैं?

  • कारखाना अधिनियम 1948;
  • खदान अधिनियम 1952;
  • बंदरगाह श्रमिक (सुरक्षा, स्वास्थ्य और कल्याण) कानून, 1986;
  • भवन और अन्य निर्माण कार्य (रोजगार का विनियमन और सेवा शर्तें) कानून 1996
  • बागान श्रम अधिनियम 1951;
  • संविदा श्रम (विनियमन और उन्मूलन) अधिनियम, 1970
  • अंतर्राज्यीय प्रवासी श्रमिक (रोजगार का विनियमन और सेवा शर्तें) अधिनियम 1979;
  • श्रमजीवी पत्रकार और अन्य समाचार पत्र कर्मचारी (सेवा शर्तें और अन्य प्रावधान) अधिनियम 1955;
  • श्रमजीवी पत्रकार (निर्धारित वेतन दर) अधिनियम 1958;
  • मोटर परिवहन कर्मकार अधिनियम 1961;
  • बिक्री संवर्धन कर्मचारी (सेवा शर्त) अधिनियम 1976;
  • बीड़ी और सिगार श्रमिक (रोजगार शर्तें) अधिनियम 1966 और
  • सिनेमा कर्मचारी और सिनेमा थिएटर कर्मचार (अधिनियम 1981) ।

नए क़ानून के महत्वपूर्ण प्रावधान

  • अगर किसी फर्म में 10 से अधिक कर्मचारी काम कर रहे हैं तो उन्हें नियुक्ति पत्र जारी करना जरूरी होगा।
  • साल में सभी कर्मचारियों का हेल्थ चेक-अप कराना अनिवार्य होगा।
  • नौकरी करने वाली महिलाएँ नाईट शिफ्ट में काम करने या नहीं करने के फैसले खुद ले सकेंगी।
  • बिल के हिसाब से हर संस्थान को सिर्फ एक बार रजिस्ट्रेशन कराना होगा। जबकि मौजूदा समय में छह श्रम कानून के लिए अलग-अलग रजिस्ट्रेशन कराना होता है। एक बार रजिस्ट्रेशन और एक लाइसेंस से कंपनियों का समय-ऊर्जा बचाने में मदद मिलेगी।

भारत में श्रम क़ानून क्यों ज़रूरी हैं?

श्रम क़ानूनों का लाभ लाभ केवल संगठित क्षेत्र तक ही सीमित: मौजूदा वक़्त में ज़्यादातर श्रम क़ानून केवल संगठित क्षेत्र पर ही लागू होते हैं। जबकि संगठित क्षेत्र में केवल 8 से 9 प्रतिशत कर्मचारी ही काम करते हैं। इसका मतलब अधिकांश कामगार असंगठित क्षेत्र से आते हैं। समस्या ये है कि असंगठित क्षेत्र में काम करने वालों के पास सीमित अधिकार होता है और उन्हें ज़्यादा दिक्कत का सामना करना पड़ता है।

श्रम क़ानूनों की बहुलता, जटिलता और कठोरता: फिलहाल देश में करीब 100 श्रम कानून हैं, जिनमें ज्यादातर समवर्ती सूची में हैं। भारत में ढेर सारे श्रम कानूनों के चलते जटिलता बढ़ गई है और इसके कारण औद्योगिक विकास में बाधा पैदा होने लगी है। उनमें से ढेर सारे कानून ऐसे हैं जो बहुत पुराने हो चुके हैं और मौजूदा आर्थिक परिस्थितियों में फिट नहीं बैठते। मसलन औद्योगिक विवाद एक्ट के मुताबिक ऐसी कंपनियां जिनमें 100 से ज्यादा मजदूर काम कर रहे हैं उन्हें अपने यहाँ छटनी करने के लिए सरकार से अनुमति लेनी होती है। लेकिन ये परमिशन मिलना आसान काम नहीं होता। ट्रेड यूनियन एक्ट के मुताबिक़ किसी फर्म में काम कर रहे सात या सात से ज़्यादा श्रमिक मिलकर एक ट्रेड यूनियन बना सकते हैं। अब ढेर सारे ट्रेड यूनियन के कारण हड़ताल की संभावना भी बढ़ जाती है। साथ ही यूनियनों की बहुलता के चलते फर्म के प्रबंधन का काम भी प्रभावित होता है।

