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Blog / 09 Mar 2019

(राष्ट्रीय मुद्दे) जंगल की जमीन का अधिकार (Forest Land Rights)

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(राष्ट्रीय मुद्दे) जंगल की जमीन का अधिकार (Forest Land Rights)


एंकर (Anchor): कुर्बान अली (पूर्व एडिटर, राज्य सभा टीवी)

अतिथि (Guest): नरेश चंद्र सक्सेना (पूर्व सचिव योजना आयोग), संजीव कुमार (सामाजिक कार्यकर्त्ता)

चर्चा में क्यों?

बीते दिनों 13 फरवरी को सुप्रीम कोर्ट ने एक मामले से जुड़ी सुनवाई के आदेश में कहा कि 16 राज्य के करीब 11.2 लाख परिवारों को जंगल खाली करना होगा। इन परिवारों में ज़्यादातर आदिवासी और ऐसे लोग हैं जो लम्बे समय से जंगलों में रहते आये हैं। कोर्ट ने राज्य सरकारों को आदेश दिया था कि वे अपने राज्य के कानूनों के मुताबिक जमीनें खाली कराएं। यह फैसला वाइल्ड लाइफ फस्ट एंड अन्य बनाम वन एवं पर्यावरण मंत्रालय एवं अन्य के मामले में आया था। इससे आदिवासी और अन्य वनवासी समुदायों में खलबली मच गयी।

हालांकि बाद में सुप्रीम कोर्ट ने आदिवासियों और वनवासियों को भारी राहत देते हुए अपने 13 फरवरी के आदेश पर फिलहाल रोक लगा दिया है। साथ ही, कोर्ट ने केंद्र और राज्य सरकारों को फटकार लगाते हुए कहा कि उन्होंने अभी तक इस दिक्कत को क्यों नहीं सुलझाया। इस मामले की अगली सुनवाई 10 जुलाई होगी।

क्या है वनाधिकार क़ानून 2006?

भारत में, आज़ादी के पहले के शोषणकारी अंग्रेजी क़ानून के कारण आदिवासियों और जंगलवासियों को उनका वाज़िब हक़ नहीं मिल पाया था। दशकों तक उन्हें ज़मीन और अन्य संसाधनों से वंचित रखा गया। इस समस्या को दूर करने के लिए भारत सरकार ने दिसंबर 2006 में वनाधिकार क़ानून पारित किया। यह कानून पारंपरिक जंगलवासियों और समुदायों के अधिकारों को कानूनी मान्यता देता है। इसका आधिकारिक नाम - अनुसूचित जनजाति एवं अन्य परम्परागत वन निवासी (वन अधिकारों की मान्यता) अधिनियम, 2006 - है।

यह क़ानून ज़रूरी क्यों था?

भारतीय क़ानूनों में जिसे "वन" कहा जाता है, दरअसल उसका वास्तविक जंगलों से कोई लेना-देना नहीं है। भारतीय वन अधिनियम के तहत, इन क्षेत्रों में रहने वाले लोगों का सर्वे किये बिना, ज़्यादातर जंगलों को "सरकारी वन" घोषित कर दिया जाता था। इन जंगलों में कौन लोग रह रहे हैं, कितने लोग रह रहे हैं, वे जंगलों से किस तरह का उत्पाद उपयोग में लेते थे, उनका जीवन इससे किस तरह प्रभावित होगा - इन मसलों पर क़ायदे से ध्यान नहीं दिया गया। मसलन, मध्य वन ब्लॉक का 82% और उड़ीसा के आरक्षित वनों का 40% भाग का कभी सर्वेक्षण नहीं किया गया। इसी तरह, भारत के 60% राष्ट्रीय उद्यानों ने आज तक अपनी जांच और अधिकारों के निपटान की प्रक्रिया पूरी नहीं की है। भारत सरकार के टाइगर टास्क फोर्स ने भी कहा, "वन संरक्षण के नाम पर, जो भी किया गया है वह पूरी तरह से महज एक अवैध और असंवैधानिक भूमि अधिग्रहण कार्यक्रम है।" शायद इसलिए यह कानून अब ज़रूरी हो गया था।

आज़ादी के पहले वनाधिकार सम्बन्धी क़ानून

साल 1864 में भारतीय वन विभाग की स्थापना के साथ ही भारतीय वन अधिनियम, 1865 लाया गया। इसके ज़रिये अंग्रेजी सरकार ने भारत में ब्रिटिश उपनिवेशवाद को और बढ़ावा दिया। जंगलों और वनोपज को सरकारी संपत्ति घोषित कर दिया गया। और दशकों से वहां रहने वाले लोग अब 'अतिक्रमणकारी' हो गए। इन 'अतिक्रमणकारियों' पर क़ानून के तहत कार्रवाई भी की गई। उसके बाद 1878 का वन अधिनियम और 1894 की वन नीति आई।

कुल मिलाकर एक सदी से अधिक समय से भारत के वनों की शासन व्यवस्था उन भारतीय वन कानूनों के प्रावधानों के अनुसार की जाती रही है जो 1876 से 1927 तक पारित किए गए थे। 1927 का कानून भारत का केन्द्रीय वन कानून बना रहा।

