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Blog / 17 Dec 2019

(Global मुद्दे) ब्रिटेन चुनाव, ब्रेक्सिट और भारत (Britain Elections, Brexit and India)

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(Global मुद्दे) ब्रिटेन चुनाव, ब्रेक्सिट और भारत (Britain Elections, Brexit and India)


एंकर (Anchor): कुर्बान अली (पूर्व एडिटर, राज्य सभा टीवी)

अतिथि (Guest): शिवशंकर मुखर्जी (पूर्व राजदूत, ब्रिटेन), सतीश जैकब (वरिष्ठ पत्रकार)

चर्चा में क्यों?

हाल ही में, ब्रेक्जिट को लेकर ब्रिटेन में आकस्मिक आम चुनाव कराए गए। जिसमें ब्रिटेन के प्रधानमंत्री बोरिस जॉनसन को स्पष्ट बहुमत हासिल हुआ। प्रधानमंत्री बोरिस जॉनसन को ब्रेक्जिट के समर्थक के तौर पर देखा जाता है। ग़ौरतलब है कि बीते 5 सालों में यह तीसरी बार है जब ब्रिटेन में आम चुनाव कराया गया। बोरिस के पहले थेरेसा मे ब्रिटेन की प्रधानमंत्री थीं और उनके कार्यकाल के दौरान भी ब्रेक्जिट समझौते को लेकर संसद में बात नहीं बन पाई थी जिसके कारण थेरेसा को इस्तीफ़ा देना पड़ा था। ब्रेक्सिट की समयसीमा अगले साल 31 जनवरी तक बढ़ा दी गई है। ब्रिटिश प्रधानमंत्री जॉनसन की जीत पर भारतीय प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने उन्हें जीत की बधाई दी है।

क्या है ब्रेक्जिट?

ब्रेक्जिट मुख्यत: दो शब्दों Britain और Exit से मिलकर बना है, जिसका मतलब है ब्रिटेन का यूरोपियन यूनियन से बाहर निकलना। साल 2016 में इसके लिये ब्रिटेन में जनमत संग्रह कराया गया था। इस जनमत संग्रह में जनता ने ब्रिटेन की पहचान, आज़ादी और संस्कृति को बनाए रखने के मक़सद से यूरोपियन यूनियन से बाहर निकलने का फैसला लिया।

क्या दिक्कतें आ रही हैं ब्रेक्जिट डील में?

जनमत संग्रह के इस फैसले को लागू करने के लिए बक़ायदा यूरोपीय संघ (निकासी) कानून बनाया गया। इस नए क़ानून के आने के बाद यूरोपीय समुदाय अधिनियम 1972 निरस्त हो गया है। दरअसल यूरोपीय समुदाय अधिनियम 1972 के ज़रिए ही ब्रिटेन यूरोपियन यूनियन का सदस्य बना था।

ब्रेक्जिट प्रक्रिया की अगली कड़ी के रूप में 29 मार्च, 2017 को ब्रिटेन सरकार ने 'लिस्बन संधि' का अनुच्छेद-50 लागू कर दिया। जिसके तहत ठीक दो साल बाद ब्रेक्ज़िट लागू होना था। अब कैसे अलग होना है यह जिम्मेदारी ब्रिटेन के नेताओं पर आ गई। इसके लिए ब्रिटेन के नेताओं ने प्रधानमंत्री थेरेसा मे के अगुवाई में एक मसौदा तैयार किया और उसको लेकर यूरोपीय संघ से बातचीत की और फिर इस प्रक्रिया को अंतिम रूप दिया।

प्रक्रिया को लागू होने के लिए इसके मसौदे को 'हाउस ऑफ कॉमंस' में पारित होना ज़रूरी था। लेकिन ये प्रस्ताव अब तक तीन बार ब्रिटिश संसद में पेश किया जा चुका है और हर बार खारिज़ हो गया। ऐसे में ये लगने लगा है कि ब्रिटेन को बिना किसी डील के यूरोपीय संघ से अलग होना पड़ सकता है जो ब्रिटेन और यूरोप दोनों को आर्थिक रूप से नुकसानदायक साबित होगा।

ब्रेक्जिट ड्राफ्ट डील क्या है?

