Home > Global-mudde

Blog / 09 Aug 2019

(Global मुद्दे) रूस - अमेरिका आईएनएफ संधि खत्म (Russia - America : End of Intermediate-Range Nuclear Forces Treaty - INF Treaty)

image



(Global मुद्दे) रूस - अमेरिका आईएनएफ संधि खत्म (Russia - America : End of Intermediate-Range Nuclear Forces Treaty - INF Treaty)


एंकर (Anchor): कुर्बान अली (पूर्व एडिटर, राज्य सभा टीवी)

अतिथि (Guest): अशोक सज्जनहार (पूर्व राजदूत), प्रो. श्रीराम चोलिया (सामरिक मामलों के जानकार)

चर्चा में क्यूं?

शीतयुद्ध के दौरान अमेरिका और रूस के बीच हुई INF संधि अब आधिकारिक रूप से समाप्त हो गई है। बीते शुक्रवार को अमेरिकी विदेश मंत्री माइक पोम्पियो ने अमेरिका के INF संधि से बाहर निकलने का ऐलान किया है। अमेरिका ने ये फैसला बैंकॉक में क्षेत्रीय मंच से रूस द्वारा INF संधि को ‘मृत’क़रार दिए जाने के बाद लिया है।

INF संधि से जुड़े घटनाक्रम

  • अमेरिका और रूस के बीच 2014 से ही INF संधि को लेकर गतिरोध जारी है। अमेरिकी राष्ट्रपति डोनाल्ड ट्रंप ने 20 अक्टूबर 2018 को INF संधि से बाहर होने की घोषणा की थी। अमेरिका ने ये ऐलान रूस के INF संधि का उल्लंघन करने का आरोप लगाते हुए किया था।
  • 29 जनवरी को अमेरिकी विदेश मंत्री माइक पोम्पियो ने नाटो की एक बैठक में घोषणा की थी कि यदि रूस 60 दिनों के भीतर अपने परमाणु हथियारों को नष्ट नहीं करेगा तो अमेरिका इंटरमीडिएट-रेंज न्यूक्लियर फोर्सेज ट्रीटी (INF) से अलग हो जाएगा।
  • 1 फ़रवरी को अमेरिका ने इस करार ने बाहर निकलने की आधिकारिक घोषणा की। संधि की शर्तों के मुताबिक़ इसके लिए छह महीनों का एडवांस नोटिस देना होता है।
  • 1 फ़रवरी को अमेरिका के INF संधि से बाहर निकलने के बाद 2 फ़रवरी को रूस के राष्ट्रपति व्लादिमीर पुतिन ने भी इस प्रमुख संधि में रूस की भागीदारी को स्थगित करने की घोषणा कर दी थी। पुतिन ने कहा था कि अगर अमेरिका प्रतिबंधित मिसाइलों को विकसित करता है तो रूस हाथ पर हाथ रख कर इंतजार नहीं करेगा।

इस मसले पर संयुक्त राष्ट्र की प्रतिक्रिया?

अमेरिका के INF संधि से हटने के फैसले को संयुक्त राष्ट्र संघ ने अत्यंत विनाशकारी बताया है। संयुक्त राष्ट्र के मुताबिक़ अमेरिका के INF संधि से हटने के बाद अब परमाणु हथियारों और बैलिस्टिक मिसाइलों की वैश्विक प्रतिस्पर्धा बढ़ जाएगी जिसके परिणामस्वरूप परमाणु निशस्त्रीकरण (Nuclear Disarmament) के लक्ष्यों को भी हांसिल करना आसान नहीं होगा।

क्या है INF संधि?

साल 1987 में, अमेरिका के तत्कालीन राष्ट्रपति रोनाल्ड रीगन और USSR के तत्कालीन राष्ट्रपति मिखाइल गोर्बाचेव ने मध्यम दूरी और छोटी दूरी की मारक क्षमता वाली मिसाइलों का निर्माण न करने के लिये इंटरमीडिएट-रेंज परमाणु बल करार यानी INF संधि पर दस्तख़त किये थे। 27 मई 1988 को संयुक्त राज्य अमेरिका की सीनेट ने इस करार को अपनी परमिशन दे दी और 1 जून 1988 को इसे लागू किया गया। इस करार के तहत दोनों देशों को अपनी कुछ मिसाइलों को नष्ट करके उनकी संख्या निश्चित करनी थी। इसके अलावा इस करार के तहत दोनों देश एक-दूसरे की मिसाइलों के परीक्षण और तैनाती पर नज़र रखने की अनुमति भी देते हैं। इसमें सभी जमीन आधारित मिसाइलें शामिल हैं। संधि में समुद्र-लॉन्च मिसाइलों को शामिल नहीं किया गया था।

INF संधि की अहमियत क्या थी?

