(Video) Special Current Affairs for UPSC, IAS, UPPSC/UPPCS, BPSC, MPSC, RPSC & All State PSC/PCS Exams (India-China Relationship from Nehru to Modi)
भारत चीन संबंध नेहरू से मोदी तक (भाग 1)
- भारत और चीन प्राचीन समय से विश्व की दो बड़ी शक्तियाँ हैं, जिनके मध्य संबंध मधुर और तनाव वाले, दोनों रूपों में रहे हैं । यह संबंध एक लंबे ऐतिहासिक दौर में विकसित और परिवर्तित हुए हैं। इसलिए वर्तमान संबंधों को समझने के लिए हमें दोनों के मध्य के ऐतिहासिक कालक्रम एवं घटनाओं को समझना होगा।
- दोनों देशों के मध्य के समानता के बिंदु-
- भारत और चीन के बीच असमानता के बिंदु
- (1) भारत एक सांस्कृतिक विविधता वाला देश है जिसे वह बनाये रखना चाहता है, अर्थात् सांस्कृतिक एकरूपता की विचारधारा नहीं अपनाता है। वहीं चीन सांस्कृतिक एकरूपता की विचारधारा अपनाता है।
- चीन का कल्चरल रिवोल्यूशन इसी चीनी नीति का परिणाम था, जिसके तहत लगभग 4.5 करोड़ लोगों को मार दिया गया।
- (2) भारत उदार धार्मिक एवं विचारों का समर्थक रहा है तो वहीं चीन कन्फूशियस विचारधारा और साम्यवाद की अपनी रणनीति के तहत सत्ता और नियंत्रण पर बल देता है और विचारों को रोकता है।
- तिब्बती बौद्ध धर्म, मंगोलियाई संस्कृति/धर्म का जबरन परिवर्तन और नरसंहार की घटनायें धार्मिक हस्तक्षेप की परिचायक हैं। वहीं तियानमेन स्क्वायर पर प्रदर्शन कर रहे छात्रों एवं लोगों पर टेंक एवं हथियारों से हमला करना वाक और अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता के हनन का प्रतीक है।
- कन्फुशियस विचारधारा एक प्रमुख कारण थी जिसके कारण चीन का साम्यवाद रूस, क्यूबा एवं अन्य साम्यवादी देशों से अलग हो गया।
- आज भी चीन की राजनीति पर साम्यवाद और कन्फूशियस का प्रभाव है जबकि उसने अपनी अर्थव्यवस्था को खोल दिया है।
- (3) भारत अपनी विदेश नीति में सॉफ्रट पॉवर के तौर तरीकों को अपनाता है तथा गुटनिरपेक्ष आंदोलन के मूल्यों को लेकर आगे बढ़ता है। वहीं चीन हार्ड पॉवर की नीति पर भरोशा करता है और इतिहास में हुई उसके अपमानजक स्थिति का बदला लेना चाहता है ताकि वह अपनी सर्वश्रेष्ठता साबित कर सके।
- चीन की स्थापना लगभग 4 साल तक चले गृह युद्ध और हिंसा के बाद हुई थी जिसके कारण क्षेत्र विस्तार और सैनिकों का प्रयोग और देश की जनता को चीन सैनिकों की सर्वोच्चता का अहसास कराना उसकी ऐतिहासिक रणनीति का हिस्सा है। वहीं भारत ने अपनी स्वतंत्रता को मुख्य रूप से अहिंसक आंदोलन से प्राप्त किया तथा इस दौर में हिंसक क्रांति सामाजिक स्वीकृति प्राप्त नहीं पायी अर्थात भारत अहिंसा की नीति पर बढ़ने वाला देश है ।
- उपरोक्त समानताओं एवं असमानताओं की पृष्ठभूमि का प्रभाव तो दोनों देशों के संबंधों पर दिखाई देता ही है तो साथ ही ब्रिटिश विदेश नीति का भी प्रभाव देखने को मिलता है। इन सभी सम्मिलित कारकों एवं बदलते वैश्विक परिदृश्य में हमें दोनों देशों के संबंधों को देखना होगा।
