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Blog / 23 Sep 2019

(Global मुद्दे) कॉप 14 - मरूस्‍थलीकरण की समस्याएं (COP 14 - Problems of Desertification)

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(Global मुद्दे) कॉप 14 - मरूस्‍थलीकरण की समस्याएं (COP 14 - Problems of Desertification)


एंकर (Anchor): कुर्बान अली (पूर्व एडिटर, राज्य सभा टीवी)

अतिथि (Guest): प्रोफेसर सी. के. वार्ष्णेय, (पर्यावरण मामलों के जानकार), कुंदन पाण्डेय (डाउन टू अर्थ' पत्रिका के संवाददाता)

चर्चा में क्यों?

मरूस्‍थलीकरण से निपटने के लिए संयुक्त राष्ट्र का 12 दिन तक चला 14 वां कोप सम्मेलन 13 सितम्बर को समाप्त हो गया है। सम्‍मेलन में भूमि की गुणवत्‍ता बहाली, सूखा, जलवायु परिवर्तन, नवीकरणीय ऊर्जा, महिला सशक्तिकरण, लैंगिक समानता, और पानी की कमी जैसे कई महत्वपूर्ण मुद्दों पर विस्‍तार से चर्चा की गई। इसके अलावा संयुक्‍त राष्‍ट्र मरूस्‍थलीकरण रोकथाम सम्‍मेलन के आखिरी दिन दिल्‍ली घोषणा पत्र को भी स्‍वीकारा गया। इस मौके पर केंद्रीय मंत्री प्रकाश जावडेकर ने कहा कि मरुस्थलीकरण की वैश्विक समस्या से निपटने के लिए भूमि सुधार और जैव विविधता की दिशा में दिल्ली घोषणा पत्र महत्वपूर्ण भूमिका निभाएगा।

UNCCD के ही तहत 17 जून को विश्व मरुस्थलीकरण रोकथाम दिवस भी मनाया जाता है। विश्व मरुस्थलीकरण दिवस के मौके पर तीन मुख्य बातों के ज़रिए मरुस्थलीकरण को रोकने के प्रयासों को प्रसारित किया जाता है।

14वां COP सम्मेलन

बीते 2 सितम्बर को इंडिया एक्सपो सेंटर एंड मार्ट (ग्रेटर नोएडा) में काँफ्रेस ऑफ द पार्टीज यानी COP के 14वें सत्र का आयोजन हुआ था। संयुक्‍त राष्‍ट्र समझौते से संबद्ध काँफ्रेस ऑफ द पार्टीज (COP - 14) के 14वें सत्र में दुनिया के क़रीब 200 देशों ने भाग लिया और सम्‍मेलन में दुनिया भर के 9000 से अधिक प्रतिभागियों की व्यापक भागीदारी दिखी। इसके अलावा इस सम्मलेन में 11 उच्च स्तरीय, 30 समिति स्तरीय और 170 से अधिक हितधारकों की अलग - अलग बैठकें हुई हैं।

इस सम्मलेन में भूमि की उवर्रक क्षमता को बचाने के लिए वैश्विक स्‍तर पर चलाए गए अभूतपूर्व अभियान के तहत कोप के सदस्‍य देश इस बात पर राजी हुए है कि 2030 तक वे राष्‍ट्रीय लक्ष्‍य के तहत भूमि की उवर्रक क्षमता बचाये रखने के लिए टिकाऊ विकास को हासिल करेंगे। निर्धारित लक्ष्‍य के तहत कोप के सदस्‍य देश, भूमि से जुड़ी असुरक्षा और इससे संबंधित लैंगिक असमानता को दूर करने और भूमि की उवर्रता बहाली जैसे कामों के लिए सार्वजनिक और निजी स्रोतों से वित्तीय संसाधन जुटाने का प्रयास करेंगे।