जैसे-जैसे ब्रेक्जिट की समय-सीमा नज़दीक आती जा रही है वैसे वैसे ब्रिटेन के नेताओं पर मसौदे को लेकर दबाव बढ़ता जा रहा है। ब्रेक्जिट कोई क्षणिक और तत्काल बदलाव नहीं होगा बल्कि इसमें कई प्रक्रियाओं से गुजरना होगा। इसके लिए संक्रमण काल लागू किया गया है जो कि 31 दिसंबर 2020 तक होगा। यूरोपीय यूनियन से ब्रिटेन के अलग होने के समझौते के लिये तैयार मसौदे को ब्रेक्जिट ड्राफ्ट डील कहा जा रहा है।

ब्रिटेन की भौगोलिक स्थिति ब्रिटेन की भौगोलिक स्थिति भी समझना ज़रूरी

यूनाइटेड किंगडम कई छोटे-बड़े द्वीपों से मिलकर बनता है। वैसे तो, ब्रिटेन को यूनाइटेड किंगडम भी कहा जाता लेकिन दोनों में अंतर है। यूनाइटेड किंगडम उत्तरी आयरलैंड, स्कॉटलैंड, वेल्स तथा इंग्लैंड इन चार अलग-अलग हिस्सों से मिलकर बनता है। जबकि ग्रेट ब्रिटेन स्कॉटलैंड, इंग्लैंड और वेल्स से मिलकर बनता है। आपको बता दें कि 'रिपब्लिक ऑफ़ आयरलैंड' एक अलग देश है और कुछ छोटे-छोटे द्वीप समूह ब्रिटिश आईलैंड का हिस्सा हैं।

डील के विवादित मुद्दे

ब्रेक्जिट के मुद्दे पर ब्रिटेन दो गुटों में बंटा हुआ दिखाई देता है। खींचतान सिर्फ इस बात पर नहीं हो रही है कि डील ब्रिटेन के लिये अच्छी या है बुरी, बल्कि कुछ लोग अब भी उम्मीद लगाए बैठे हैं कि ब्रेक्जिट हो ही ना। ब्रेक्जिट के विरोधी एक नए जनमत संग्रह की मांग कर रहे हैं जिसमें एक बार फिर लोगों से पूछा जाए कि क्या वे वास्तव में यूरोपीय संघ से अलग होना चाहते हैं?

डील में उत्तरी आयरलैंड के बॉर्डर के मुद्दे पर एक आम सहमति नहीं बन पा रही है। दरअसल उत्तरी आयरलैंड ब्रिटेन का हिस्सा है जिसकी सीमा यूरोपीय संघ के सदस्य देश आयरलैंड से मिलती हैं। कुछ वजहों के चलते ब्रेक्जिट के बाद आयरलैंड और उत्तरी आयरलैंड के बीच सख्त बॉर्डर कायम करने के हक में न तो ब्रिटेन है और न ही यूरोपीय संघ। इसका मतलब ये हुआ कि उत्तरी आयरलैंड को यूरोपीय संघ के कुछ क़ानून मानने होंगे। अब डील के विरोधियों को यह बात बिल्कुल पसंद नहीं है कि ब्रेक्जिट के बाद भी उत्तरी आयरलैंड में नियम-कानून बाकी ब्रिटेन से अलग हों।

इसके अलावा इसमें सबसे अहम् बात ये है कि ब्रिटेन को यूरोपीय संघ से अलग होने पर 50 अरब डॉलर की बकाया रकम चुकानी होगी। डील के विरोधी इसे अलग होने की कीमत बता रहे हैं।

आख़िर क्यों अलग हो रहा है ब्रिटेन?