- भारत में ब्रिटिश विदेश नीति में बफर क्षेत्र की आवधारणा को महत्व दिया गया। इसी के तहत ब्रिटेन ने ईरान, अफगानिस्तान को पश्चिम एवं उत्तर-पश्चिम में बफर क्षेत्र बनाया। उत्तर में ब्रिटेन ने तिब्बत को बफर क्षेत्र बनाया। इसी से मिलती जुलती अवधारणा के तहत नेपाल, भूटान एवं सिक्किम को रणनीतिक महत्व प्रदान किया।
- भारत ने अपने आप को 26 जनवरी 1950 को एक गणतंत्र घोषित किया और एक स्वतंत्र विदेश नीति को प्रारंभ किया।
- भारत के प्रथम प्रधानमंत्री जवाहर लाल नेहरू ने अपनी सीमाओं के प्रति बहुत ही संवेदनशीलता का परिचय दिया और सीमाओं को सुरक्षित रखने को महत्व दिया।
- इसी क्रम में भूटान के साथ 1949 में, सिक्किम के साथ 1950 में संधि की। जुलाई 1950 में नेपाल के साथ भी संधि कर ली गई और इन देशों की विदेश नीति को भारतीय हितों के अनुकूल रखने का प्रयास इन संधियों के माध्यम से किया।
- नेहरू जी ने अपने अन्य पडोसियों श्रीलंका, म्यांमार (बर्मा) के साथ व्याहारिक विदेश नीति को आगे बढ़ाया।
- चीन के संबंध में नेहरू की नीति-
- नेहरू अपने आदर्शवाद से प्रेरित थे, जिसका प्रभाव उनकी विदेशनीति, आर्थिक नीति, सामाजिक नीति आदि पर प्रत्यक्ष रूप से देखा जा सकता है।
- नेहरू भारत एवं चीन के सहयोग के आधार पर एशिया के पुनरूत्थान (Resurgence) का स्वप्न देखते थे। यहां नेहरू भारत और चीन को एक दूसरे के सहयोगी और पूरक मानते थे तथा उस समय की गुटबाजी और प्रतिस्पर्धा को वह दोनों देशों के लिए घातक मानते थे । इसलिए वह दोनों देशों को विकास के मार्ग पर बढ़ाकर एशिया को आगे बढ़ाना चाहते थे। इसीकारण वह हिंदी- चीनी भाई-भाई की विचारधारा को अपनाते थे।
- नेहरू किसी खास गुट या संगठन का हिस्सा नहीं बनना चाहते थे क्योंकि इससे विदेश नीति प्रभावित होती है और भारतीय प्राथमिकता भी प्रभावित होती। इसके साथ एक गुटबाजी अन्य देशों के बीच प्रारंभ होती जिससे भारत के पड़ोसी आपसी संघर्ष में उलझ सकते थे।
- नव स्वतंत्र एशियाई-अफ्रीकी देशों का नेतृत्व करने की रणनीति।
- चीन को सोवियत रूस से पृथक कर एशिया की ओर मोड़ना जिससे एशियाई हित प्रभावित न हों।
- भारत चीन के साथ सहयोग और क्षेत्रीय स्वीकृति के आधार पर आगे बढ़ना चाहता था और किसी भी तरह से वह चीन के साथ किसी प्रकार का तानव नहीं चाहता था।
- भारत के प्रति चीन की नीति-
- माओत्से के नेतृत्व वाला चीन अपनी सर्वश्रेष्ठता हासिल करना चाहता था, अपना विस्तार करना चाहता था, अपने को शक्तिशाली बनाना चाहता था इसलिए उसकी भारत के प्रति नीति अवसरवाद (oppertunism) से प्रेरित थी।
- प्रारंभ में चीन को अनेक मुद्दों पर भारत के सहयोग की आवश्यकता थी, इसलिए प्रारंभ में चीन ने भारत के साथ दोस्ती/मित्रता को बनाये रखा। यह मुद्दे निम्न थे। 1. ताइवान का मुद्दा और नये चीन की पहचान का मुद्दा 2. संयुक्त राष्ट्र संघ की सदस्यता का मुद्दा
- भारत पहला देश था जिसने साम्यवादी चीन को मान्यता दी और उसके लिए वैश्विक सहयोग प्राप्त किया।
- अमेरिका एवं अन्य देशों ने ताइवान को ही मुख्य चीन माना और संयुक्त राष्ट्र महासभा तथा सुरक्षा परिषद में ताइवान की सदस्यता रखी।