मरूस्‍थलीकरण रोकथाम सम्‍मेलन के समापन पर केन्‍द्रीय पर्यावरण, वन और जलवायु परिवर्तन मंत्री प्रकाश जावड़ेकर ने उम्मीद जताते हुए कहा कि रियो द जेनेरो में सम्‍पन्‍न हुए पहले के तीन सम्‍मेलनों की प्रति‍बद्धताओं को पूरा करने के लिए मिल जुल कर काम किया जायेगा। साथ ही उन्‍होंने बताया कि भारत ने वर्ष 2030 तक दो करोड़ 60 लाख हेक्‍टेयर बंजर भूमि को उपजाऊ बनाने का लक्ष्‍य रखा है।

UNCCD के कार्यकारी सचिव इब्राहिम थियाव ने कहा कि - मेरे विचार से, कोप में हमने उन लोगों को केन्द्र में रखा है, जिन्हें हमे चाहिए। इसमें भूमि अधिकारों पर महत्वपूर्ण निर्णय लागू करने वाले पक्षों और इसके लिए आवाज़ उठाने वाले पक्षों के साथ-साथ युवाओं और महिलाओं के अनुभवों को भी इसमें शामिल किया गया है। इसके अलावा उन्होंने कहा कि कोप-14 में सूखे के जोखिमों में कमी लाने के वैश्विक प्रयासों और उन पर सहमति कायम करने के बारे में भी ऐतिहासिक निर्णय लिए गए। UNCCD के कार्यकारी सचिव इब्राहिम थियाव के मुताबिक़ जलवायु और जैव विविधता से जुड़ी वैश्विक समस्याओं के समाधान के लिए भूमि की गुणवत्ता को कायम रखना सबसे सरल समाधान है।

मरुस्थलीकरण क्या है?

मरुस्थलीकरण जमीन के खराब होकर अनुपजाऊ हो जाने की ऐसी प्रक्रिया होती है, जिसमें जलवायु परिवर्तन और मानवीय गतिविधियों समेत अन्य कई कारण शामिल होते हैं। मरुस्थलीकरण के चलते ज़मीने शुष्क, अर्द्ध-शुष्क और निर्जल अर्द्ध-नम इलाकों में तब्दील होकर रेगिस्तान में बदल जाती है। ऐसे जमीन की उत्पादन क्षमता में कमी और ह्रास होता है।

गौरतलब है कि विश्व का मरुस्थलीकरण क्षेत्र बिखरा हुआ न होकर दो अलग-अलग पट्टियों में विभाजित है। इसमें से एक पट्टी उत्तरी गोलार्द्ध में है और दूसरी दक्षिणी गोलार्द्ध में है। इनका विस्तार कर्क रेखा और मकर रेखा के निकट तथा अधिकांशतः 200 से 300 उत्तरी अक्षांशों के मध्य पाया जाता है। विभिन्न प्रकार की भौगोलिक स्थलाकृतियों के आधार पर मरुस्थल निम्न प्रकार के होते हैं-

वास्तविक मरुस्थल - इसमें बालू की प्रचुरता पाई जाती है।

पथरीले मरुस्थल - इसमें कंकड़-पत्थर से युक्त भूमि पाई जाती है, इन्हें अल्जीरिया में रेग तथा लीबिया में सेरिट के नाम से जाना जाता है।

चट्टानी मरुस्थल - इसमें चट्टानी भूमि का हिस्सा अधिकाधिक होता है। इन्हें सहारा क्षेत्र में हमदा कहा जाता है।

