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Blog / 03 Oct 2019

(Global मुद्दे) अमेरिका-तालिबान वार्ता ख़त्म (Failure of USA-Taliban Talks)

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(Global मुद्दे) अमेरिका-तालिबान वार्ता ख़त्म (Failure of USA-Taliban Talks)


एंकर (Anchor): कुर्बान अली (पूर्व एडिटर, राज्य सभा टीवी)

अतिथि (Guest): विवेक काटजू (पूर्व राजदूत), प्रो. अब्दुल नाफ़े (अंतराष्ट्रीय मामलों के जानकार)

चर्चा में क्यों?

अमेरिकी राष्ट्रपति डोनाल्ड ट्रंप ने तालिबान के साथ होने वाली बैठक को रद्द कर दिया है। अमेरिकी राष्ट्रपति ने यह फैसला काबुल में हुए हमले के बाद लिया है। इस हमले में 1 अमेरिकी सैनिक समेत 12 लोगों की मौत हो गई है। अमेरिका के इस फैसले पर तालिबान की ओर से कड़ी प्रतिक्रिया आई है। तालिबान का कहना है कि ट्रंप ने इस फैसले से अपनी विश्वसनीयता को नुकसान पहुंचाया है। हालाँकि तालिबान के मुख्य वार्ताकार शेर मोहम्मद अब्बास ने कहा है कि बातचीत अफ़ग़ानिस्तान में शांति का एकमात्र ज़रिया है। इसके अलावा तालिबान के मुख्य वार्ताकार का कहना है हमारी ओर से समझौते के लिए दरवाज़ें खुले हुए हैं। हम उम्मीद करते हैं कि अमेरिका भी इस मामले में दोबारा से विचार करेगा।

अमेरिका वार्ता से पीछे क्यों हटा?

  • ट्रम्प प्रशासन में इस समझौते को लेकर सहमति नहीं थी। CIA और पेंटागन जैसी एजेंसियों के बीच इस मसले को लेकर मतभेद थे।
  • 15 महीने की वार्ता में अमरीका वो चीज़ हांसिल नहीं कर सका, जिसकी उसे उम्मीद थी।
  • इस वार्ता में शामिल रहे समझौते राजनीतिक दृष्टि से ट्रंप प्रशासन को मुश्किल में डाल सकते थे।
  • जानकारों का कहना है अफ़ग़ानिस्तान में अमरीकी सैनिकों का मौजूद रहना और वहां उसका सैन्य ठिकाना होना रणनीतिक रूप से महत्वपूर्ण है

क्या-क्या थी सहमझौते की शर्ते?

  • पहली शर्त - अमरीका और नैटो की सेनाएं पूरी तरह हट जाएंगी
  • दूसरी शर्त - तालिबान गारंटी देगी कि वह अपने यहां इस्लामिक स्टेट को शरण नहीं देगा
  • तीसरी शर्त - अमरीका के हटते ही तालिबान अफ़ग़ान सरकार से वार्ता शुरू करेगा
  • चौथी शर्त - अमरीका चाहता था कि अफ़ग़ानिस्तान में उसकी छोटी सी काउंटर टेररिज़्म यूनिट हो जिसका इस्तेमाल वो उन समूहों को रोकना के लिए कर सके जो अमेरिका की सुरक्षा के लिए ख़तरा पैदा कर सकते है

क्या अफ़ग़ानिस्तान से लौटेंगे अमेरिकी सैनिक?

राष्ट्रपति ट्रम्प के इस फैसले के बाद माइक पोम्पियों ने कहा है कि फिलहाल अमेरिकी सैनिकों की वापसी अफ़ग़ानिस्तान से अब रुक गई है। इससे पहले अफ़ग़ानिस्तान में होने वाले राष्ट्रपति चुनाव से पहले अमेरिका अपने क़रीब 5400 अमरीकी सैनिकों को अफ़ग़ानिस्तान से वापस बुलाने पर सहमत हुआ था। ग़ौरतलब है कि अफ़ग़ानिस्तान में अभी भी कुल 14 हज़ार अमेरिकी सैनिक हैं। बीते दिनों अमेरिका ने सीरिया और अफ़ग़ानिस्तान से अपने सैनिकों को वापस बुलाने का फैसला किया था। ट्रंप का कहना था है कि अमेरिका दूसरे देशों के हित में युद्ध लड़ता है, जिसमें क़रीब 7 अरब डॉलर का खर्च आता है। इसके अलावा अमेरिकी सैनिकों को खोना भी अमेरिका के लिए भारी नुकसान का कारण बताया जा रहा है, जिसकी वजह से अमेरिका अपने सैनिकों को वापस बुलाना चाहता है।

