(राष्ट्रीय मुद्दे) असम में एनआरसी (NRC in Assam)
एंकर (Anchor): कुर्बान अली (पूर्व एडिटर, राज्य सभा टीवी)
अतिथि (Guest): फुज़ैल अय्यूबी (क़ानूनी मामलों के जानकार), प्रशांत टंडन (वरिष्ठ पत्रकार)
चर्चा में क्यों?
बीते 31 अगस्त को असम में राष्ट्रीय नागरिक पंजी (NRC) की अद्यतन अंतिम सूची जारी कर दी गई। क़रीब 19 लाख लोगों का नाम इस नई सूची से बाहर हो गया है। इनमें बड़ी संख्या मुसलमान व बंगाली हिंदुओं की है। जिनका नाम NRC सूची से बाहर हुआ है वो अब भारतीय नागरिकता के लिए अयोग्य माने जाएँगे।
इसके अलावा, हाल ही में, केंद्रीय गृह मंत्री अमित शाह ने अपने एक बयान में कहा कि NRC को पूरे भारत में लागू किया जाएगा। इस तरह, सभी अवैध अप्रवासियों की पहचान करके उनको क़ानूनी तौर पर देश से बाहर भेजा जाएगा।
एनआरसी क्या है?
नेशनल रजिस्टर ऑफ़ सिटिज़न्स (NRC) एक ऐसा रजिस्टर है, जिसमें सभी वैध भारतीय नागरिकों का नाम शामिल किया जाता है। वर्तमान में, असम एनआरसी की व्यवस्था वाला इकलौता राज्य है। वर्ष 1951 में पहली बार राष्ट्रीय नागरिक रजिस्टर तैयार किया।
एनआरसी से जुड़े महत्वपूर्ण घटनाक्रम
- 1951: पहली बार एनआरसी तैयार किया गया
- 1971: भारत-पाकिस्तान युद्ध और बड़ी मात्रा में बांग्लादेशी शरणार्थियों का भारत में प्रवेश
- 1970-80: असम में जनांकिकीय परिवर्तन और परिणामस्वरूप अवैध शरणार्थियों और राज्य के निवासियों के बीच सामाजिक, जातीय और वर्ग-संघर्ष शुरू
- 1979-85: ऑल असम स्टूडेंट्स यूनियन (AASU) के नेतृत्व में असम विद्रोह शुरू और इसको ऑल असम गण संग्राम परिषद का भी समर्थन
- 1985: असम समझौते पर हस्ताक्षर और 1951 में प्रकाशित राष्ट्रीय नागरिक रजिस्टर का अद्यतन किया जाना
- 2012-13: सर्वोच्च न्यायालय का हस्तक्षेप, केंद्र सरकार को एनआरसी को अपडेट करने का दिया निर्देश
- 31 अगस्त 2019: एनआरसी की अंतिम सूची जारी, करीब 19 लाख लोग हुए बाहर, एनआरसी में गड़बड़ी का आरोप
असम के अलावा और कहाँ-कहाँ है एनआरसी व्यवस्था?
साल 1951 के एनआरसी के समय मणिपुर और त्रिपुरा को भी अपनी स्वयं की NRCs बनाने की अनुमति दी गई थी, लेकिन इन दोनों राज्यों में अभी तक ऐसी कोई प्रक्रिया शुरू नहीं की गई थी।
- अवैध शरणार्थियों से जुड़ी शिकायतें सिर्फ असम में ही नहीं बल्कि पड़ोसी राज्यों से भी आने लगी है। इसलिए ऐसा अनुमान लगाया जा रहा है कि असम के अलावा एनआरसी की व्यवस्था अन्य राज्यों में भी लागू की जा सकती है।
- नागालैंड एनआरसी के जैसा ही एक डेटाबेस बना रहा है जिसे ‘रजिस्टर ऑफ इंडिजिनस इनहेबिटेंट्स’ के रूप में जाना जाता है।
- केंद्र सरकार भी एक राष्ट्रीय जनसंख्या रजिस्टर (National Population Register) बनाने की योजना बना रही है, जिसमें नागरिकों के जनसांख्यिकीय और बायोमेट्रिक विवरण शामिल किए जायेंगे।
इसकी जरूरत क्यों पड़ी?