- भारत ने कंपेनिंग करके चीन को सुरक्षा परिषद में शामिल करवाया।
- कई लोगों का मानना है कि भारत को खुद की सुरक्षा परिषद की सीट ले लेनी चाहिए थी क्योंकि अमेरिका, ब्रिटेन भारत का सहयोग और समर्थन करते। लेकिन यहां पर यह भी ध्यान देना होगा कि यह शीत युद्ध का दौर था और रूस ऐसा नहीं होने देता अर्थात वीटो पावर का प्रयोग करता। चीन ने भी साम्यवाद को अपनाया था इसलिए रूस ने अपने वीटो पावर का प्रयोग नहीं किया।
- गुटनिरपेक्ष आंदोलन के बांडुंग सम्मेलन के माध्यम से चीन ने अपनी पहचान हासिल की।
- धीरे-धीरे चीन जब थोड़ा मजबूत हुआ और जब उसने थोड़ी पहचान हांसिल कर ली उसके बाद पुनः चीन ने भारत के प्रति अपनी नीति में परिवर्तित किया। 1. एशियाई- अफ्रीकी देशों का नेतृत्व भारत से छीनने का प्रयास चीन के लिया।
- गुटनिपेक्ष आंदोलन का नेतृत्व भारत से छीनना एवं नव स्वतंत्र देशों को मार्क्स की ओर खींचना।
- इस तरह यह स्पष्ट है कि भारत और चीन दोनों अलग-अलग अपनी प्राथमिकता के आधार पर आगे बढ़ रहे थे।
- 1950 के बाद चीन ने तिब्बत को हड़पने की अपनी नीति को क्रियान्वित करना प्रारंभ किया।
- 1949 में ही चीन तिब्बत पर एक बार अटैक कर चुका था लेकिन नेहरू अपना चीनी मोह छोड़ नहीं पाये। इस समय के गृह मंत्री सरदार वल्लभ भाई पटेल ने नेहरू को चेताया भी था कि यदि तिब्बत पूर्णता चीन के हिस्से में आ जाता है तो भारत और चीन के मध्य का बफर क्षेत्र समाप्त हो जायेगा, जो भारत के लिए ठीक नहीं होगा।
- अमेरिका एवं अन्य देशोंओं की चिंताओं को भी नेहरू ने अपने चीनी आदर्शवाद के तहत खारिज कर दिया।
- नेहरू ने यहां एक गलती यह भी कि वह तिब्बत के मुद्दे के समाधान के लिए अंतर्राष्ट्रीय प्रयास में सहयोग नहीं दिया। ब्रिटेन का मानना था कि चीन के अस्तित्व को तभी स्वीकार किया जाये जब चीन तिब्बत की स्वायत्ता स्वीकार करे।
- बल्लभ भाई पटेल (गृह मंत्री) के बाद कृष्ण मेनन भारत के रक्षा मंत्री बने। इनका झुकाव साम्यवाद की ओर या इसलिए चीन के संदर्भ में भी वह आशवादी और निश्चिंत थे। इस तरह नेहरू और कृष्णन मानने लगे कि चीन भारत पर कभी आक्रमण नहीं करेंगे।
- वर्ष 1954 में भारत, चीन व म्यामार द्वारा शांतिपूर्ण सह अस्तित्व के संबंध में पंचशील सिद्धांत को अपनाया। जिसमें यह कहा गया कि दोनों देश एक दूसरे की प्रभुसत्ता व प्रादेशिक अखंडता को स्वीकार करेंगे, एक दूसरे पर आक्रमण नहीं करेंगे।
- दूसरी तरफ चीन ने तिब्बत का कब्जा करने के दौरान तिब्बत से अरूणाचल प्रदेश और अक्साई चीन पर भी उसने अपना दावा करना प्रारंभ कर दिया।
- एक दूसरे के मामले में दखल न देंगे, समानता व आपसी लाभ के आधार पर शांतिपूर्ण सह अस्तित्व को बरकरार रखेंगे।
- यहाँ फिर से भारत से एक बड़ी चूक हुई। यह चूक थी कि नेहरू जी ने चीन के ऊपर बिल्कुल भी दबाव नहीं डाला कि वह मैकमोहन लाइन को स्वीकार करे। दरअसल मैकमोहन लाइन का मुद्दा उठाया ही नही गया।