अफ़ग़ानिस्तान के मौजूदा हालात

बीते 18 सालो की हिंसा और भ्रष्टाचार ने अफ़ग़ानिस्तान को बर्बाद करके रख दिया है। अफ़ग़ानिस्तान में तालिबान लगभग रोज़ाना हमले कर रहा है। बीबीसी की एक रिपोर्ट के मुताबिक़ अगस्त के महीने में यहां रोज़ औसतन 74 लोगों की मौत हुई है। चौंकाने की बात ये है कि ये आकंड़े उस वक़्त के हैं जब अमेरिका और तालिबान के बीच शांति वार्ता चल रही थी। जानकारों का कहना है कि 40 साल से ज़्यादा समय से जंग झेल रहे अफ़ग़ानिस्तान में शांति बहाली की ज़रूरत है। हालाँकि बातचीत के अब कोई असर नहीं दिखाई दे रहे हैं। इसका मतलब है कि अमरीका, अफ़ग़ान सरकार और तालिबान सभी मिलकर हमले करेंगे और जंग में इज़ाफ़ा होगा।

तालिबान का इतिहास

90 के दशक में तालिबान का उदय उस वक़्त हुआ था जब अफगानिस्तान से सोवियत संघ की सेना वापस जा रही थी। उस वक़्त लोगों को देश में शांति कायम होने की उम्मीद थी। यही वजह थी कि उन्होंने शुरुआती दौर में तालिबान का स्वागत भी किया। इसकी एक वजह ये भी थी कि सोवियत संघ की सेना की वापसी के बाद से वहां पर कई छोटे-छोटे गुट बन गए थे। इसकी वजह से वहां पर गृहयुद्ध छिड़ने की आशंका बढ़ गई थी। धार्मिक आयोजनों और मदरसों के ज़रिए अफ़ग़ानिस्तान में अपनी जड़ें मज़बूत करने वाले तालिबान को सऊदी अरब से फंडिंग भी की जाती थी। तालिबान इस्लामिक कट्टपंथी राजनीतिक आंदोलन हैं। अपने शुरुआती दौर में तालिबान ने भ्रष्ट्राचर, अव्यवस्था पर अंकुश लगाया और अपने नियंत्रण में आने वाले इलाकों को सुरक्षित बनाया।

1995 में तालिबान ने ईरान सीमा से लगे हेरात प्रांत पर कब्जा कर लिया। 1996 में तालिबान ने बुरहानुद्दीन रब्बानी सरकार को सत्ता से हटाकर अफगागनिस्तान की राजधानी काबुल पर कब्जा कर लिया। 1997 के अंत तक तालिबान ने अफगानिस्तान के करीब 90 फीसद हिस्से पर कब्जा कर लिया था। तालिबान के पूरे शासनकाल में उसको केवल केवल तीन देशों ने मान्यता दी थी। इसमें पाकिस्तान, संयुक्त अरब अमीरात और सऊदी अरब शामिल था।

अफ़ग़ानिस्तान के कितने भू-भाग पर है तालिबान का नियंत्रण ?

अफ़ग़ानिस्तान की आधी आबादी उन इलाक़ों में रह रही है, जिन पर तालिबान का नियंत्रण है। दूसरे शब्दों में समझें तो क़रीब डेढ़ करोड़ लोग ऐसे इलाकों में रह रहे हैं, जहां तालिबान का प्रभुत्व है और आए दिन हमले होते रहते हैं। मौजूदा वक़्त में क़रीब 60 हज़ार लड़के हैं तालिबान के पास। इसके अलावा अफ़ग़ानिस्तान में तालिबान के क्षेत्रीय नियंत्रण में बढ़ोत्तरी हुई है।

ईरान - सऊदी अरब में अमेरिका के लिए क्यों महत्वपूर्ण है अफ़ग़ानिस्तान ?

