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Blog / 26 Jul 2019

(राष्ट्रीय मुद्दे) दल बदल क़ानून और दुरुपयोग (Anti Defection Law It's Misuse)

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(राष्ट्रीय मुद्दे) दल बदल क़ानून और दुरुपयोग (Anti Defection Law It's Misuse)


एंकर (Anchor): कुर्बान अली (पूर्व एडिटर, राज्य सभा टीवी)

अतिथि (Guest): हंसराज भारद्वाज (पूर्व क़ानून मंत्री), टी आर रामचंद्रन (वरिष्ठ राजनितिक पत्रकार)

चर्चा में क्यों?

कर्नाटक का राजनीतिक नाटक ख़त्म होने का नाम नहीं ले रहा है। बीते दिनों लंबे समय से सत्ता को लेकर चल रहा संकट का मामला सुप्रीम कोर्ट में भी पहुंच गया। मामले में अदालत के आदेश के बाद कर्नाटक कांग्रेस का कहना है कि कोर्ट के आदेश के चलते पार्टी का अपने विधायकों को व्हिप जारी करने का अधिकार खतरे में आ गया है।

ग़ौरतलब है कि कर्नाटक के सत्ताधारी कांग्रेस और जेडीएस गठबंधन के 16 MLA विधानसभा की सदस्यता से इस्तीफ़ा दे चुके हैं। इससे कर्नाटक की कुमारास्वामी सरकार संकट में आ गयी है। विधानसभा के स्पीकर द्वारा विधायकों के इस्तीफ़े पर जल्द फैसला न लिए जाने के खिलाफ सुप्रीम कोर्ट में याचिका दायर कर दी गई थी। विधायकों की इस याचिका पर सुनवाई के बाद कोर्ट ने विधानसभा अध्यक्ष को इस्तीफ़े पर निर्णय लेने का अधिकारी क़रार दिया।

दल-बदल कानून

यदि कोई विधायक अपनी पार्टी के खिलाफ जा कर दूसरी पार्टी का समर्थन करता है तो उसकी इस प्रक्रिया को दल-बदल माना जाता है। ऐसे में उस विधायक की सदस्यता समाप्त कर दी जाती है। दल-बदल कानून भारत में 1 मार्च 1985 से लागू हो गया था। ये कानून संविधान में 10वीं अनुसूची के रूप में डाला गया था। कानून संसद और राज्य विधानसभा दोनों पर लागू होता है।

किन परिस्थितियों में ये कानून बना?

पार्टी की अदल-बदल कोई नयी बात नहीं है। 1967 में देश के 16 राज्यों में चुनाव हुए थे, जिसमे से सिर्फ एक राज्य में कांग्रेस की सरकार बन पाई थी। इस का कारण वे MLA थे जिन्होंने उस समय कांग्रेस को छोड़ कर दूसरी पार्टी ज्वाइन कर ली थी। विधान सभा के 1900 सदस्य और संसद के 142 सदस्यों ने उस साल पार्टी बदली थी। इनमें से हरियाणा के एक MLA गया राम ने एक ही दिन में तीन बार पार्टी बदली थी। तभी से "आया राम, गया राम" वाक्य दलबदलुओं के लिए इस्तेमाल होने लगा। इसी सम्बन्ध में, दलबदल को रोकने के लिए 52वें संशोधन के ज़रिए एक कानून बनाया गया।

किस आधार पर कोई विधायक अयोग्य घोषित किया जाता है?

यदि किसी राजनैतिक दल का विधायक अपनी इच्छा से अपनी पार्टी छोड़ दे; या यदि कोई विधायक सदन में अपनी पार्टी के निर्देशों से विपरीत जा कर मत दे या मतदान में अनुपस्थिति रहे या फिर 15 दिनों के अंदर उसे अपने पार्टी से क्षमादान ना मिल पाए।

  • यदि कोई निर्दलीय सदस्य, बिना किसी राजनैतिक दल का उम्मीदवार होते हुए चुनाव जीत जाए और उस चुनाव के बाद किसी राजनैतिक दल की सदस्यता ग्रहण कर ले, तो ये विधायक अयोग्य हो जाता है।
  • या फिर, यदि कोई नाम-निर्देशित सदस्य सदन में अपने शपथ ग्रहण के 6 महीने बाद किसी राजनीतिक दल की सदस्यता धारण कर ले।

इस कानून के अपवाद

  • यदि कोई सदस्य सदन के स्पीकर के पद के लिए चुने जाने पर अपनी इच्छा से दल की सदस्यता त्याग दे तो उसे अयोग्य नहीं माना जाएगा।
  • यदि किसी दल के दो-तिहाई सदस्य एक साथ पार्टी की सदस्यता छोड़ देते हैं तो भी उन्हें दल-बदल क़ानून के तहत अयोग्य क़रार नहीं दिया जा सकता है।

स्पीकर की भूमिका: कर्नाटक का राजनीतिक पेंच

संविधान के अनुच्छेद 190(3) के मुताबिक़, दल-बदल क़ानून के तहत किसी विधायक की अयोग्यता के सम्बन्ध में निर्णय लेने का अधिकार केवल स्पीकर को होता है। अगर कोई विधायक अपना इस्तीफा सौंपता है तो स्पीकर इस्तीफ़े के सम्बन्ध में पूरी जांच करता है। जिसमें वो सभी परिस्थितियों को परखता है। इसके बाद जब उसे लगता है कि ये इस्तीफ़ा किसी तरह के दबाव में आकर नहीं बल्कि स्वेच्छा से दिया गया है। तब स्पीकर इस इस्तीफ़े को स्वीकार करता है। यही परिस्थिति हाल ही में चल रहे कर्नाटक के विवाद में है, जहाँ कांग्रेस के 16 विधायक द्वारा दिए इस्तीफ़े की जांच चल रही है।