- भारत ने कश्मीर के संदर्भ में चीन से यह स्वीकृति प्राप्त नहीं किया कि कश्मीर भारत का अभिन्न अंग है। दूसरी तरफ भारत ने तुरंत यह स्वीकार कर लिया कि तिब्बत चीन का हिस्सा है।
- यहां एक गलती यह भी हुई कि भारत ने इन सब मुद्दों में अमेरिका से दूरी बनाये रखा, जबकि अमेरिका को साथ लेकर चीन पर दबाव बनाया जा सकता था तो साथ ही रूस को नाराज होने से रोका जा सकता था।
- चीन के पड़ोस में एक और घटना घाटित हुई जिसने चीन के मनोबल को बढ़ाया। 1953 में स्टालिन की मौत के बाद सोवियत संघ का नेतृत्व खुश्चेव के पास आया। माओ, खुश्चेव को एक कमजोर शासक मानता था इसलिए उसने साम्यवादी नेतृत्वकर्ता के रूप में अपने को आगे बढ़ाने का प्रयास किया जिसके लिए चीन को अपनी मजबूती दिखाना था।
- 1959 में चीन ने अपना नया मैप जारी कर अक्साई-चीन को अपना हिस्सा बताया, जिस पर भारत ने आपत्ति दर्ज की।
- इसके बाद भारतीय में प्रधानमंत्री पर दबाव बढ़ने लगा कि वह चीन को नियंत्रित करें लेकिन प्रधानमंत्री एवं रक्षा मंत्री द्वारा कोई ठोस कदम नहीं उठाया गया।
- 1959 में ही दलाई लामा ने अपने लगभग 80,000 समर्थको के साथ भारत में शरण ली, फलस्वरूप चीन से मन-मुटाव और बढ़ गया।
भारत चीन संबंध नेहरू से मोदी तक (भाग 2)
आवश्यक सूचना- इस विषय को अच्छी तरह से समझने के लिए कृप्या भाग-1 का अध्ययन भाग-2 से पहले अवश्य करे लें।
- तिब्बत में चीन द्वारा किये जा रहे मानवाधिकार हनन के मुद्दे को एल- सेल्वाडोर के प्रतिनिधि ने संयुक्त राष्ट्र में उठाया तो कृष्ण मेनन ने यह दलील पेश की, कि चूंकि पेकिंग की सरकार संयुक्त राष्ट्र का सदस्य नहीं है इसलिए तिब्बत में मानवीय अधिकारों को कुचलने के लिए संयुक्त राष्ट्र उसे दोषी नहीं ठहरा सकता है। दरअसल भारत ने इस मुद्दे को तिब्बत एवं चीन का आंतरिक मुद्दा माना।
- भारत सरकार ने 1954 में चीन के साथ की गई अपनी संधि (पंचशील संधि) में पहली बार लिखित रूप में मान लिया कि तिब्बत चीन का स्वायत्त प्रदेश है। इसके बाद भारत ने तिब्बत में अपने दूतावास जो उस समय मिशन के नाम से जाने जाते थे, उसे बंद कर दिया।
- चीन यहां एक बार फिर एक चालाकी कर रहा था। वह एक तरफ भारत से रिश्ते बनाये रखा था, तिब्बत पर कब्जा करता जा रहा था तो साथ ही उसने भारत के तरफ भी अब प्रवेश करना प्रारंभ कर दिया था।
- 1950 के दशक के प्रारंभिक वर्षों में ही शिनजियांग प्रांत से लगे अक्साई चीन क्षेत्र में 179 किमी लंबी सड़क का निर्माण प्रारंभ कर दिया था। यह कराकोरम के दर्रे के समीप का क्षेत्र था, जहां भारतीय सैनिकों का बड़ी संख्या में पहुँचना आसान नहीं था।
- भारत को प्रारंभ में इसके विषय में जानकारी नहीं मिल पाई, लेकिन जब जानकारी मिली तब भी कोई कठोर कदम भारत की तरफ से नहीं उठाया गया।
- अगस्त 1959 के अंत में नेहरू ने राज्यसभा को बताया कि- ‘‘चीन में की गई एक घोषणा के अनुसार सिकियांग तिब्बत हाईवे का निर्माण 1957 में पूरा हो गया था।’’