साल 1947 में जब भारत पाकिस्तान का बंटवारा हुआ तो बड़ी मात्रा में दोनों ओर से शरणार्थियों का स्थानांतरण हुआ। इस दौरान काफी संख्या में लोग आसाम से पूर्वी पाकिस्तान चले गए। लेकिन इन लोगों की ज़मीनें और संपत्तियां असम में थी, इस कारण इनमें से कई लोगों का स्वतंत्रता के पश्चात भी भारत आना-जाना लगा रहा। इसका परिणाम यह हुआ कि मूल भारतीय नागरिकों और अवैध शरणार्थियों के बीच विभेद करना मुश्किल होने लगा। जिसके कारण कारण कई प्रकार की समस्याएं उत्पन्न होने लगी। सरकार ने इस समस्या से निपटने के लिए वर्ष 1951 में राष्ट्रीय नागरिक रजिस्टर तैयार किया।
साल 1951 के एनआरसी में कौन लोग शामिल किये गए?
इस सूची में वे लोग शामिल किए गए थे, जो 26 जनवरी 1950 को भारत में रह रहे थे, या पैदा हुए थे या उनके माता-पिता भारत में पैदा हुए थे। इसके अलावा, इसमें उन लोगों का भी नाम शामिल था जो 26 जनवरी, 1950 से कम से कम पांच साल पहले से भारत में रह रहे थे।
असम समझौता
वर्ष 1971 में बांग्लादेश बनने के बाद भारी संख्या में बांग्लादेशी शरणार्थी भारत आये और इससे राज्य की आबादी का स्वरूप बदलने लगा। इसके ख़िलाफ़ 80 के दशक में अखिल असम छात्र संघ यानी आसू ने एक आंदोलन शुरू कर दिया। आसू के छह साल के संघर्ष के बाद वर्ष 1985 में असम समझौते पर हस्ताक्षर किए गए थे। इसमें तय किया गया कि 24 मार्च, 1971 से पहले असम आए लोग ही भारतीय नागरिकता के हकदार होंगे।
24 मार्च 1971 ही कट-ऑफ डेट क्यों?
वैसे तो बांग्लादेश से असम में शरणार्थियों का आना-जाना बराबर लगा ही रहा लेकिन इन शरणार्थियों को सबसे बड़ा जत्था मार्च 1971 में आया। दरअसल 24 मार्च 1971 को पाकिस्तानी सेना ने बांग्लादेश में भीषण नरसंहार शुरू कर दिया था, परिणाम स्वरूप बड़ी मात्रा में शरणार्थी अवैध तरीके से भारत में घुस आए थे। इसीलिए 1985 के असम समझौते में 24 मार्च 1971 की आधी रात को कट-ऑफ तारीख के रूप में निर्धारित करने का फैसला लिया गया।
एनआरसी का अद्यतन किया जाना (Updation of NRC)
17 नवंबर, 1999 को असम समझौते के कार्यान्वयन की समीक्षा की आधिकारिक त्रिपक्षीय बैठक में राष्ट्रीय नागरिक रजिस्टर को अद्यतन करने का निर्णय लिया गया।
- 5 मई, 2005 को तत्कालीन प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह द्वारा राष्ट्रीय नागरिक रजिस्टर को अद्यतन करने का अंतिम फैसला लिया गया। लेकिन ये मामला एक राजनितिक मोड़ ले लिया और मामला सुप्रीम कोर्ट पहुँच गया।
- बाद में, एनआरसी को अपडेट करने की प्रक्रिया साल 2013 में सुप्रीम कोर्ट के आदेश के बाद शुरू की गई थी।
- इसमें राज्य के लगभग तीन करोड़ तैंतीस लाख लोगों को ये सिद्ध करना था कि वे 24 मार्च 1971 से पहले भारतीय नागरिक थे।
- एनआरसी की अंतिम अद्यतन सूची 31 अगस्त को जारी की गई। इस अंतिम सूची के अनुसार लगभग 19 लाख आवेदक अपनी भारतीय नागरिकता सिद्ध नहीं कर पाए।
एनआरसी को अद्यतन करने का काम कौन कर रहा है?