मरुस्थलीकरण के कारण

  • हवा से मिट्टी का कटाव मरुस्थलीकरण का एक मुख्य कारण है। इसका सबसे बुरा असर थार के रेतीले टीलों और रेत की अन्य संरचनाओं पर पड़ा है। उल्लेखनीय है कि तेज गति से बहने वाली हवा से मिट्टी का कटाव बहुत ही तीव्रता से होता है जिसका प्रभाव आस-पास के क्षेत्रों पर भी पड़ता है।
  • ट्रैक्टरों के द्वारा गहरी जुताई, रेतीले पहाड़ी ढलानों में खेती, खराब कृषि सिंचाई प्रणाली, काफी समय तक जमीन को परती छोड़ने आदि से मरुस्थलीकरण की प्रक्रिया तेज होती है।
  • मरुस्थलीकरण बढ़ाने की प्रक्रिया में खनन कार्यों का भी अपना विशेष योगदान रहता है। दरअसल सतह की खुली खानों से जमीन के खराब होने का खतरा बढ़ जाता है। चूंकि खनन के बाद खान क्षेत्र को वैसे ही छोड़ दिया जाता है चाहे खानें भूमिगत हों या जमीन के ऊपर। स्मरणीय हो कि खुदाई से निकले मलबे को फेंकने से कृषि योग्य भूमि की उत्पादकता कम हो जाती है।
  • प्राकृतिक वनस्पतियों का नष्ट होना मरुस्थलों के प्रसार का एक अन्य महत्वपूर्ण कारण माना जाता है। एक अध्ययन से पता चला है कि 300 मिमी से कम औसत वार्षिक वर्षा वाले क्षेत्रों में अच्छे किस्म की घास तथा वनस्पतियों का ह्वास हो रहा है और यह 7 प्रतिशत से घटकर एक प्रतिशत रह गया है। दूसरी ओर 300 मिमी- से अधिक औसत वार्षिक वर्षा वाले इलाकों में वनस्पतियाँ 8 प्रतिशत से घटकर 1.2 प्रतिशत रह गयी हैं।
  • मरुस्थलीकरण परती भूमि में छोटे-छोटे पेड़-पौधों को पशुओं द्वारा चर लेने से भी बढ़ा है। इसके अतिरिक्त इधर के वर्षों में चरागाहों के स्थान पर बड़े-बड़े मकान एवं फैक्ट्रियों को बनाने की प्रतिस्पर्द्धा चल पड़ी है नतीजतन भूमि बंजरता बढ़ी है।
  • मरुभूमि के निरन्तर विकास होते रहने का भौगोलिक कारण भी रहा है। जैसे कम वर्षा तथा जल के वाष्पीकरण में अधिकता से भूमि की लवणता का बढ़ना, दिन तथा रात के तापमान में अधिक अंतर होने से चट्टानों का टूटना, धूल के कणों की मात्र व उनके आकार में वृद्धि होना आदि।
  • शहरों और औद्योगीकरण के विस्तार के चलते आज जंगल सिकुड़ रहे हैं, ऐसे में मैदान को नुकसान पहुँचने का खतरा बढ़ा है।
  • प्राकृतिक, निर्वनीकरण, अधारणीय तरीके से लकडि़यों का ईंधन के लिये प्रयोग करना, शिफ्रिटंग कल्टिवेशन, दावानल (forest fires) आदि भूमिक्षरण के अन्य कारण रहे हैं।

मरुस्थलीकरण का मौजूदा स्वरूप

वर्तमान में समस्त विश्व के कुल क्षेत्रफल का पाँचवां भाग, यानी 20 प्रतिशत मरुस्थलीय भूमि के रूप में पृथ्वी पर मौजूद है। जबकि सूखाग्रस्त भूमि कुल वैश्विक क्षेत्रफल का एक तिहाई है। संयुक्त राष्ट्र संघ (UNO) द्वारा प्रस्तुत किये गये एक विशेष प्रतिवेदन में बताया गया है कि 130 लाख वर्ग किलोमीटर भूमि क्षेत्र मानव की अविवेकपूर्ण क्रियाओं के कारण रेगिस्तान में बदल गया है। उल्लेखनीय है कि थार के मरुस्थल में प्रतिवर्ष 13000 एकड़ से अधिक भूमि की वृद्धि दर्ज की जा रही है। कुछ वर्षों बाद सहारा रेगिस्तान के क्षेत्रफल में भी एक ऐसी ही बड़ी बढ़ोतरी हो जायेगी।