ये बात जग ज़ाहिर है कि सऊदी अरब और ईरान के बीच लम्बे वक़्त से तनाव है। बीते दिनों सऊदी तेल कंपनी अरामको पर हुए ड्रोन हमले के बाद दोनों देशों के बीच युद्ध जैसी नौबत है। इसके अलावा मौजूदा वक़्त में अमेरिका और ईरान के बीच भी तनावपूर्ण माहौल है। अगर ईरान और सऊदी अरब के बीच युद्ध हुआ तो अमेरिका सऊदी अरब के साथ खड़ा रहेगा। ऐसे में अमेरिका का अफ़ग़ानिस्तान में सैन्य ठिकाना होना बेहद ही ज़रूरी है क्यूंकि ईरान और अफ़ग़ानिस्तान की सीमा आपस में जुडी हुई हैं। साथ ही अमेरिका अफ़ग़ानिस्तान में मौजूद अपने ठिकानों के ज़रिए हवा और समंदर के अलावा ज़मीन से भी युद्ध करने में सक्षम होगा।

रूस की भूमिका?

रूस तालिबान प्रतिनिधियों की मेज़बानी पहले भी कर चुका है। इसके अलावा रूस अफ़ग़ानिस्तान में शांति को लेकर कुछ कार्यक्रमों का आयोजन भी करवाता रहा है। हालांकि इस मसले पर फिलहाल रूस ने यही कहा है कि वार्ता फिर से शुरू होनी चाहिए। रूस ने मौजूदा वक़्त में तो न तो कोई विकल्प सुझाया है और न कोई क़दम उठाने की बात कही है। दरअसल तालिबान अक्सर ही अमेरिका पर दबाव बनाने के लिए रूस के पास जाता रहा है।

अफ़ग़ानिस्तान में किन - किन देशों के हैं हित ?

रूस और अमरीका के अलावा भारत और पाकिस्तान के भी अफ़ग़ानिस्तान में हित हैं। साथ ही ईरान, चीन, सऊदी अरब और तुर्की भी अफ़ग़ानिस्तान में में अपनी पकड़ मज़बूत बनाए रखना चाहते है। जानकारों का मानना है कि अमरीका, तालिबान और अफ़ग़ान सरकार अफ़ग़ानिस्तान में शांति के लिए आपसी विश्वास को मज़बूत करें। इसके अलावा चीन, रूस, पाकिस्तान, भारत, तुर्की सऊदी अरब और ईरान जैसे देशों को शांति वार्ता में सहयोग करना चाहिए।

भारत अफ़ग़ानिस्तान सम्बन्ध

अफ़ग़ानिस्तान दक्षिण एशिया में भारत का महत्वपूर्ण साझेदार है। दोनों देशों के बीच द्विपक्षीय संबंध काफी मज़बूत हैं। 1980 के दशक में भारत-अफगान संबंधों को एक नई पहचान मिली थी, लेकिन 1990 के अफ़ग़ान -गृहयुद्ध और वहाँ तालिबान के आ जाने से दोनों देशों के संबंध ख़राब होते चले गए। भारत अफ़ग़ान संबंधों को मज़बूती साल 2001 में मिली जब तालिबान सत्ता से बाहर हो गया।

अफ़ग़ानिस्तान में भारत के सहयोग से निर्माण परियोजनाओं पर काम चल रहा है। भारत ने अब तक क़रीब तीन अरब डॉलर की सहायता अफ़ग़ानिस्तान को दी है। इसके अलावा भारत अफ़ग़ानिस्तान में कई मानवीय व विकासशील परियोजनाओं पर काम के साथ कला, संस्कृति, संगीत और फ़िल्मों के ज़रिए भी अफ़ग़ानिस्तान के साथ अपने समबन्धों को विस्तार दे रहा है। अफ़ग़ानिस्तान के मामले में भारत की सॉफ्ट पॉवर वाली कूटनीति का मक़सद वहां के लोगों के दिल- ओ-दिमाग़ जीतना है, जिससे भारत अफ़ग़ानिस्तान के साथ अपने ऐतिहासिक सांस्कृतिक और राजनीतिक संबंधों की बुनियाद पर अपना असर बढ़ा सके और अफ़ग़ानिस्तान मे नए राष्ट्र के निर्माण और राजनीतिक स्थिरता स्थापित करने में अहम रोल निभा सके। दोनों देश शिक्षा, स्वास्थ्य, कृषि, सिंचाई, पेयजल, नवीकरणीय ऊर्जा, खेल अवसंरचना और प्रशासनिक अवसंरचना के क्षेत्र में काम कर रहे हैं।

तालिबान के सत्ता में आने से भारत पर क्या असर होगा?