स्वायत्तता: EU की दखलंदाज़ी के कारण इंग्लैंड कानून बनाने सम्बन्धी अपने अधिकारों का खुल कर इस्तेमाल नहीं कर पा रहा है। खासतौर से फिशरीज़ से जुड़े कानून। ऐसे में इंग्लैंड की स्वायत्तता प्रभावित हो रही है।

इमीग्रेशन: पिछले कुछ सालों में ब्रिटेन में आप्रवासियों की तादाद में काफी वृद्धि देखी गई है, क्योंकि सीरिया में सिविल वार के चलते काफी संख्या में आप्रवासी भागकर यूरोप आ रहे हैं। इसके अलावा यूरोपीय संघ के देशों के बीच लोगों की आवाजाही पर कोई मनाही नहीं है। इसके चलते मध्य और पूर्वी यूरोप से ढेर सारे लोग काम करने के लिहाज से ब्रिटेन में आकर बस गए हैं। लेकिन दिक्कत ये है कि इमीग्रेशन नीति EU तय करता है, न कि UK। ऐसे में अगर ब्रिटेन EU से हट जाता है तो उसे अपनी खुद की इमीग्रेशन नीति तय करने का हक़ होगा।

सदस्यता फीस: यूरोपियन यूनियन यानी EU सदस्यता शुल्क के नाम हर साल अपने सदस्य देशों से कुछ धन राशि लेता है। ये धनराशि हर सदस्य देश के लिए अलग-अलग है जो कि हर सदस्य देश की अर्थव्यवस्था के मुताबिक़ तय की जाती है। EU हर साल सदस्यता शुल्क के तौर पर ब्रिटेन से क़रीब 13 बिलियन पाउंड लेता है लेकिन बदले में उसे बहुत कम राशि मिलती है। ऐसे में ब्रिटेन को काफी नुकसान उठाना पड़ता है।

प्रशासनिक दिक्कतें: EU की दखलंदाज़ी के कारण UK में कोई भी प्रशासनिक काम करने के दौरान काफी अड़चनें आती हैं। लालफीताशाही की भूमिका काफी ज़्यादा है।

अर्थव्यवस्था: ब्रिटेन को लगता है ब्रेक्सिट के बाद वो अपने आपको फाइनेंसियल सुपर पॉवर बना सकता है क्योंकि लंदन को पहले से ही वित्तीय राजधानी कहा जाता है। वहाँ का वित्तीय बाज़ार दुनिया के बड़े बाज़ारों में से एक है।

ब्रेक्जिट का ब्रिटेन पर प्रभाव

ब्रेक्जिट की इस खींचतान के कारण यहाँ की मुद्रा, पाउंड में भारी गिरावट आई है। पाउंड में पिछले 31 सालों में ये सबसे बड़ी गिरावट है।

  • ब्रिटिश जीडीपी को 1 से 3 फ़ीसदी का नुकसान हो सकता है।
  • ब्रिटेन के लिए सिंगल मार्केट सिस्टम ख़त्म हो जाएगा।
  • दूसरे यूरोपीय देशों में ब्रिटेन को कारोबार से जुड़ी दिक्कतें होंगी। ब्रेक्जिट के बाद ये कारोबार WTO के नियमों के मुताबिक़ होंगी।
  • पूरे यूरोपियन यूनियन पर ब्रिटेन का दबदबा ख़त्म हो जाएगा।
  • ब्रिटेन को यूरोपियन यूनियन के बजट के लिए बड़ी धन राशि नहीं देनी होगी।
  • ब्रिटेन की सीमाओं पर बिना रोक-टोक के आवाजाही पर लगाम लगेगी।
  • फ्री वीजा पॉलिसी के कारण ब्रिटेन को हो रहा नुकसान भी कम होगा।

ब्रेक्जिट का भारत पर प्रभाव

मौजूदा वक़्त में ब्रिटेन में क़रीब 800 भारतीय कंपनियाँ हैं। जिनमें 1 लाख से ज़्यादा लोग काम करते हैं। भारतीय आईटी कंपनियों की 6 से 18 फ़ीसद कमाई ब्रिटेन से होती है।