इन कानूनों का पर्यावरण संरक्षण से कोई लेना-देना नहीं था। बल्कि सरकार का मक़सद इमारती लकड़ी के इस्तेमाल और प्रबन्धन को अपने हाथ में लेना था। इसके लिए जरूरी था कि सरकार वनों पर अपना अधिकार जमाए और पारम्परिक सामुदायिक वन प्रबन्धन की व्यवस्था को बिगाड़ दे, जो उस समय देश के अधिकतर हिस्सों में चलन में थीं। इसका नतीजा ये हुआ कि आदिवासियों को अपने हक़ के लिए एक लम्बी लड़ाई लड़नी पड़ी।

आज़ादी के बाद वनाधिकार सम्बन्धी क़ानून

आज़ादी के बाद साल 1952 में राष्ट्रीय वन नीति अपनाया गया। बाद में, संयुक्त वन प्रबंधन और सामुदायिक वन प्रबंधन जैसे कार्यक्रम लाये गए। साल 1988 में एक नई वन नीति लाई गई जिसमे पहली बार वनों के आर्थिक महत्व से ज़्यादा इस पर स्थानीय लोगों के अधिकार को तरजीह दी गई।

हालाँकि इस नीति को क़ानूनी जामा नहीं पहनाया गया था। इसलिए ये ज़मीनी स्तर उतना प्रभावी नहीं रहा। लेकिन बाद में वनाधिकार क़ानून 2006 इस दिशा में एक अहम् क़दम साबित हुआ। यानी 1927 के क़ानून के ज़रिये जो वनवासियों के साथ जो 'ऐतिहासिक अन्याय' किया गया था, 2006 में उसे सही करने का प्रयास किया गया।

इस क़ानून के ज़रिये कौन-कौन से अधिकार दिए गए हैं?

  • मालिकाना हक़- आदिवासियों या वनवासियों को उस ज़मीन का पट्टा दे दिया जाएगा जिस पर वो खेती कर रहे हैं या लगभग तीन पीढ़ियों या 75 साल से रह रहे हैं। ये पट्टा अधिकतम 4 हेक्टेयर तक दिया जा सकता है। स्वामित्व केवल उस भूमि के लिए है जो वास्तव में संबंधित परिवार द्वारा खेती की जा रही है, इसका मतलब है कि कोई नई भूमि नहीं प्रदान की जाएगी।
  • वन उत्पादों के उपयोग का अधिकार - लघु वन उपज, चारागाह, और आने जाने के रास्ते के उपयोग का हक़ होगा।
  • राहत और विकास से जुड़े हक़ - वन्य सुरक्षा को देखते हुए अवैध निकासी या जबरन विस्थापन के मामले में पुनर्वास और बुनियादी सुविधाओं का अधिकार होगा।
  • वन प्रबंधन का अधिकार - जंगलों और वन्यजीवों की रक्षा का हक़ दिया गया है।

इन अधिकारों को ज़मीनी स्तर पर लागू करने की क्या प्रक्रिया होगी?

इस कानून में तीन चरण वाली एक प्रक्रिया की व्यवस्था है जिसके अनुसार, यह तय किया जाएगा कि किसे वन अधिकार मिलना चाहिए। सबसे पहले ग्राम सभा सिफारिश करेगी कि कितने अरसे से कौन उस जमीन को जोत रहा है, किस तरह का वनोत्पाद वह लेता रहा है। यह जाँच ग्राम सभा की वनाधिकार समिति करेगी, जिसके सिफारिश को ग्राम सभा पूरी तरह स्वीकार करेगी।

ग्राम सभा की सिफारिश भी छानबीन के दो चरणों से गुजरेगी- ताल्लुका और जिला स्तरों पर। जिला स्तरीय समिति का फैसला अन्तिम होगा। इन समितियों में छह सदस्य होंगे − तीन सरकारी अधिकारी और तीन निर्वाचित सदस्य। दोनों − ताल्लुका और जिला स्तरों पर कोई भी व्यक्ति, जो यह समझता है कि दावा गलत है, इन समितियों के सामने अपील दायर कर सकता है। यदि उसका दावा साबित हो जाता है तो दूसरों को अधिकार से वंचित कर दिया जाएगा।

जब सब कुछ सही हो गया तो दिक्कत क्यों आई?