संयुक्त राष्ट्र के मुताबिक रेगिस्तान के फैलते दायरे के चलते आने वाले समय में अन्न की कमी पड़ सकती है। कुछ आंकड़ों के मुताबिक़ हर साल लगभग 20 मिलियन टन के बराबर अनाज के उत्पादन में कमी आ रही है। ध्यान देने वाली बात है आज प्रति मिनट 23 हेक्टेयर उपजाऊ भूमि बंजर भूमि में तब्दील हो रही है जिसके परिणामस्वरूप हर साल खाद्यान्न उत्पादन में दो करोड़ टन की कमी आ रही है। गहन खेती के कारण 1980 से अब तक धरती की एक-चौथाई उपजाऊ भूमि नष्ट हो चुकी है। इसके अलावा एक और अध्ययन के मुताबिक़ विश्व में हर साल 12 मिलियन हेक्टयर उत्पादक भूमि मरुस्थलीकरण और सूखे के कारण बंजर हो जाती है।

खाद्यान्न उत्पादन के अधीन नई भूमि लाना संभव नहीं होता है और जो भूमि बची है, वह भी तेजी से क्षरित हो रही है, उदाहरण के लिए मध्य एशिया का गोबी मरुस्थल से उड़ी धूल उत्तर चीन से लेकर कोरिया तक के उपजाऊ मैदानों को खत्म कर रही है। वहीं भारत के थार मरुस्थल ने उत्तर भारत के मैदानों को प्रभावित किया है।

संयुक्त राष्ट्र के अनुमान के मुताबिक 2025 तक दुनिया के दो-तिहाई लोग जल संकट की परिस्थितियों में रहने को मजबूर होंगे। ऐसे में मरुस्थलीकरण के चलते विस्थापन बढ़ेगा। नतीजतन 2045 तक करीब 13 करोड़ से ज्यादा लोगों को अपना घर छोड़ना पड़ा सकता है।

मरुस्थलीकरण की चुनौतियाँ?

  • मरुस्थलीकरण से प्राकृतिक वनस्पतियों का क्षरण हुआ है, साथ ही कृषि उत्पादकता, पशुधन यहाँ तक कि जलवायवीय घटनाएँ भी प्रभावित हो रही हैं।
  • ज्ञातव्य है कि मरुस्थलीकरण के चलते पिछले दिनों भारत के उत्तर और पश्चिमी प्रदेश में धूल-भरी आंधी आयी थी। साथ ही पहली बार ऐसा देखा गया कि पहाड़ी राज्यों में भी धूल-भरी आंधी जीवन को अस्त व्यस्त कर सकती है।
  • मरुस्थलीकरण के कारण आज सांस, फेफड़े, सिरदर्द आदि बीमारियों की संख्या बढ़ी है। उदाहरण के तौर पर नई दिल्ली में दिन-प्रतिदिन हालत यह हो गए हैं कि वायु प्रदूषण का स्तर रिकॉर्ड तोड़ रहा है, जिससे लोगों का स्वास्थ्य और कार्य दोनों प्रभावित हुआ है।
  • मरुस्थलीकरण आर्थिक-सामाजिक व्यवस्था को परिवर्तित कर लोगों की जीविका पर भी संकट खड़ा कर रही है। विदित हो कि मिट्टी की ऊपरी 20 सेंटीमीटर मोटी परत ही हमारे जीवन का आधार होता है। वर्ल्ड वॉच इंस्टीट्यूट के अनुसार पच्चीस सेंटीमीटर मोटी मिट्टी की ऊपरी परत के नवीनीकरण में दो सौ से एक हजार साल का समय लगता है।
  • पर्यावरणीय दृष्टिकोण से अगर देखा जाए तो मरुस्थलीकरण के चलते मरुभूमि वाले क्षेत्र निम्न चुनौतियों का सामना कर रहे हैं जैसे कि भू-जल की अनियमितता तथा अत्यधिक दोहन, मृदा की गुणवत्ता में कमी, लवणता में वृद्धि, रेतीले मैदानों का क्षेत्रफल बढ़ना, पौधों की वृद्धि दर कम होना, अत्यधिक ताप व गर्मी तथा न्यूनतम आर्द्रता का होना।

