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Blog / 02 Sep 2019

(राष्ट्रीय मुद्दे) भारत में बाढ़ (Flood on India)

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(राष्ट्रीय मुद्दे) भारत में बाढ़ (Flood on India)


एंकर (Anchor): कुर्बान अली (पूर्व एडिटर, राज्य सभा टीवी)

अतिथि (Guest): प्रोफेसर सी. के. वार्ष्णेय (पर्यावरण मामलों के जानकार), हिमांशु ठक्कर ('साऊथ एशिया नेटवर्क ऑफ डैम्स' के प्रमुख)

चर्चा में क्यों?

कहीं पहाड़ दरक रहे हैं तो कहीं बादल फट रहा है। पहाड़ों से लेकर मैदान तक हिंदुस्तान का एक बड़ा इलाक़ा बाढ़ की चपेट में है। क्या उत्तराखंड, क्या महाराष्ट्र, क्या असम.........बाढ़ हर जगह अपना कहर बरपा रहा है।

हाल ही में, लोकसभा में एक प्रश्न के जवाब में गृहमंत्रालय ने सदन को बताया कि बीते 3 सालों में बाढ़ की वजह से करीब 6000 लोगों की मौत हो चुकी है। इसके अलावा इन 3 सालों के दौरान 2 लाख मवेशी और 39 लाख घर बाढ़ की चपेट में आ चुके हैं। बाढ़ की दिक्कत हिंदुस्तान के लिए कोई नई नहीं है, मगर ताज्जुब की बात है कि हम आज तक इसके लिए कोई ठोस उपाय नहीं ढ़ूँढ़ पाए। ऐसे में हमारी बाढ़ प्रबंधन की व्यवस्था पर सवाल उठना लाज़मी है।

बाढ़ है क्या?

बाढ़ एक ऐसी प्राकृतिक आपदा है, जिसमें ज्यादा बारिश होने के चलते नदियों की क्षमता में सामान्य से अधिक बहाव देखने को मिलता है। इससे नदियों का जल किनारों से बाहर आकर मैदानी भागों में बहने लगता है।

भारत विश्व का दूसरा बाढ़ प्रभावित देश है। दरअसल बाढ़ एक ऐसी स्थिति है जिसमें कोई निश्चित भूक्षेत्र अस्थायी रूप से जलमग्न हो जाता है और सामान्य जन-जीवन प्रभावित हो जाता है।

क्या है शहरी बाढ़?

आमतौर पर एक बड़े जल स्रोत के जरिए ऐसे जगह पानी भर जाना जहां अमूमन जलभराव नहीं होता, इसे ही बाढ़ कहा जाता है। जब तेज और लंबी बारिश के चलते शहरी क्षेत्रों में जलभराव की समस्या उत्पन्न हो जाती है और यह जलभराव यहां की जल निकासी तंत्र की क्षमता को पार कर जाता है तो इसे शहरी बाढ़ कहते हैं। ग्रामीण क्षेत्रों में आई बाढ़ का असर बड़ा भी हो सकता है और इसमें कृषि का नुकसान भी संभव है, लेकिन शहरी बाढ़ की तुलना में यहां प्रभावित होने वाले लोगों की संख्या काफी कम होती है।

भारत के बाढ़ प्रभावित क्षेत्र

भारत के तमाम ऐसे इलाके हैं जहां बाढ़ के चलते बड़े स्तर पर जान-माल का नुकसान देखने को मिलता है। साल 1980 में गठित राष्ट्रीय बाढ़ आयोग के एक रिपोर्ट के मुताबिक देश के 40 मिलियन हेक्टेयर का इलाक़ा बाढ़ प्रभावित क्षेत्र के अंतर्गत आता है। इस तरह तक़रीबन 21 राज्य और 1 केंद्र शासित प्रदेश बाढ़ प्रभावित क्षेत्र के दायरे में आते हैं। बाद में गंगा बाढ़ नियंत्रण आयोग ने (फरवरी 2006 में) बताया था कि देश के तकरीबन 39 जिले बाढ़ प्रभावित क्षेत्रों में आते हैं।

बाढ़ के कारण

वैसे तो बाढ़ एक सामान्य प्राकृतिक प्रक्रिया है जिसमें भारी बारिश के चलते नदियों के जल धारण की क्षमता से ज्यादा जल हो जाता है। लेकिन मौजूदा वक्त में बाढ़ हमेशा भारी बारिश के कारण ही नहीं आती, बल्कि यह प्राकृतिक और मानव निर्मित दोनों ही कारणों का परिणाम है।