एनआरसी को अद्यतन करने का काम राज्य सरकार की मशीनरी कर रही है, लेकिन इसका पर्यवेक्षण यानी देख-रेख भारत सरकार का रजिस्ट्रार जनरल कर रहा है। क्योंकि नागरिकता संघ सूची का विषय है इसलिए एनआरसी के अद्यतन से जुड़े नीति संबंधी निर्णय, दिशा निर्देश और फंडिंग का काम केंद्र सरकार कर रही है। अंततोगत्वा, पूरी प्रक्रिया की निगरानी माननीय सर्वोच्च न्यायालय कर रहा है।
नई एनआरसी में नागरिकता कैसे सिद्ध की गई?
असम की एनआरसी में, नागरिकता सिद्ध करने के लिए मूलभूत शर्त यह था कि आवेदक के परिवार के सदस्यों के नाम या तो 1951 में तैयार की गई पहली एनआरसी में हों या 24 मार्च 1971 तक की मतदाता सूची में हों।
इसके अलावा, आवेदकों के पास शरणार्थी पंजीकरण प्रमाण पत्र, जन्म प्रमाण पत्र, एलआईसी पॉलिसी, भूमि और किरायेदारी रिकॉर्ड, नागरिकता प्रमाण पत्र, पासपोर्ट, सरकार द्वारा जारी लाइसेंस या प्रमाण पत्र, बैंक/डाकघर खाते, स्थायी आवासीय प्रमाण पत्र सरकारी रोजगार प्रमाण पत्र, शैक्षिक प्रमाण पत्र और न्यायालय रिकॉर्ड जैसे दस्तावेज़ प्रस्तुत करने का भी विकल्प था।
एनआरसी से बाहर होने पर क्या है विकल्प?
जिन लोगों का नाम एनआरसी की अंतिम सूची से बाहर हुआ है, वे 4 माह के भीतर विदेशी न्यायाधिकरण में अपील कर सकते हैं।
- न्यायाधिकरण के लिए यह आवश्यक है कि वह 6 महीनों के भीतर इस मामले का निस्तारण करे।
- यदि कोई व्यक्ति यहाँ से अपना केस हार जाता है तो वह उच्च न्यायालय या फिर सर्वोच्च न्यायालय में अपील कर सकता है।
एनआरसी को लेकर सरकार ने क्या आश्वासन दिया?
जिन लोगों के नाम एनआरसी सूची से बाहर हुए हैं उनको लेकर सरकार की तरफ से आश्वासन आया है।
- विदेश मंत्रालय के प्रवक्ता ने कहा कि एनआरसी की अंतिम सूची में जिनका नाम नहीं है, वे सभी वैधानिक विकल्पों का इस्तेमाल कर लेने तक देश के नागरिक के तौर पर सभी सुविधाएं ले सकेंगे। उनको गिरफ्तार नहीं किया जाएगा।
विदेशी न्यायाधिकरण
भारत सरकार द्वारा विदेशी न्यायाधिकरण अधिनियम, 1946 की धारा 3 के तहत विदेशी न्यायाधिकरण आदेश, 1964 पारित किया गया था। इस आदेश के अनुसार, किसी भी व्यक्ति की नागरिकता से जुड़े मामलों की सुनवाई के लिए भारत सरकार विदेशी न्यायाधिकरण का गठन कर सकती है।
हाल ही में, सुप्रीम कोर्ट ने एक याचिका की सुनवाई के दौरान विदेशी न्यायाधिकरण को अर्द्धन्यायिक निकाय के तौर पर बताया। साथ ही यह स्पष्ट किया कि विदेशी न्यायाधिकरण द्वारा दिए गए आदेश राज्य सरकार या केंद्र सरकार के आदेशों के ऊपर माने जाएंगे। यह न्यायाधिकरण सिविल प्रक्रिया संहिता 1908 के अनुसार कार्य करती है।
अपील के अधिकार के बावजूद क्या दिक्कतें हैं?