ईज ऑफ डूइंग बिजनेस प्रभावित होता है: फर्म मालिकों का ये मानना है कि भारत में संगठित क्षेत्र में श्रम कानून कुछ ज़्यादा ही जटिल हैं। श्रम कानूनों को बनाते वक़्त उद्योगों को संदेह की नजर से देखा जाता है। नौकरी की सुरक्षा और ट्रेड यूनियनों के दबाव के कारण कम्पनी का मैनेजमेंट कठिन हो जाता है। ऐसे में जो छोटी कम्पनियाँ होती हैं उनका विस्तार ढंग से नहीं हो पाता। श्रम प्रधान फर्मों का छोटा आकार अर्थव्यवस्था को उस तरह से नहीं बढ़ने देता जिस तरह से बढ़ना चाहिए। एक अध्ययन से पता चलता है कि ऐसे राज्य जहां पर आसान श्रम कानून हैं, वहां रोजगार और अर्थव्यवस्था की बढ़ोतरी दोनों ही बेहतर रहे हैं।

रोज़गार विहीन आर्थिक वृद्धि: तमाम अर्थशास्त्रियों का मानना है कि सख़्त कानूनों के चलते रोजगार वृद्धि में कमी देखी जा रही है। मौजूदा श्रम कानून रोजगार की सुरक्षा की बात तो करते हैं लेकिन रोजगार को प्रोत्साहित करने के लिहाज से पर्याप्त नहीं हैं। यही कारण है कि टेक्नोलॉजी आधारित उद्योगों में बढ़ोतरी देखने को मिल रही है और श्रम प्रधान उद्योगों से उद्यमियों का मोहभंग हो रहा है। हाल ही में केन्द्रीय सांख्यिकी कार्यालय यानी सीएसओ द्वारा भारत में बेरोजगारी को लेकर आंकड़े जारी किए गए। जारी आंकड़ों के मुताबिक़ वित्त वर्ष 2017-18 के दौरान देश में बेरोजगारी की दर 6.1 फीसदी रही। ये आंकड़े जुलाई 2017 से जून 2018 के बीच की आवधिक श्रम बल सर्वेक्षण यानी पीएलएफएस रिपोर्ट के आधार पर जारी किए गए हैं। इन आंकड़ों के मुताबिक, बेरोजगारी दर पिछले 45 वर्षों के सर्वोच्च स्तर पर पहुँच गई है।

कौशल विकास: कौशल विकास में उद्योग महत्वपूर्ण भूमिका निभाते हैं। जबकि मौजूदा श्रम क़ानूनों के कारण कंपनियां ज़्यादातर कॉट्रैक्ट वर्कर्स को ही काम देती हैं। ऐसे में, ये कंपनियां कॉट्रैक्ट वर्कर्स के कौशल विकास और प्रशिक्षण में बहुत ज़यादा रूचि नहीं लेती हैं।

वैश्विक प्रतिस्पर्धा: संकीर्ण श्रम क़ानूनों के कारण श्रम प्रधान फर्मों का वाज़िब विकास नहीं हो पाता। ऐसे में, ये फर्म वैश्विक प्रतिस्पर्धा की दौड़ में पीछे रह जाते हैं। मसलन भारतीय मैन्युफैक्चरिंग फर्मों और कपड़ा उद्योग जो कि श्रम-प्रधान उद्योग हैं वो चीन, बांग्लादेश और वियतनाम जैसे देशों के मुक़ाबले काफी पीछे हैं। जबकि इन देशों में श्रम क़ानून तुलनात्मक दृष्टि से आसान हैं।

क्या किया जाना चाहिए?

श्रम कानूनों को कुछ इस तरह से बनाना होगा कि 'ईज ऑफ डूइंग बिजनेस' पर कोई बुरा प्रभाव न पड़े, क्योंकि सख्त श्रम कानूनों के कारण औद्योगिक विकास नहीं हो पाता। ऐसे में रोज़गारहीनता बढ़ जाती है।

  • हमें आधुनिक श्रम कानूनों के साथ साथ मानव संसाधन को उत्पादक बनाने के उपायों पर काम करना होगा, मसलन कौशल विकास।
  • एकीकृत श्रम पोर्टल जैसी सुविधाओं की शुरुआत एक बेहतर कदम है लेकिन इस दिशा में बहुत कुछ करने की आवश्यकता है।
  • न्यूनतम मजदूरी को परिभाषित करके और इसे मुद्रास्फीति से जोड़कर श्रम कानून को युक्तिसंगत बनाया जाना चाहिए।