बेहतर बाढ़ प्रबंधन का ना होना: क्योंकि बाढ़ एक सामान्य प्राकृतिक घटना है। ऐसे में हमें इस की चुनौतियों से निपटने के लिए तैयार होना चाहिए। लेकिन हम ऐसा करने में असफल रह जाते हैं। इसकी तमाम वज़ह हैं जिनमें प्रबंधन एजेंसियों का लचर रवैया, मानव बस्तियों का बेतहाशा प्रसार और अग्रिम तैयारी और प्रशिक्षण का ना होना जैसे कारक शामिल हैं।

मौसम से जुड़े कारण: दरअसल, तीन से चार महीने के दौरान ही देश में भारी बारिश के चलते नदियों का जलस्तर अचानक बढ़ जाता है जो विनाशकारी बाढ़ का कारण बनता है। ग़ौरतलब है कि अगर एक दिन में करीब 15 सेंटीमीटर या उससे ज़्यादा की बारिश होती है, तो नदियों का जल-स्तर खतरनाक ढंग से बढ़ना शुरू हो जाता है।

नदियों के रास्ते में गाद का इकट्ठा होना: हिमालय से निकलने वाली तमाम नदियाँ अपने साथ काफी मात्रा में गाद और रेत बहा कर लाती हैं। अब अगर इस गाद की सफाई कई दिनों तक नहीं की जाती है तो नदियों का रास्ता बंद हो जाता है, जिससे आस-पास के इलाकों में पानी भर जाता है। धीरे धीरे यही बाढ़ का रूप ले लेता है।

बादल फटना: भारी बारिश और पहाड़ों या नदियों के आस-पास बादल फटने से भी नदियों का जल-स्तर खतरनाक ढंग से बढ़ जाता है।

मानवीय दख़लअंदाज़ी: बतौर इंसान, हम विकास और प्रकृति के बीच में संतुलन बनाने में नाकामयाब रहे हैं। तटबंधों, नहरों और रेलवे से जुड़े निर्माण के चलते नदियों के जल-प्रवाह में तमाम प्रकार की बाधाएं आ गई हैं। लिहाजा बाढ़ का आना कोई अप्रत्याशित घटना नहीं है।

जंगलों की बेतहाशा कटाई: पानी के बहाव के चलते मिट्टी के कटाव का होना एक सामान्य सी बात है। लेकिन पेड़-पौधे मिट्टी कटाई को रोकने में अहम भूमिका निभाते हैं। इस तरह पेड़-पौधे बाढ़ को रोकने में काफी महत्वपूर्ण कारक साबित होते हैं। लेकिन आज के समय में अपनी लालच के कारण इंसान जिस तरह से जंगलों की बेतहाशा कटाई कर रहा है ऐसे में, बाढ़ को कोई अस्वाभाविक घटना नहीं माना जाना चाहिए। यहां यह कहना बिल्कुल गलत नहीं होगा कि ‘जैसी करनी वैसी भरनी’।

बाढ़ का प्रभाव

केंद्रीय जल आयोग द्वारा जारी एक आंकड़े के मुताबिक पिछले 64 साल (साल 1953 से लेकर 2017 तक) में बाढ़ के चलते करीब एक लाख से ज्यादा लोगों की मौत हो चुकी है। इसके अलावा इंफ्रास्ट्रक्चर और घरों को जो नुकसान हुआ है उसकी कीमत 3,65,860 करोड़ों रुपए आंकी गई है। अगर इस राशि को जीडीपी के पदों में देखें तो यह भारत की मौजूदा जीडीपी की करीब 3 फ़ीसदी होगी। यानी बाढ़ के चलते किसानों की ज़मीन और मानव बस्तियों के डूबने से देश की अर्थव्यवस्था और समाज दोनों पर नकारात्मक प्रभाव पड़ता है। बाढ़ न सिर्फ फसलों को बर्बाद करती है बल्कि आधारभूत ढांचे मसलन सड़कें, रेल मार्गों, पुल और मानव बस्तियों को भी कॉफी नुकसान पहुँचाती है।

इसके अलावा बाढ़ग्रस्त इलाकों में कई तरह की बीमारियाँ मसलन कालरा, एंट्राइटिस यानी आंत्रशोथ, और हेपेटाईटिस फैल जाती हैं। विश्व बैंक की एक रिपोर्ट के मुताबिक़ दुनिया भर में बाढ़ से होने वाली मौतों में से 20 फीसदी भारत में ही होती है।

कुछ फायदे भी हैं बाढ़ के

वैसे तो बाढ़ के नुकसान ज्यादा है लेकिन इसके कुछ फायदे भी हैं। बाढ़ के कारण हर साल खेतों में उपजाऊ मिट्टी जमा होती है जो खेती के लिहाज से काफी फ़ायदेमंद साबित होता है। साथ ही बाढ़ की वजह से जैव-विविधता पर भी आंशिक रूप से सकारात्मक प्रभाव पड़ता है।