भारत में मरुस्थलीकरण

वर्तमान परिप्रेक्ष्य में मरुस्थलीकरण भारत की प्रमुख समस्या बनती जा रही है। दरअसल इसकी वजह करीब 30 फीसदी जमीन का मरुस्थल में बदल जाना है। मौजूदा वक़्त में भारत में भू-क्षरण का दायरा 96.40 मिलियन हेक्टेयर है जो कुल भौगोलिक क्षेत्र का 29.30 प्रतिशत है। उल्लेखनीय है कि इसमें से 82 प्रतिशत हिस्सा केवल आठ राज्यों राजस्थान, महाराष्ट्र, गुजरात, जम्मू एवं कश्मीर, कर्नाटक, झारखंड, ओडिशा, मध्य प्रदेश और तेलंगाना में है।

सेंटर फॉर साइंस एंड एनवायरमेंट (सीएसई) द्वारा जारी "स्टेट ऑफ एनवायरमेंट इन फिगर्स 2019" की रिपोर्ट के मुताबिक 2003-05 से 2011-13 के बीच भारत में मरुस्थलीकरण 18.7 हेक्टेयर तक बढ़ चुका है। वही सूखा प्रभावित 78 में से 21 जिले ऐसे हैं, जिनका 50 फीसदी से अधिक क्षेत्र मरुस्थलीकरण में बदल चुका है। ध्यान योग्य बात है कि वर्ष 2003-05 से 2011-13 के बीच नौ जिले में मरुस्थलीकरण 2 प्रतिशत से अधिक बढ़ा है। भारत का 29.32 फीसदी क्षेत्र मरुस्थलीकरण से प्रभावित है। इसमें 0.56 फीसदी का बदलाव देखा गया है।

गौरतलब है कि गुजरात में चार जिले ऐसे हैं, जहाँ मरुस्थलीकरण का प्रभाव देखा जा रहा है, इसके अलावा महाराष्ट्र में 3 जिले, तमिलनाडु में 5 जिले, पंजाब में 2 जिले, हरियाणा में 2 जिले, राजस्थान में 4 जिले, मध्य प्रदेश में 4 जिले, गोवा में 1 जिला, कर्नाटक में 2 जिले, केरल में 2 जिले, जम्मू कश्मीर में 5 जिले और हिमाचल प्रदेश में 3 जिलों में मरुस्थलीकरण का प्रभाव है।

मरुस्थीकरण को लेकर संयुक्‍त राष्‍ट्र मरुस्‍थलीकरण रोकथाम समझौता UNCCD

संयुक्त राष्ट्र मरुस्थलीकरण रोकथाम कन्वेंशन संयुक्त राष्ट्र के तीन रियो समझौतों में से एक है। संयुक्त राष्ट्र के तीन रियो समझौतों में जैव विविधता पर समझौता यानी CBD, जलवायु परिवर्तन पर संयुक्त राष्ट्र फ्रेमवर्क समझौता यानी UNFCCC और संयुक्त राष्ट्र मरुस्थलीकरण रोकथाम यानी UNCCD जैसे समझौते शामिल हैं।

दरअसल मरुस्थलीकरण व सूखे की बढ़ती भयावहता और इससे वैश्विक स्तर पर मुकाबला करने के लिए संयुक्त राष्ट्र संघ की आम सभा में 1994 में मरुस्थलीकरण रोकथाम का प्रस्ताव रखा गया और इसका अनुमोदन दिसम्बर 1996 में किया गया। तब से इसी के तहत काँफ्रेस ऑफ द पार्टीज सम्‍मेलन का आयोजन होता है। इसके अलावा UNCCD ही ऐसा एकमात्र अंतर्राष्ट्रीय समझौता है जो पर्यावरण एवं विकास के मुद्दों पर कानूनी रूप से बाध्यकारी है। भारत ने इससे संबंधित समझौते पर 14 अक्‍टूबर 1994 को हस्‍ताक्षर किये। समझौते का मुख्‍य मक़सद मरूस्‍थलीकरण से निपटना तथा सूखे या मरूस्‍थलीकरण से जूझ रहे देशों में इनके प्रभाव को कम करना है।