  • भारत में कुल एफडीआई का 8 फ़ीसद हिस्सा UK से आता है। इसका असर भारत के कारोबार पर कम पड़ेगा लेकिन ब्रेक्जिट के बाद ब्रिटेन के साथ अलग से व्यापारिक समझौते करने पड़ेंगे। साथ ही यूरोप के देशों से भी भारत को नए करार करने होंगे। इस प्रक्रिया में तमाम राजनीतिक और कूटनीतिक दिक्कतें आ सकती हैं।
  • भारतीय कंपनियों की ब्रिटेन में रुचि की एक बड़ी वज़ह यह है कि ब्रिटेन के रास्ते भारतीय कंपनियों की यूरोप के बाकी 27 देशों के बाज़ार तक सीधी पहुँच हो जाती है। यानी भारतीय कंपनियों के लिए ब्रिटेन एक गेटवे की तरह है। जाहिर है जब ब्रिटेन यूरोपीय यूनियन से बाहर निकलेगा तो इस बड़े बाज़ार तक आसान पहुँच बंद हो जाएगी। UK ने हमेशा EU में भारत की तरफदारी की है और भारत का साथ दिया है, विशेष रूप से फ्री ट्रेड एग्रीमेंट के मामले में। लेकिन ब्रेक्जिट के बाद ब्रिटेन में काम कर रहीं भारतीय कंपनियों को यूरोपीय बाज़ार तक पहुँचने के नए रास्ते निकालने होंगे।
  • इतना ही नहीं ब्रिटेन में बने उत्पादों पर भारतीय कंपनियों को यूरोपीय देशों में टैक्स भी देना होगा। इस कारण भी कंपनियों के खर्च में इज़ाफा होगा।
  • मॉरिशस और सिंगापुर के बाद ब्रिटेन भारत में तीसरा सबसे बड़ा निवेशक है। अगर ब्रेक्जिट के बाद ब्रिटेन की अर्थव्यवस्था कमजोर पड़ती है तो उसके निवेश में भी कमी आ सकती है।
  • पौंड के कमजोर होने से डॉलर मजबूत बनेगा। ऐसी परिस्थिति में रुपया डॉलर के मुकाबले कमजोर हो सकता है।

ब्रेक्जिट के कारण कुछ फायदा भी है भारत को

ब्रेक्जिट के कारण यूके और यूरोपीय संघ दोनों ही घाटे में जा सकते हैं। दोनों को ही एक दूसरे के विकल्पों की जरूरत होगी। ऐसे में भारत अहम भूमिका निभा सकता है। भारत तकनीक, साइबर सुरक्षा, रक्षा और वित्त में बड़ा भागीदार बन सकता है। निवेश के लिहाज से भी भारत की भूमिका अहम होगी।

एक्सपर्ट्स का कहना है कि ब्रेक्जिट के कारण होने वाला कोई भी नुकसान सिर्फ शार्ट-टर्म के लिए ही होगा, लॉन्ग-टर्म में भारत को कोई नुकसान नहीं होगा।

यूरोपियन यूनियन

दूसरे विश्वयुद्ध के बाद यूरोप में यह कोशिश की गई कि सभी देश आर्थिक रूप से एक साथ आएँ और एकजुट होकर एक व्यापार समूह बनें। इसके पीछे एक मक़सद यह था कि देशों का आपस में आर्थिक जुड़ाव जितना ज़्यादा होगा, युद्ध होने की गुंजाईश उतनी कम होगी। इस तरह 1957 में 'रोम की संधि' द्वारा 'यूरोपीय आर्थिक परिषद' के ज़रिए छह यूरोपीय देशों की आर्थिक भागीदारी शुरू हुई। इसी क्रम में 1993 में 'मास्त्रिख संधि' के ज़रिए यूरोपीय यूनियन अस्तित्व में आया।