- 5 सितंबर, 1959 को राष्ट्रपति डॉ- राजेंद्र प्रसाद ने प्रधानमंत्री को एक पत्र लिखा- ‘‘मेरा मानना है कि रक्षा तथा सुरक्षा के लिए व्यवस्थाएं करने हेतु एक योजना बनाई जानी चाहिए।’’ आगे राष्ट्रपति लिखते हैं- उत्तरी-पूर्वी सीमा को अंकित करने के लिए वहां कम से कम मैकमोहन रेखा तो है, परंतु वही दूसरी ओर लद्दाख क्षेत्र की सीमा अस्पष्ट है।
- 22 अप्रैल 1959 को संसद में एक सदस्य ने कहा कि कई अखबारों में खबर छपी है कि चीन ने हमारे 30 हजार वर्ग मीटर इलाके पर दावा कर दिया है तथा नक्शे में अक्साई चीन को चीनने अपने इलाके दिखाया है।
- जवाब में नेहरू ने कहा कि- ‘‘माननीय सदस्य हांगकांग या ऐसी ही अन्य जगहों से उत्पन्न हुई ऐसी खबरों पर ज्यादा ध्यान न दें। हमारे किसी क्षेत्र पर ऐसा कोई प्रत्यक्ष या अप्रत्यक्ष दावा नहीं किया गया है।’’
- मार्च 1959 में दलाई लामा शरण लेने के लिए भारत आये तो यहां उनका जोरदार स्वागत किया गया। माओत्से तुंग ने भारत पर तिब्बत में ल्हासा विद्रोह को भड़कने का आरोप लगाया, जिसके बाद संबंध अत्यंत तनावपूर्ण हो गये।
- दलाई लामा के भारत आने के बाद 1962 तक भारत-चीन के सैनिकों में कई हिंसक झड़पे हुईं-
- 25 अगस्त, 1959: लद्दाख में चीनी सैनिकों ने भारतीय चौकी पर हमला किया।
- 8 सितंबर, 1959: चीन ने मैकमोहन लाइन को स्वीकार करने से इनकार किया।
- 20 अक्टूबर, 1959: चीनी सैनिकों ने अकसाई चीन में गश्त कर रहे भारतीय सैनिकों पर हमला किया। भारत के 9 सैनिक शहीद हो गये।
- 7 नवंबर, 1959: चीन ने मैकमोहन लाइन के दोनों तरफ 20 किलोमीटर हटने का प्रस्ताव रखा।
- 25 अप्रैल, 1960: विवादित क्षेत्र पर भारत के दस्तावेजी साक्ष्यों को चीन ने खारिज किया।
- 3 जून, 1960: चीनी सैनिकों ने नेफा में भारतीय सीमा का उल्लंघन किया।
- 31 अक्टूबर, 1961: चीन ने सीमा पर गश्त में आक्रामकता दिखाई, भारत में सैन्य दस्ते भेजे।
- अप्रैल 1962: चीन ने अल्टिमेटम दिया, अग्रिम चौकियों से भारतीय सैनिकों को वापस लेने की मांग की।
- 10 जून, 1962: भारत और चीनी सैनिक लद्दाख में आमने-सामने, सशस्त्र संघर्ष टला।
- 13 सितंबर, 1962: चीन ने फिर सीमा के दोनों तरफ दोनों फौजों को 20-20 किलोमीटर वापस लौटने का प्रस्ताव रखा।
- 20 सितंबर, 1962: चीनी सैनिकों ने NEFA में मैकमोहन लाइन पार की, भारतीय चौकियों पर हमला।
- 29 सितंबर, 1962: चीनी सैनिकों ने नेफा में दूसरा हमला किया।
- दोनों देशों के मध्य युद्ध की शुरूआत 20 अक्टूबर 1962 को हुई। इस दिन चीन ने अपनी पूरी क्षमता के साथ लद्दाख में और नेफा (नार्थ इस्ट फ्रंटियर एजेंसी) में मैकमोहन को पार कर हमला कर दिया।
- इस घटना के बाद नेहरू ने राष्ट्र के नाम संबोधन में कहा कि- ‘‘चीनी फौज ने हमारे ऊपर हमला किया और हमोर मुल्क में घुस आये है।’’
- इस बीच चीनी लाई ने संघर्ष विराम करने और युद्ध रोकने की पेशकश की लेकिन वह अक्साई चीन पर अपना नियंत्रण बनाये रखना चाहता था।
- 27 अक्टूबर को नेहरू ने चीन के प्रस्ताव को खारिज कर दिया और कहा कि अक्सई चीन पर चीन दावा अवैध है।
- 26 अक्टूबर को देश में आपातकाल की घोषण कर दी गई।