मरुस्थलीकरण को लेकर हो रहे सरकारी प्रयास

मरुस्थलीकरण आज दुनिया के समक्ष एक बड़ी चुनौती पेश कर रही है। भारत ने इस समस्या की गंभीरता को समझते हुए सरकारी स्तर पर कई प्रयास किए हैं। इन प्रयासों का जिक्र निम्न बिन्दुओं के अंतर्गत किया जा सकता है-

  • वर्तमान में मिट्टी के क्षरण को रोकने के लिए सरकार द्वारा विभिन्न योजनाएँ चलायी जा रही हैं जैसे- प्रधानमंत्री फसल बीमा योजना (पीएमएफबीवाई), मुद्रा स्वास्थ्य कार्ड योजना, मृदा स्वास्थ्य प्रबंधन योजना, प्रधानमंत्री कृषि सिंचाई योजना (पीकेएसवाई), राष्ट्रीय कृषि विकास योजना, प्रतिबूंद अधिक फसल योजना आदि। ग़ौरतलब है कि सरकार ने इन योजनाओं में भारी मात्र में धन आवंटित किया है।
  • इन योजनाओं के अतिरिक्त दीनदयाल उपाध्याय ग्रामीण कौशल योजना और आईडब्लूएमपी (ग्रामीण विकास मंत्रालय), स्वच्छ भारत मिशन, राष्ट्रीय हरित भारत मिशन और राष्ट्रीय वनीकरण कार्यक्रम (पर्यावरण, वन एवं जलवायु परिवर्तन मंत्रालय) ऐसी प्रमुख योजनाएँ है, जो जमीनों के रेतीले होने, जमीनों की गुणवत्ता कम होने और सूखे की समस्याओं से निपटने के लिए काम करती है।
  • मरुस्थलीकरण के भावी परिणामों को समझते हुए हाल ही में पर्यावरण मंत्रालय ने वन भूमि पुनर्स्थापना (एफएलआर) और भारत में बॉन चुनौती (Bonn Challenge) पर क्षमता बढ़ाने के बारे में एक अग्रणी परियोजना लाँच की है। यह परियोजना 3-5 वर्षों की पायलट चरण की होगी, जिसे हरियाणा, मध्यप्रदेश, महाराष्ट्र, नागालैण्ड तथा कर्नाटक में लागू किया जाएगा।
  • परियोजना का उद्देश्य भारतीय राज्यों के लिए श्रेष्ठ व्यवहारों तथा निगरानी प्रोटोकॉल को विकसित करना और अपनाना तथा वन भूमि पुनर्स्थापन (एफएलआर) और बॉन चुनौती पर इन पाँच राज्यों के अंदर क्षमता सृजन करना होगा। उल्लेखनीय है परियोजना को आगे के चरणों में पूरे देश में इसका विस्तार किया जाएगा। बॉन चुनौती एक वैश्विक प्रयास है। इसके तहत दुनिया के 150 मिलियन हेक्टेयर गैर-वनीकृत एवं बंजर भूमि पर 2020 तक और 350 मिलियन हेक्टेयर पर 2030 तक वनस्पतियाँ उगाई जायेंगी।
  • गौरतलब है कि वर्ष 2018 में सरकार द्वारा मरुस्थलीकरण को रोकने के अगली कड़ी के रूप में संयुक्त राष्ट मरुस्थलीकरण रोकथाम कन्वेंशन (यूएनसीसीडी) के तहत चार दिवसीय (24-27 अप्रैल 2018) कार्यशाला का आयोजन किया गया। भारत में संपन्न यह क्षेत्रीय कार्यशाला दुनिया भर में आयोजित यूएनसीसीडी कार्यशालाओं की शृंखला में चौथी थी।
  • सरकार द्वारा मरुस्थलीकरण समस्या के समाधान के लिए भूमि और पारिस्थितिकी प्रबंधन क्षेत्र में नवाचार के जरिए टिकाऊ ग्रामीण आजीविका सुरक्षा हासिल करने के लिए भी कार्य किया जा रहा है। उदाहरण के लिए उत्तराखण्ड सरकार ने आजीविका स्तर सुधारने के लिए भूमि, जल और जैव विविधता का संरक्षण और प्रबंधन किया।
  • सरकार के इन्हीं प्रयासों के तहत अहमदाबाद स्थित स्पेस एप्लीकेशंस सेंटर (एसएसी) ने 19 अन्य राष्ट्रीय एजेंसियों के साथ मिलकर मरुस्थलीकरण और भूमि की गुणवत्ता के गिरते स्तर पर देश का पहला एटलस बनाया है तथा दूरसंवेदी उपग्रहों के जरिये जमीन की निगरानी की जा रही है।