भारत अफगानिस्तान के पुनर्निर्माण में जुटा है और कई महत्वपूर्ण परियोजनाओं पर काम कर रहा है। इसके अलावा भारत ने अफगानिस्तान में काफी निवेश कर रखा है, जिनपर तालिबानियों के प्रभुत्व में आने पर प्रभावित होने की सम्भावना होगी । साथ ही अफगानिस्तान में तालिबान के सक्रिय होने के बाद भारत के पड़ोसी मुल्क पाकिस्तान से भी आतंकवादी गतिविधियों को बढ़ावा मिल सकता है। अमेरिका के इस फैसले के बाद भारत की इन क्षेत्रों से कनेक्टिविटी और व्यापार जैसे कई महत्वपूर्ण विकास कार्य प्रभावित हो सकते हैं जिसमें चाबहार बंदरगाह के ज़रिये भारत को रूस, सेंट्रल एशिया और यूरोप से जोड़ने वाले अफ़ग़ानिस्तान के एकमात्र ज़मीनी रास्ते पर भी संकट खड़ा हो जाएगा।

भारत से सम्बन्ध बनाना चाहता है तालिबान

तालिबान से हुई पिछले कई दौर की हुई बैठकों में भारत शामिल नहीं था। भारत फिलहाल तालिबान से राजनयिक सम्बन्ध बनाने से पीछे हट रहा है। हालाँकि तालिबान चाहता है कि वो भारत के साथ भी बातचीत करे। दरअसल तालिबान चाहता है कि हर देश उसके साथ बैठकर बातचीत करे। इस सिलसिले में तालिबान ने चीन, रूस, पाकिस्तान, उज़्बेकिस्तान और ईरान जैसे मुल्कों से बातचीत की है। इसके अलावा अफ़ग़ानिस्तान के पूर्व राष्ट्रपति हामिद करज़ई का भी कहना है कि भारत को इस मामले में आगे आना चाहिए। इससे न सिर्फ इस पूरे क्षेत्र में शांति आएगी बल्कि भारत के प्रति भी तालिबान की सकारात्मक सोंच बनेगी।

कश्मीर मुद्दे पर तालिबान की कूटनीतिक चाल

अनुच्छेद 370 को लेकर कश्मीर मुद्दे पर तालिबान ने भारत और पाकिस्तान को संयम बरतने की बात कही थी। हालाँकि जानकार मानते हैं कि तालिबान ख़ुद को ज़िम्मेदार दिखाने के नाते ऐसी बातें कर रहा है। इसके अलावा इस तरह के बयानों के ज़रिए तालिबान अफ़ग़ान नागरिकों को भी ये सन्देश देना चाहते हैं कि वो पाकिस्तान सरकार की कठपुतली नहीं हैं।

कुछ जानकारों का नज़रिया ये है कि अगर भारत तालिबान के साथ नहीं आता है तो भारत को इसकी कीमत चुकानी पड़ सकती है। जानकरों के मुताबिक आने वाले वक़्त में अफ़ग़ानिस्तान में तालिबान का आना तय हैं। ऐसे में भारत को बहुत फूंक - फूंक कर क़दम बढ़ाने होंगे। दूसरी ओर पाकिस्तान नहीं चाहेगा कि भारत और तालिबान के बीच कोई सम्बन्ध बनने पाए। इसके अलावा कुछ लोगों को उम्मीद है भारत अफ़ग़ानिस्तान की लोकतान्त्रिक सरकार के साथ मज़बूती के साथ खड़ा रहेगा।

आगे की राह

जानकारों का कहना है कि जब तक अफ़ग़ानिस्तान में मज़बूत सरकार नहीं आएगी, तब तक ये मसला हल नहीं होगा। इस मसले के लिए बातचीत पहली शर्त होनी चाहिए और ये रुकनी नहीं चाहिए। विशेषज्ञों का कहना ये भी है कि आने वाले वक़्त में एक बार फिर से अमरीका और तालिबान के बीच वार्ता शुरू हो सकती है। इसके अलावा अमेरिका और तालिबान के बीच आपसी विश्वास की कमी है। दोनों देशों को इस आपसी विश्वास की कम को ख़त्म कर शांति वार्ता के लिए हर ज़रूरी क़दम उठाने की ज़रूरत है।