- 31 अक्टूबर को नेहरू ने रक्षा विभाग अपने हाथ में ले लिया हालांकि मेनन कैबिनेट मे बने रहे।
- इस विषम परिस्थिति में नेहरू ने सेना का मनोबल बढ़ाकर और नेतृत्व कर के क्षति को कम करने का प्रयास किया लेकिन भारत के ऊपर थोपा गया युद्ध उस समय की भारतीय स्थिति में ठीक नही रहा।
- चीन ने जब आक्रमण किया तो भारत की थल सेनाओं को बिना अच्छे साजो सामान के साथ शीघ्रता में पहाड़ी क्षेत्रों पर चीनी सेनाओं के विरूद्ध मोर्चो पर भेज दिया गया।
- सीमा क्षेत्र में सड़कों एवं आवश्यक सुविधाओं का अभाव था, गोला- बारूद की कमी थी यहां तक की कई जगहों पर शीत ऋतु के कपड़ों की आपूर्ति भी नहीं की जा सकी थी ।
- अरूणाचल प्रदेश में सीमा के पास नूरानांग पुल था, जिसकी सुरक्षा के लिए भारतीय सेना तैनात थी। यदि इस पुल से सेना हटती तो चीन पूरे अरूणाचल प्रदेश में कब्जा कर सकता था। यहां चीनी सेना तेजी से आगे बढ़ रही थी इसलिए भारतीय सैनिकों की वहां जो बटालियन थी उसे वापस बुला लिया गया। लेकिन इस बटालियन के तीन सैनिक नहीं लौटे और चीन सेना को रोकते रहे।
- गोला-बारूद कम होता जा रहा था इसलिए इन तीन सैनिकों ने निर्णय लिया कि चीनी मशीनगन को छीनना है। इन्होंने अपनी जान जोखिम डालकर और साहस दिखते हुए ऐसा किया भी। इस तरह इन तीन सैनिकों ने चीन का सपना पूरा नहीं होने दिया।
- भारत ने बिना पूरी तैयारी के फारवर्ड की नीति को अपनाया अर्थात चीन को पीछे धकेलने का प्रयास किया। UN एवं अन्य शक्तियों को इसमें शामिल नहीं किया।
- चीनी आक्रमता से नेहरू स्तब्ध थे इसलिए बाद में अमेरिका एवं ब्रिटेन से मदद मांगी।
- 20 नवंबर 1962 को चीन ने एकतरफा युद्ध विराम की घोषणा कर दी लेकिन अक्साई चीन भारत के हाथ से जा चुका था।
- 1962 के युद्ध से प्रधानमंत्री जवाहर लाल नेहरू पर दबाव आया जिन्हें भारत पर चीनी की मंशा को समझने में असफल रहने वाले प्रधानमंत्री के रूप में देखा जाने लगा।
- नेहरू ने स्वयं स्वीकार किया कि भारतीय अपनी समझ की दुनिया में रह रहे थे, और हम आधुनिक दुनिया की सच्चाई से दूर रह रहे थे।
- जवाहर लाल नेहरू की आत्मकथा लिखने वाले एस गोपाल ने लिखा कि- चीजें इतनी बुरी तरह गलत हुईं कि अगर ऐसा वाकई में नहीं हुआ होता तो उन पर यकीन करना मुश्किल होता।
- चीन ने फायदा उठाते हुए अक्साई चीन पर नियंत्रण बनाये रखा वास्तविक नियंत्रण रेखा (LAC) तो बनी लेकिन वह भी अस्पष्ट थी।
- इन परिस्थितियों में राष्ट्रपति राधाकृष्णन ने कहा कि नेहरू की सरकार अपरिपक्व और तैयारी के संदर्भ में लापरवाह थी।
- समीक्षकों का मानना है कि इस लापरवाही के लिए सिर्फ नेहरू को जिम्मेदार नहीं ठहराया जा सकता था। इसमें दो और प्रमुख नाम जोड़े जाने चाहिए। पहला नाम कृष्ण मेनन का लिया जाता है जो 1957 से ही रक्षा मंत्री थे। कृष्ण मेनन का नाम नेहरू को चीन की वास्तविकता के परिचय न कराने के कारण के रूप में लिया जाता है, हालांकि कृष्ण मेनन खुद चीन के प्रति आति आशावादी थे। बढ़ते दबाव के कारण मेनन ने इस्तीफ दे दिया।