  • दावों की जटिल प्रक्रिया: वनाधिकार क़ानून यानी एफआरए के तहत समुदायों के दावों को दर्ज करने की प्रक्रिया इतनी जटिल है कि क़ानून का मूल मक़सद पूरा होता नहीं दिख रहा है। मसलन, निरस्त होने वाले दावों की संख्या बहुत अधिक है।
  • दूसरी समस्या यह है कि जिन दावों को स्वीकार किया जा रहा है उनमें भी ऐसा नहीं है कि पूरे दावे को स्वीकार किया गया हो यानी यदि पांच बीघे का दावा प्रस्तुत किया गया है तो 2 बीघे का ही दावा स्वीकार होगा। इसका मतलब ये हुआ कि जो दावे स्वीकार हुए हैं उनमें भी आदिवासी परिवार द्वारा जोती जा रही जमीन पहले से कम हो रही है।
  • सामूहिक उद्द्येश्य मसलन स्कूल, चारागाह और आंगनवाड़ी के लिए दावा कौन पेश करे इस पर दुविधा बनी हुई है। साथ ही सामूहिक इस्तेमाल की ज़मीन वाले दावों पर बहुत ही कम पट्टे दिए गए।
  • आदिवासियों की आड़ में भू-माफिया, लकड़ी माफिया और राजनीतिक रसूख वाले लोग इस क़ानून का बहुत दुरुपयोग कर रहे हैं।
  • वन विभाग के नौकरशाही की अनिच्छा: एफआरए के बाद भी वन विभाग अंग्रेजों के पुराने कानूनों के नक्शे कदम पर चल रहा है। वह अपने में बदलाव नहीं लाना चाहता। नए वनाधिकार कानून को लागू करने के बदले वह पुराने कानूनों को ही लागू करके जंगल और जनता पर अपना दबदबा बनाए रखना चाहता है।
  • क़ानून की पर्याप्त जानकारी नहीं: वनाधिकार कानून के लागू हुए लगभग एक दशक हो गया। लेकिन, अभी कई ऐसे गाँव या क्षेत्र हैं जहाँ जंगल आश्रित लोगों को इसकी जानकारी ठीक से नहीं है। बहुत से लोगों ने अब भी दावा-पत्र नहीं भरा है।
  • क़ानून की संकीर्ण व्याख्या: एफआरए क़ानून की व्याख्या बहुत ही संकीर्ण तरीके से की गई है। ऐसे में इसका मूल मक़सद पूरा होना थोड़ा मुश्किल है।
  • पर्यावरण मंत्रालय द्वारा की गई उपेक्षा: ये क़ानून वन में निवास करने वाले आदिवासियों और वनवासियों को उनकी सांस्कृतिक और प्राकृतिक विरासतों को सुरक्षित रखने का अधिकार देता है। इन्हें सामुदायिक वन संसाधनों तक पहुँच के साथ ही ऐसे किसी क्रियाकलाप को रोकने का अधिकार भी है, जिससे वन्य जीव, वन और जैवविविधता पर बुरा असर पड़ता हो। लेकिन, पर्यावरण मंत्रालय ने 'जल्दी अनुमति' के नाम पर वनों को और आदिवासियों के अधिकारों को काफी नुकसान पहुंचाया। इससे सामुदायिक भागीदारी और स्थानीय मंजूरी प्रक्रिया पर नकारात्मक प्रभाव पड़ा है।

मामला कोर्ट में कैसे पहुँच गया?

इस क़ानून के बनने के साथ ही कुछ लोगों ने इसकी खामियों की ओर उंगली उठाया था। उनका कहना था कि सरकार द्वारा यह वनों के निजीकरण का प्रयास है, इससे बाकी बचे बाघों का विनाश हो जाएगा और ये वोट बैंक लिए 'कल्याणकारी' उपाय किया गया है।

इसके बाद कुछ एनजीओ और रिटायर्ड वन अधिकारियों द्वारा कोर्ट में फॉरेस्ट राइट्स एक्ट को चुनौती दी गई। और फिर, वाइल्ड लाइफ फर्स्ट और अन्य बनाम पर्यावरण एवं वन मंत्रालय के मामले में कोर्ट ने 13 फरवरी को अपना ये आदेश दिया था। यह फैसला सुप्रीम कोर्ट ने केन्द्र सरकार की ओर से आदिवासियों को जंगलों से हटाने के आदेश पर रोक लगाने के मामले में सुनवाई के दौरान दिया। हालांकि कुछ लोगों ने ये भी आरोप लगाय था कि सरकार ने इस मामले में आदिवासियों की कोर्ट में ठीक से पैरवी नहीं की।

कोर्ट ने क्या कहा?

सुप्रीम कोर्ट ने विशेष रूप से 17 राज्यों के मुख्य सचिवों को निर्देश जारी किए हैं। उनको कहा गया है कि उन सभी मामलों में जहां ज़मीन के मालिकाना हक़ के दावे खारिज कर दिए गए हैं, उन्हें12 जुलाई, 2019 तक बेदखल किया जाए। ऐसे मामलों में जहां सत्यापन/ पुन: सत्यापन/ पुनर्विचार लंबित है, राज्य को चार महीने के भीतर प्रक्रिया पूरी करे और एक रिपोर्ट पेश करे।

क्या स्थिति है भारत में आदिवासियों की?

साल 2011 की जनगणना के मुताबिक़, भारत में अनुमानित 104 मिलियन आदिवासी रहते हैं। जबकि सिविल सोसाइटी समूहों का अंदाज़ा है कि वन क्षेत्रों में 1 लाख 70 हज़ार गांवों में रहने वाले अनुसूचित जनजातियों और अन्य वनवासियों मिलाकर लगभग 200 मिलियन लोग हैं, जो भारत के भौगोलिक क्षेत्र का लगभग 22% हिस्सा कवर करते हैं।