निरर्हता सम्बन्धी प्रश्नों का निर्णय सदन का अध्यक्ष यानी स्पीकर करता है। शुरुवात में स्पीकर का फैसला ही अंतिम माना जाता था जिस पर किसी भी न्यायालय में प्रश्न नहीं उठाया जा सकता था। लेकिन किहोतो होलोहान मामले के बाद उच्चतम न्यायालय ने इस आधार को असंवैधानिक घोषित कर दिया था।

क्या हैं इस कानून के लाभ?

  • ये कानून राजनीतिक संस्था में स्थिरता प्रदान करते हुए सदस्यों को पार्टी बदलने से रोकता है।
  • ये कानून सदस्यों को दूसरे दलों में शामिल होने से तो रोकता है साथ ही, मौजूदा दल में टूट जैसे लोकतांत्रिक तरीके से विधायकों को दूसरी पार्टी में शामिल होने या खुद अपनी पार्टी बनाने का अवसर प्रदान करता है।
  • राजनीतिक स्तर पर ये कानून भ्रष्टाचार को कम करते हुए अनिमियत चुनावों में होने वाले ख़र्चों को भी रोकता है।
  • इस कानून द्वारा मौजूदा राजनीतिक दलों को एक संवैधानिक पहचान मिली है।

क्या हैं इस कानून के नुकसान?

  • ये कानून पार्टी के आंतरिक लोकतंत्र और विधायक की स्वेच्छा को ख़तम करता है, इस स्थिति में विधायक अपने विचार प्रदर्शित नहीं कर पाते हैं।
  • इस कानून के तहत असहमति और दल-परिवर्तन में कोई अंतर स्पष्ट नहीं किया गया है। विधायक की असहमति का अधिकार तथा सद्विवेक की स्वतंत्रता पर इस कानून ने एक तरह से प्रतिबंध लगा दिया है।
  • इस कानून की मदद से छोटे-छोटे दल-परिवर्तन पर रोक तो लगी है लेकिन बड़े पैमाने पर होने वाले दल-परिवर्तन को एक कानूनी रूप मिला है।
  • यदि कोई विधायक विधान मंडल के बाहर पार्टी के खिलाफ हो रही गतिविधियों में शामिल होता है तो विधायक के निरर्हता के लिए ये कोई आधार नहीं माना जाता है।
  • इस कानून में निर्दलीय और नाम-निर्देशित सदस्यों के बीच तार्किक अंतर नहीं माना गया है। जहाँ निर्दलीय सदस्यों को दल ग्रहण करने पर निरर्हता है वहीँ नाम-निर्देशित सदस्यों द्वारा दल ग्रहण करने पर कोई आपत्ति नहीं।
  • स्पीकर की भूमिक पूरी तरह स्पष्ट नहीं है मसलन उसकी तटस्थता किस तरह बनी रहे और इस्तीफ़े के सम्बन्ध में निर्णय लेने की कोई समय-सीमा नहीं है आदि।

मामला कहाँ अटका है?

कर्नाटक की कांग्रेस के विधायकों ने इस्तीफ़ा ये कह कर दिया था कि उन्हें वर्तमान सरकार पर भरोसा नहीं रहा। आर्टिकल 190(3) के अनुसार स्पीकर की भूमिका यहाँ इस इस्तीफ़े की पूर्ण रूप से जांच कर इसे मंज़ूरी देना है। लेकिन मौजूदा दल-बदल क़ानून के तहत स्पीकर को किसी भी समय सीमा में नहीं रखा गया है, फैसला सुनाने में वो जितना चाहे समय ले सकता है। इस मामले में भी यही हुआ। इस्तीफ़ा देने के बाद भी स्पीकर इस इस्तीफ़े पर कोई फैसला नहीं सुना रहा है, इस स्थिति में इस्तीफ़ा दे चुके विधायक ना तो दूसरी पार्टी ज्वाइन कर पा रहे हैं ना ही अपनी पार्टी को छोड़ पा रहे हैं। अध्यक्ष के फैसले में देरी के चलते विधायक, ये मामला सुप्रीम कोर्ट तक ले गए लेकिन वहां भी सुप्रीम कोर्ट कुछ फैसला नहीं सुना पायी और याचिका के जवाब में सुप्रीम कोर्ट ने बताया कि दल-बदल कानून के तहत फैसला लेने का अधिकार सिर्फ अध्यक्ष के हाथ है।

इस कानून में क्या सुधार होना चाहिए?

कथित तौर पर तो पीठासीन अधिकारी निष्पक्ष हो कर फैसले लेता है लेकिन अमूमन ऐसा होता नहीं है। सदन में चुना गया अध्यक्ष सत्ताधारी पार्टी से होता है, ऐसे में उसके फैसले की निष्पक्षता पर सवाल खड़े हो जाते हैं। इसलिए एक ऐसा व्यक्ति अध्यक्ष के रूप में चुना जाए जो किसी भी पार्टी से सम्बन्ध ना रखता हो। स्पीकर के हाथों फैसला ना छोड़ कर, विधायकों के इस्तीफ़े का मामला किसी स्वतंत्र एजेंसी मसलन चुनाव आयोग को दिया जाए।