- दूसरा नाम इसमें लोफ्रिटनेंट जनरल बीएम कौल का लिया जाता है, जिनके पास बड़े युद्ध से निपटने की क्षमता अत्यंत कम थी। हिमालय की ऊँचाईयों पर कौल जब गंभीर रूप से बीमार पड़ गये तो उन्हें दिल्ली लाया गया और वह दिल्ली के अपने घर से ही युद्ध का संचाचन कर रहे थे।
- यहां पर यह भी स्पष्ट हो गया था कि भारत का खुफिया तंत्र कितना कमजोर और दिशाविहीन था जो को गंभीर चुनौती की पूर्व सूचना नहीं दे पाया।
- भारत ने यहां से जो सबक सीखा वह था अपने देश को हर क्षेत्र में मजबूत बनाना, हर परिस्थिति और संभावना के लिए तैयार रहना और सबसे बढ़कर नेहरू की हिंदी-चीनी भाई-भाई की विदेश नीति में परिवर्तन करना।
- 1962 की लड़ाई के बाद भारत और चीन दोनों ने एक दूसरे के यहां से अपने राजदूत वापस बुला लिये हालांकि बहुत सूक्ष्म स्तर पर दोनों देशों की राजधानियों में एक छोटा सा मिशन जरूर काम कर रहा था।
- भारत की चिंता अब जल्द से जल्द सीमा क्षेत्र में आधारभूत संरचना को मजबूत करने तथा सैन्य ताकत को बढ़ाने की थी।
- चीन द्वारा किये गये धोखेबाजी को पाकिस्तान ने भी अपनी रणनीति का हिस्सा बना लिया और एक गलतफहमी का शिकार हो गया कि भारतीय सेनाएं अत्यंत कमजोर हो चुकी हैं और उनका मनोबल टूट चुका है। इसी कारण 1965 में पाकिस्तान ने जम्मू- कश्मीर में घुसपैठ प्रारंभ कर दिया फलस्वरूप 1965 में भारत- पाकिस्तान युद्ध शुरू हो गया।
- इस युद्ध में भारतीय सेना ने पाकिस्तान के अंदर तक प्रवेश कर लिया और उसे घुटने टेकने पर मजबूर कर दिया। इस युद्ध ने भारतीय सेना और लोगों के मनोबल को बढ़ाया। टाइम मैगजीन ने उस समय लिखा कि इससे यह साफ हो गया है कि भारत अब दुनिया में नई ताकत बनकर उभर रहा है।
- इस युद्ध में जब भारत पाकिस्तान पर भारी पड़ने लगा तो पाकिस्तान के राष्ट्रपति अयूब खां ने चीन से भारत पर दबाव बनाने का अनुरोध किया।
- चीन ने पाकिस्तान की मदद करने के लिए भारत को एक तरह से अल्टीमेटम दिया कि वो सिक्किम की सीमा पर नाथु ला और जेलेप ला की सीमा चौकियों को खाली कर दे। इससे चीन के साथ चला आ रहा तनाव और भी बढ़ गया।
- भारत ने जैलेप ला दर्रा तो खाली कर दिया लेकिन नाथ ला पर भारत के कब्जा बनाये रखा। जेलेप ला आज भी चीन के कब्जे में हैं।
- नाथू ला दर्रा तिब्बत-सिक्किम सीमा पर है जिससे होकर पुराना गैंगटोक-यातुंग ल्हासा व्यापार मार्ग गुजरता है।
भारत चीन संबंध नेहरू से मोदी तक (भाग 3)
आवश्यक सूचना- इस विषय को अच्छी तरह से समझने के लिए कृप्या भाग-2 का अध्ययन भाग-3 से पहले अवश्य करे लें।
- 1965 के बाद से ही नाथू ला दोनों देशों के बीच तनाव का कारण बना रहा और 1967 तक जुबानी जंग और सैनिकों के मध्य धक्का- मुक्की आम बात हो गई थी।
- 6 सितंबर, 1967 को धक्का-मुक्की घटनाओं को रोकने के लिए नाथू ला से सेबू ला तक भारत ने तार बिछाने का निर्णय लिया। तार बिछाने के मुद्दे को लेकर तनाव बढ़ा, धक्का-मुक्की हुई और चीनी सैनिक पीछे होकर लौट गये। लेकिन वह हथियारों के साथ वापस लौटे और गोलियां बरसानी शुरू कर दीं, जिससे कई भारतीय सैनिक शहीद हो गये।