द्वितीय विश्वयुद्ध के बाद से संयुक्त राज्य अमेरिका और सोवियत रूस के बीच उत्पन्न हथियारों की दौड़ और शीत युद्ध के खतरे को कम करने में ये करार एक महत्वपूर्ण उम्मीद के तौर पर थी। इससे अमेरिका-सोवियत संघ के बेहतर संबंधों को बढ़ावा मिला था। INF संधि यूरोप पर मंडरा रहे परमाणु युद्ध के ख़ौफ़ को दूर करने में मददग़ार साबित हुआ। बताया जाता है कि इस संधि के बाद 1991 तक करीब 2700 मिसाइलों को नष्ट किया गया था जो कि वैश्विक शांति और ध्रुवीकरण के लिहाज़ से एक महत्वपूर्ण कदम था।

INF संधि की पृष्ठभूमि

द्वितीय विश्वयुद्ध के बाद से संयुक्त राज्य अमेरिका और सोवियत रूस के बीच पैदा हुए तनाव की स्थिति को शीत युद्ध के नाम से जाना जाता है। द्वितीय विश्वयुद्ध के दौरान संयुक्त राज्य अमेरिका, ब्रिटेन और रूस ने संयुक्त रूप से धूरी राष्ट्रों- जर्मनी, इटली और जापान के विरूद्ध संघर्ष किया था। लेकिन युद्ध समाप्त होते ही, एक ओर ब्रिटेन तथा संयुक्त राज्य अमेरिका तथा दूसरी ओर सोवियत संघ में तीव्र मतभेद उत्पन्न होने लगा। बहुत जल्द ही इन मतभेदों ने तनाव की भयंकर स्थिति उत्पन्न कर दी।

रूस के नेतृत्व में साम्यवादी और अमेरिका के नेतृत्व में पूँजीवादी देश दो खेमों में बँट गये। इन दोनों पक्षों में आपसी टकराहट आमने सामने कभी नहीं हुई, पर ये दोनों गुट इस प्रकार का वातावरण बनाते रहे कि युद्ध का ख़तरा सदा सामने दिखाई पड़ता रहता था। बर्लिन संकट, कोरिया युद्ध, सोवियत रूस द्वारा परमाणु परीक्षण, सैनिक संगठन, हिन्द चीन की समस्या, यू-2 विमान काण्ड, साल 1962 का क्यूबा मिसाइल संकट- इन सभी समस्याएँ को जटिल बनाने में शीतयुद्ध का अहम रोल रहा।

इसके अलावा शीत युद्ध ने हथियारों की एक नई होड़ को भी जन्म दिया। एक दूसरे के ऊपर हावी होने के लिए रूस और अमेरिका दोनों ने यूरोप में अपने-अपने हथियारों की तैनाती शुरू कर दी। तब यूरोप को यह आभास हुआ कि यूरोपीय ज़मीन पर किसी भी प्रकार का परमाणु संघर्ष यूरोपीय तबाही का कारण बन जाएगा। नतीज़तन 1980 के दशक में यूरोप के प्रयास से अमेरिका और सोवियत संघ ने पैरलल बातचीत के तीन सेट शुरू किए और INF इसी बात-चीत का हिस्सा था।

अमेरिका के INF संधि से हटने की वजह

अमेरिकी का मानना है कि रूस मध्यम दूरी की बैलिस्टिक मिसाइलें बना रहा है। अमेरिका का आरोप है कि रूस ने मध्यम दूरी का एक नया मिसाइल बनाया है जिसका नाम नोवातोर 9M729 है। अमेरिका का कहना है कि ये निर्माण करके रूस ने आइएनएफ करार का उल्लंघन किया है। नोवातोर 9M729 मिसाइल को नाटो देश MSC-8 के नाम से जानते हैं। अमेरिका को डर है कि रूस इस मिसाइल के ज़रिये नाटो देशों पर तत्काल परमाणु हमला कर सकता है।

अमेरिका के INF संधि से हटने में चीन की भूमिका

चीन INF संधि में शामिल नहीं है। INF करार ने ज़रूर पश्चिमी देशों पर सोवियत संघ के परमाणु हमले के ख़तरे को तो ख़त्म कर दिया था लेकिन यह संधि चीन जैसी अन्य बड़ी सैन्य शक्तियों पर कोई प्रतिबंध नहीं लगाती है। पिछले साल अमेरिकी रक्षा विभाग ने अपनी एक रिपोर्ट में कहा था कि चीन मध्यम दूरी की मिसाइलें बना रहा है। अमेरिका के मुताबिक़ चीन ने मध्यम दूरी की जो बैलिस्टिक और क्रूज मिसाइले बनाई हैं, अगर उसे भी रूस के साथ हुई INF संधि में शामिल किया जाए तो उसकी लगभग 95 फीसदी मिसाइलें इस संधि का उल्लंघन करेंगी।