आगे क्या किया जाना चाहिए ?

ये बात साफ तौर पर स्पष्ट है कि मरुस्थलीकरण, भूमि क्षरण और सूखा बड़े खतरे हैं, जिससे दुनिया भर में लाखों लोग, विशेषकर महिलाएँ और बच्चे प्रभावित हो रहे हैं। ऐसे में इस समस्या का तत्काल समाधान आज वक्त की माँग हो गई है। चूँकि इस समाधान से जहाँ भूमि संरक्षण और उसकी गुणवत्ता बहाल होगी, वहीं विस्थापन में कमी आयेगी, खाद्य सुरक्षा सुधरेगी और आर्थिक विकास को बढ़ावा मिलने के साथ वैश्विक जलवायु परिवर्तन से संबंधित समस्याओं से निजात मिल सकेगा। इस संदर्भ में देखा जाए तो संयुक्त राष्ट्र संघ व भारत सरकार के प्रयास सराहनीय हैं, लेकिन फिर भी उपलब्धियाँ नाकाफी रही हैं। इस परिप्रेक्ष्य में यहाँ कुछ सुझावों को अमल में लाया जा सकता है-

  • धरती पर वन सम्पदा के संरक्षण के लिए वृक्षों को काटने से रोका जाना चाहिए इसके लिए सख्त कानून का प्रावधान किया जाना चाहिए। साथ ही रिक्त भूमि पर, पार्कों में सड़कों के किनारे व खेतों की मेड़ों पर वृक्षारोपण कार्यक्रम को व्यापक स्तर पर चलाया जाए। जरूरत इस बात की भी है कि इन स्थानों पर जलवायु अनुकूल पौधों-वृक्षों को उगाया जाए।
  • मरुस्थलीकरण से बचाव के लिए जल संसाधनों का संरक्षण तथा समुचित मात्र में विवेकपूर्ण उपयोग काफी कारगर भूमिका अदा कर सकती है। इसके लिए कृषि में शुष्क कृषि प्रणालियों को प्रयोग में लाने को प्रोत्साहित किया जाना चाहिए।
  • मरुभूमि की लवणता व क्षारीयता को कम करने में वैज्ञानिक उपाय को महत्व दिया जाना चाहिए।
  • ग्रामीण क्षेत्रों में स्वतः उत्पन्न होने वाली अनियोजित वनस्पति के कटाई को नियंत्रित करने के साथ ही पशु चरागाहों पर उचित मानवीय नियंत्रण स्थापित करना चाहिए।
  • मरुस्थलीकरण व सूखा से मुकाबला करने के लिए विश्व मरुस्थलीकरण रोकथाम दिवस, वैश्विक स्तर पर जन-जागरूकता फैलाने का ऐसा प्रयास है जिसमें अंतर्राष्ट्रीय स्तर पर सहयोग की अपेक्षा की जाती है। विश्व बंधुत्व की भावना के साथ इसमें भागीदारी सुनिश्चित करना धरती तथा पर्यावरण को बचाने में सार्थक प्रयास साबित हो सकता है।