बाढ़ के संबंध में सरकार द्वारा किए गए पहल

नीतिगत कदमों के अलावा समय-समय पर सरकार जरूरत के हिसाब से अन्य उपाय भी करती रहती है। इनमें तटबंदी, राहत और बचाव कार्य और चेतावनी जारी करने जैसे कदम शामिल हैं। सरकार के नीतिगत पहल के तहत शामिल हैं-

  • नीति वक्तव्य – 1954
  • बाढ़ पर उच्च स्तरीय समिति – 1957
  • नीति वक्तव्य - 1958
  • राष्ट्रीय बाढ़ आयोग – 1980
  • राष्ट्रीय बाढ़ आयोग की सिफारिशों के क्रियान्वयन की समीक्षा के लिए विशेषज्ञ समिति - 2003 (आर रंगाचारी समिति)
  • राष्ट्रीय जल नीति (1987/2002/2012)

आपदा प्रबंधन प्राधिकरण

भारत सरकार ने 23 दिसंबर, 2005 को आपदा प्रबंधन कानून बनाया। इस कानून में प्रधानमंत्री की अध्यक्षता वाली एक राष्ट्रीय आपदा प्रबंधन प्राधिकरण यानी एनडीएमए और संबंधित मुख्यमंत्रियों की अध्यक्षता वाली एक राज्य आपदा प्रबंधन प्राधिकरण यानी एसडीएमए के गठन की व्यवस्था की गई। इसका उद्देश्य भारत में आपदा प्रबंधन के लिहाज से एक समग्र और एकीकृत दृष्टिकोण लागू करना था।

सेंदाई फ्रेमवर्क क्या है?

18 मार्च, 2015 को जापान के सेंदाई शहर में आयोजित आपदा जोखिम में कमी को लेकर तीसरे संयुक्त राष्ट्र विश्व सम्मेलन का आयोजन किया गया। इस दौरान सेंदाई फ्रेमवर्क को अपनाया गया। इस फ्रेमवर्क में यह स्वीकार किया गया कि आपदा जोखिम को कम करने के लिए प्राथमिक भूमिका सरकार की होती है लेकिन इसमें स्थानीय सरकार, निजी क्षेत्र और अन्य हितधारकों की भी जिम्मेदारी होती है। सेंदाई फ्रेमवर्क में आपदा से निपटने के लिए तमाम गाइडलाइन्स बताये गए हैं।

आगे क्या किया जाना चाहिए?

जिस तरह से बाढ़ की स्थिति दिन-ब-दिन भयावह होती जा रही है। ऐसे में, सरकार की तरफ से एकतरफा किये जाने वाले प्रयास से वाजिब नतीजे नहीं आएंगे। इसमें जनता का भी सहयोग होना बहुत जरूरी है।

  • इसके लिए राज्य और स्थानीय स्तर पर बाढ़ की चुनौतियों से निपटने के लिए बाक़ायदा लोगों को प्रशिक्षण दिया जाना चाहिए। साथ ही जरूरी मूलभूत व्यवस्थाएं भी उपलब्ध करानी होंगी।
  • हमें एक बेहतर सूचना तंत्र का निर्माण करना होगा, जो बाढ़ के दौरान भी काम करने में सक्षम हो, ताकि समय रहते जनता के बीच आवश्यक सूचना पहुंचाया जा सके। हमें सूचना तंत्र को इस लिहाज से भी बेहतर बनाना होगा कि बाढ़ का पूर्वानुमान लगाया जा सके। इसमें रिमोट सेंसिंग टेक्नोलॉजी का बखूबी उपयोग किया जा सकता है।
  • इंफ्रास्ट्रक्चर से जुड़े सुधार मसलन तटबंध, कटाव रोकने के उपाय और जल निकास तंत्र को मजबूत बनाना करने होंगे। साथ ही अलग-अलग क्षेत्रों में बाढ़ का कारण और प्रकृति अलग अलग होती है। इसलिए हर क्षेत्र के अनुसार हमें उपाय भी उसी हिसाब से करने होंगे।
  • सबसे महत्वपूर्ण बात यह है कि हम इंसानों को विकास और प्रकृति के बीच में संतुलन बिठाना होगा। बेतहाशा किया जाने वाला भौतिक विकास आगे चलकर विनाशकारी ही साबित होगा।
  • बाढ़ सुरक्षा तो अहम है ही लेकिन उससे भी ज्यादा जरूरी बाढ़ गवर्नेंस है यानी हमें व्यापक स्तर पर अग्रिम तैयारी करनी होगी।
  • क्योंकि बाढ़ राज्य सूची का विषय है ऐसे में कई बार नीतियों का व्यापक स्तर पर समन्वयन नहीं हो पाता। ऐसे में, नीतियों का समन्वयन बहुत जरूरी है।
  • अवैध निर्माण और अतिक्रमण को भी रोकना बहुत जरूरी है।