न्यायालय में अपील ही नहीं होगा: बहुत से ऐसे गरीब और अशिक्षित लोग हैं, जिनका नाम एनआरसी सूची से बाहर होने के बावजूद वे कहीं अपील नहीं कर पा रहे हैं। वे अपील के खर्च को वहन करने या फिर क़ानूनी जंजाल समझने में सक्षम नहीं है। इसके अलावा कुछ लोग ऐसे हैं जो न्यायालय में अपील करना ही नहीं चाहते। उनका तर्क है कि वे वर्षों से यहाँ रहते आए हैं और उन्हें किसी प्रमाण की जरूरत नहीं है। वे अपने आपको ‘भूमिपुत्र’ बता रहे हैं।
विदेशी न्यायाधिकरणों की संख्या में कमी: देश में विदेशी न्यायाधिकरणों की पर्याप्त संख्या न होने के कारण नागरिकता से जुड़े मामलों का तय समय सीमा में निस्तारण करना बहुत मुश्किल है। हालांकि सरकार ने 200 अतिरिक्त विदेशी न्यायाधिकरण को स्थापित करने की घोषणा की है। लेकिन कई विशेषज्ञों का मानना है कि नए न्यायाधिकरण की स्थापना के बावजूद संख्या अपर्याप्त साबित होगा।
कैदियों की बड़ी संख्या: इतनी बड़ी संख्या में अवैध शरणार्थियों को रखना या उनकी गिरफ्तारी करने के लिए भागीरथ प्रयास की ज़रुरत होगी। अर्थात यह काम एक टेढ़ी खीर साबित हो सकती है।
इन शरणार्थियों को वापस भेजना एक जटिल काम: इतनी बड़ी संख्या में अवैध बांग्लादेशी शरणार्थियों को उनके यहां वापस भेजना एक मुश्किल काम होगा क्योंकि बांग्लादेश इस बात के लिए आसानी से तैयार नहीं होगा। इन अवैध शरणार्थियों को वापस बांग्लादेश या नेपाल भेजने के लिए भारत को संबंधित देशों के साथ प्रत्यर्पण संधि की जरूरत होगी, जो कि नहीं है।
प्रक्रिया में हो सकता है और विलम्ब: असम सरकार ने एनआरसी लिस्ट की पुनः जांच करवाने के लिए सुप्रीम कोर्ट का दरवाजा खटखटाया है। ऐसी स्थिति में, एनआरसी को अद्यतन करने की प्रक्रिया और दीर्घकालिक हो सकती है।
एनआरसी प्रक्रिया में क्या दिक्कतें हैं?
‘बर्डन ऑफ प्रूफ’ आरोपी के ऊपर: नागरिकता साबित करने की ज़िम्मेदारी वहां के निवासियों के ऊपर है। क़ानूनी भाषा में समझें तो ‘बर्डन ऑफ प्रूफ’ आरोपी के ऊपर रखा गया है। ऐसे में अगर कोई अवैध शरणार्थी किसी तरह से फ़र्ज़ी दस्तावेज़ हासिल कर लिया तो उसे भारतीय नागरिकता मिल जाएगी। वहीं दूसरी ओर, अगर कोई व्यक्ति किन्ही कारणों के चलते दस्तावेज़ प्रस्तुत नहीं कर पाता है तो भारतीय नागरिक होते हुए भी उसकी नागरिकता समाप्त हो सकती है। क्योंकि कई बार सरकार की तरफ से होने वाली कमियों के कारण भी व्यक्ति से दस्तावेज तैयार नहीं हो पाते।
तकनीकी कारण: कई तरह से तकनीकी कारणों जैसे स्पेलिंग में ग़लतियाँ या फिर जन्म तिथि में ग़लतियों के कारण भी बहुत लोगों का नाम एनआरसी सूची से बाहर हो गया है।
राजनीतिक लाभ: एनआरसी प्रक्रिया में राजनीतिक लाभ के कारण भी फ़र्ज़ी दस्तावेज़ बनाने और एनआरसी सूची में नाम दर्ज करवाने के तमाम आरोप लग रहे हैं, ऐसे में एनआरसी की शुचिता पर सवाल उठना स्वाभाविक है।
नागरिकता संशोधन विधेयक 2016 भी है विवाद का मुद्दा
नागरिकता संशोधन विधेयक 2016 को लेकर संयुक्त संसदीय समिति की
रिपोर्ट आने के बाद सरकार ने इस लोकसभा में इस विधेयक को पेश किया था। केंद्र सरकार
ने इस विधेयक के जरिए अफगानिस्तान, बांग्लादेश और पाकिस्तान के हिंदुओं, सिखों,