यूरोपियन यूनियन 28 देशों की एक आर्थिक और राजनीतिक पार्टनरशिप है। 2004 में जब यूरो करेंसी लॉन्च की गई तब यह पूरी तरह से राजनीतिक और आर्थिक रूप से एकजुट हुआ। इस संघ के सदस्य देशों के बीच किसी भी तरह का सामान और व्यक्ति बिना किसी टैक्स या बिना किसी रुकावट के कहीं भी आ-जा सकते हैं। साथ ही बिना रोक टोक के नौकरी, व्यवसाय तथा स्थायी तौर पर निवास कर सकते हैं।

ब्रिटेन कब बना यूरोपियन यूनियन का हिस्सा?

साल 1973 में ब्रिटेन ने यूरोपियन इकोनॉमिक कम्युनिटी को ज्वाइन किया। इसके बाद ब्रिटेन में इस बात पर जनमत संग्रह कराया गया कि ब्रिटेन को EU में रहना है या नहीं। उस समय जनता ने यूरोपियन यूनियन से जुड़ने का फैसला लिया।

लेकिन साल 2010 के बाद से कुछ ऐसे घटनाक्रम हुए जिसके कारण फिर से जनमत संग्रह की मांग उठने लगी। इस मांग में सबसे बड़ी भूमिका यूनाइटेड किंगडम इंडीपेंडस पार्टी यानी UKIP की थी।
इसके बाद उस समय की सत्तारुढ़ कंज़र्वेटिव पार्टी ने एक चुनावी वादा किया कि अगर हम सत्ता में दोबारा आते हैं तो ब्रेक्सिट को लेकर जनमत संग्रह करवाएंगे। साल 2015 में कंज़र्वेटिव पार्टी सत्ता में फिर से काबिज़ हुई और डेविड कैमरून दूसरी बार प्रधानमंत्री बने। उन्होंने जून 2016 में उन्होंने अपना चुनावी वादा पूरा किया, और जनमत संग्रह करवाया।

लिस्बन संधि क्या है?

यूरोपियन संघ बनने की शुरुआत 1957 में रोम की संधि के ज़रिए हुई थी। तब से इसमें सदस्य देशों की तादाद में लगातार बढ़ोत्तरी होती रही और इसकी नीतियों में बहुत से बदलाव किये गये। 1993 में मास्त्रिख संधि द्वारा इसके आधुनिक वैधानिक स्वरूप की नींव रखी गयी। दिसम्बर 2007 में 'लिस्बन संधि' के ज़रिए इसमें और व्यापक सुधारों की प्रक्रिया शुरु की गयी।

लिस्बन संधि का अनुच्छेद-50 क्या है?

लिस्बन संधि के अनुच्छेद 50 के तहत किसी सदस्य देश के यूरोपीय संघ से अलग होने की औपचारिक प्रक्रिया शुरू होती है। इसका मतलब ये हुआ कि ये अनुच्छेद यूरोपीय संघ के मौजूदा सदस्यों को संघ छोड़ने का अधिकार देता है। संघ से बाहर निकलने की प्रक्रिया भी इसी अनुच्छेद के तहत तय की गई है। इसके मुताबिक़ बाहर निकल रहे देश को आपसी बातचीत कर सहमति के लिये दो साल का वक़्त मिलता है। अगर अनुच्छेद 50 लागू हो गया तो इसके बाद उसे वापस नहीं लिया जा सकता। यह केवल तभी वापस हो सकता है जब सभी सदस्य देश इसके लिये राज़ी हों।

निष्कर्ष

मौजूदा वक़्त में यूरोपीय संघ दुनिया की सबसे बड़ी अर्थव्यवस्था है। ब्रिटेन के निकलने के बाद इसमें 27 देश बचेंगे। यही यूरोपीय संघ यूरोप की दिशा तय करता है। इसलिये नए प्रधानमंत्री के लिये ये ज़रूरी है कि यूरोपीय संघ से अलगाव भले ही हो लेकिन दुष्प्रभाव ज़्यादा न हो।