ऐसे में एशिया-प्रशान्त क्षेत्र में चीन के बढ़ते दबदबे को देखते हुए अमेरिका को ये लग रहा है कि उसे भी अपनी मिसाइल क्षमता में इज़ाफ़ा करना चाहिए। लेकिन INF संधि के कारण अमेरिका ऐसा कर नहीं पा रहा था। अमेरिका चाहता था कि या तो वो ख़ुद INF संधि से बाहर हो जाए या फिर अमेरिका के राष्ट्रीय हितों के ख़तरा बन रहे चीन को भी INF संधि में शामिल किया जाए।

अमेरिका ने दिया था रूस को INF संधि बरक़रार रखने का मौका

INF संधि से आधिकारिक रूप से बाहर होने के पहले अमेरिका ने कहा था कि यदि रूस INF संधि का उल्लंघन करने वाली मिसाइलों, मिसाइल लॉन्चर और संबंधित उपकरणों को नष्ट कर दे तो करार को रद्द करने का फैसला छह महीने की नोटिस अवधि के दौरान भी वापस लिया जा सकता है।

संधि टूटने से किसे होगा सबसे ज़्यादा फायदा

जानकारों के मुताबिक़ संधि टूटने का सबसे ज्यादा फायदा रूस को होगा। जानकारों का कहना है कि INF संधि के समाप्त होने के बाद रूस अपनी मध्यम दूरी की बैलिस्टिक और क्रूज मिसाइलों को बनाने और तैनात करने में आसानी होगी। इसके अलावा नाटो देश अमेरिका के इस फैसले के साथ ज़रूर है लेकिन जब अमेरिका यूरोप में अपनी मिसाइलें तैनात करेगा तो ज़ाहिर है इसे लेकर कुछ नाटो सदस्य देश अमेरिका के इस फैसले से सहमत नहीं होंगे जिसका असर नाटो की एकता पर पड़ना तय है। ग़ौरतलब है कि रूस शुरू से ही नाटो देशों के बीच दरार पैदा करना चाहता है।

नाटो देश साथ ज़रूर लेकिन डर भी है मौजूद

अमेरिका के INF संधि से अलग होने की घोषणा के बाद नाटो देशों ने अमेरिका के इस फैसले पर सहमति ज़रूर जताई है। लेकिन ख़बरों के मुताबिक़ नाटो में इस फैसले को लेकर काफी नाराजगी भी देखने को मिल रही है। कहा जा रहा है कि जब अमेरिका ने अपने इस फैसले से नाटो देशों को अवगत कराया तब नाटो सदस्य देशों ने INF संधि को बरक़रार रखने के लिए अमेरिका को कई रास्ते सुझाए थे और ये भी कहा था कि इसके टूटने से यूरोप के सामने बड़ा ख़तरा है। CNN के मुताबिक नाटो देशों की इस प्रतिक्रिया के बाद अमेरिका ने नाटो को इस बारे में बहुत कम जानकारी दी। विशेषज्ञों के मुताबिक़ अमेरिका के इस एकतरफा फैसले का भविष्य में विरोध भी हो सकता है।

भारत पर क्या होंगे असर

अगर अमेरिका रूस और चीन दोनों को एक साथ इस शर्त में लाना चाहता है तो ऐसे में वैश्विक समीकरणों को देखते हुए रूस और चीन की नज़दीकी शायद भारत के लिए चिंता का एक सबब हो। हालांकि अगर चीन इस शर्त में शामिल होता है तो उसके हथियार प्रसार कार्यक्रमों पर कुछ रोक लग सकती है और ये भारत के लिहाज़ से एक अच्छी बात होगी।

चूँकि अमेरिका और रूस के बीच कड़वे संबंधों के माहौल में, उन्नत सैन्य प्रणालियों पर रूस के साथ भारत की बढ़ती साझेदारी पर भी दबाव बढ़ेगा। ऐसे हालत में, भारत को घरेलू प्रयासों को बढ़ाने के लिये तत्काल अपनी ज़रूरतों पर ध्यान देना होगा।

एंटी बैलिस्टिक मिसाइल संधि (ABM Treaty) से भी बाहर हो चुका है अमेरिका

साल 2002 में अमरीका एंटी बैलिस्टिक मिसाइल संधि (ABM) से बाहर हो गया था। अमेरिका ने ये फैसला लंबी दूरी की चीनी, ईरानी या उत्तर कोरियाई मिसाइलों से उत्पन्न ख़तरे के कारण किया गया था। परमाणु ख़तरे के अलावा नए संकट भी हैं मौजूद परमाणु हथियारों पर हुई पुरानी संधियों के टूटने और परमाणु शक्ति संपन्न देशों के बीच तनाव बढ़ने के अलावा भी कई और मुश्किलें देशों के बीच मौजूद हैं जिनमें

  • सुपरसोनिक गति से चलने वाली अत्यधिक सटीक निशाने वाली मिसाइलों का बनना
  • साइबर हथियारों का निर्माण,
  • अंतरिक्ष पर होने वाला संभावित सैन्यीकरण
  • और आर्टिफिशियल इंटेलिजेंस के अलावा एयर स्पेस जैसे विवाद प्रमुख हैं।