बौद्धों, जैन, पारसियों और ईसाइयों को बिना वैध दस्तावेज के भारतीय नागरिकता देने
का प्रस्ताव रखा है। इसके लिए उनके निवास काल को 11 वर्ष से घटाकर छह वर्ष कर दिया
गया है। यानी अब ये शरणार्थी 6 साल बाद ही भारतीय नागरिकता के लिए आवेदन कर सकते
हैं। इस बिल के तहत सरकार अवैध प्रवासियों की परिभाषा बदलने के प्रयास में है।
नागरिकता अधिनियम-1955 कहता है कि किसी भी ‘अवैध प्रवासी’ को भारतीय नागरिकता नहीं
दी जा सकती। इस कानून के तहत 'अवैध प्रवासी' उनको माना गया है जिनके पास वैध
दस्तावेज़ नहीं है या वे वीजा अवधि से ज्यादा समय तक रुके हुए हों। नागरिकता एक्ट
-1955 उन विभिन्न तरीकों को स्पष्ट करता है जिसके आधार पर भारतीय नागरिकता हासिल की
जा सकती है। इसमें जन्म वंश, पंजीकरण, देशीयकरण (नैचुरलाइज़ेशन) और भारत के किसी
प्रक्षेत्र के समावेश द्वारा नागरिकता मिलने की बात कही गई है।
उत्तर-पूर्व के लगभग सभी राज्यों, विशेषकर असम में विभिन्न संगठन विदेशी हिंदुओं को
भारतीय नागरिकता दिये जाने का विरोध कर रहे हैं क्योंकि उन्हें लगता है कि यह असम
के स्थानीय लोगों के लिये खतरा होगा। ऐसे में एनआरसी का मुद्दा और भी जटिल हो सकता
है।
यह पहली बार है जब देश में स्पष्ट तौर से धार्मिक आधार पर नागरिकता दिये जाने की
बात कही जा रही है। इस संशोधन को भारतीय संविधान के अनुच्छेद 14 के खिलाफ माना जा
रहा है, जो समानता के अधिकार की बात करता है। साथ ही इस संशोधन को अंतरराष्ट्रीय
शरणार्थी नियमों के भी विरुद्ध माना जा रहा है। ‘भारत के विदेशी नागरिकों’ (ओसीआई)
के पंजीकरण को रद्द करने संबंधी जो बदलाव इस विधेयक में किये जाने हैं, उन पर भी
विवाद है। इस संशोधन विधेयक के विरोधियों का मानना है कि इससे अवैध प्रवास की समस्या
को बढ़ावा मिलेगा।
इस विधेयक को लेकर ब्रह्मपुत्र घाटी में रहने वाले और बराक घाटी में रहने वाले लोगों
के बीच मतभेद हैं। बंगाली प्रभुत्व वाली बराक घाटी में ज़्यादातर लोग इस विधेयक के
पक्ष में हैं, जबकि ब्रह्मपुत्र घाटी में लोग इसके विरोध में हैं। इन संशोधनों के
लिए तर्क दिया जा रहा है कि यह मानवीयता के आधार पर किये जा रहे हैं।
कुल मिलाकर अगर ये बिल कानून बन गया तो एनआरसी मामला और उलझ सकता है।
आगे क्या किया जाना चाहिए?
NRC सूची से जिनका नाम बाहर हो गया है उनकी दावों को मानवीय दृष्टिकोण से भी देखने की जरूरत है। क्योंकि इस मामले का अवलोकन विश्व समुदाय भी कर रहा है। दक्षिण एशिया में शरणार्थी संकट एक बड़ा मसला है। भारत की न्यायपालिका और कार्यपालिका और दोनों को यह दिखाना होगा कि भारत का यह शरणार्थी संकट भी उन्हीं में से एक है।
- इतनी बड़ी संख्या में जो लोग एनआरसी सूची से बाहर हुए हैं उनके कानूनी सहायता के एक मजबूत तंत्र की आवश्यकता है, क्योंकि उन्हें अपने सीमित साधनों के साथ अपनी भारतीय नागरिकता साबित करना है।
- इस प्रक्रिया में शामिल अधिकारियों को अपने कार्यों में विवेकपूर्ण होने की आवश्यकता है ताकि यह सुनिश्चित किया जा सके कि बड़े पैमाने पर मानवीय संकटों का प्रकोप न हो।
- इसके अलावा मामले के राजनीतिकरण को भी रोकने की जरूरत है।