- भारत ने भी मजबूत जबाव दिया और तेज हमला करके न सिर्फ चीनी सैनिकों को बड़ी संख्या में हताहत किया बल्कि कई चीनी बंकरों को ध्वस्त कर दिया। एक अनुमान के अनुसार 300-350 चीनी सैनिक मारे गये। भारत की ओर से लगातार तीन दिन तक फायरिंग जारी रखी गई और चीन को इस बार मुंह की खानी पड़ी। यह 1967 की पहली लड़ाई थी।
- 1967 की दूसरी लड़ाई 1 अक्टूबर 1967 को हुई। इस बार चीन ने सितंबर माह के संघर्ष विराम को तोड़ते हुए हमला किया। चीन ने यह सोचकर हमला किया कि 13 हजार फुट ऊँचे चो ला पास पर ठंड अधिक होने के कारण भारतीय सैनिकों ने चौकियाँ हटा ली होंगी। चीन की सोच गलत थी और भारतीय सैनिकों ने पुनः चीन को न सिर्फ पीछे धकेल दिया बल्कि उसे यह बता दिया कि भारत अब हर तरह से तैयार है।
- इस युद्ध के विषय में बताया जाता है कि जब भारतीय सेना के जवानों की गोलियाँ खत्म हो गईं तो बहादुर अफसरों एवं जवानो ने टेंट एवं चौकी के सामान्य सामानों से कई चीनी सैनिकों को मौत के घाट उतार दिया।
- 1967 के यह दोनों सबक चीनी सैनिकों को भारतीय क्षेत्रों का अतिक्रमण करने से रोकते हैं ।
- 1967 की इन लड़ाइयों ने भारतीय सेना और लोगों के मनोबल को ऊँचा किया।
- 1967 के हार ने चीन की सुरपरमैन की छवि को जमींदोज कर दिया।
- 1967 की शिकस्त चीन कभी हजम नहीं कर पाया और वह कुछ ऐसा करना चाहता था जिससे वह अपनी श्रेष्ठता हासिल कर सके।
- 1975 में चीन ने अरुणाचल प्रदेश के तुलुंग ला में भारतीय सैनिकों पर हमला कर दिया जिसमें 4 सैनिक शहीद हो गये। यह वह अंतिम दौर था जब सीमा पर गोलीबारी हुई थी। इसके बाद हाल ही में कुछ दिन पूर्व चीन ने पैगोंत्सो झील के पास ऐसा किया।
- इस घटना के बाद से चीन यह समझ चुका था कि अब भारतीय रणनीति बदल चुकी है और अब भारत के साथ युद्ध या किसी तनाव में उसे भारी नुकसान हो सकता है। इन सब कारणों से चीन ने भारत के साथ अपने संबंधों को सुधारने का प्रयास किया ,फलस्वरूप दोनों देशों के मध्य जो राजनायिक संबंध समाप्त हुए थे वह 1976 में पुनः बहाल हुए।
- वर्ष 1978 में तवांग के उत्तर में फिर से तनाव बढ़ा। यहां PLA भारतीय सीमा पर खड़ी थी। भारतीय सेना ने ऑपरेशन फाल्कन तैयार किया, जिसका उद्देश्य तेजी से शरहद पर पहुंचना था, जिसके लिए हैवी लिफ्ट IM-26 हेलीकॉप्टर का इस्तेमाल किया गया । भारतीय सेना ने 1962 के युद्ध से सबक लेते हुए चीन सीमा से लगे पहाड़ी क्षेत्र पर कब्जा कर अपनी चौकियाँ स्थापित कर ली।
- इस बार भारत ने तत्परता दिखाते हुए लद्दाख के डेमचॉक और उत्तरी सिक्किम में T-72 टैंक भी उतार दिये।
- चीन के डिप्टी प्रीमियर डेंग शियाओपिंग ने भारत को चेतावनी दी कि यदि भारत पीछे नहीं हटता है तो सबक सीखाया जायेगा, लेकिन भारत पीछे नहीं हटा।
- मई 1987 में तत्कालीन विदेशमंत्री एनडी तिवारी ने चीन का दौरा किया, जिसके बाद तनाव थोडे कम हुए और अगले वर्ष 1988 में जब राजीव गांधी ने चीन का दौरा किया तो दोनों देशों ने सीमा तनाव कम करने की इच्छा व्यक्त की।
- राजीव गांधी का दौरा चीन के लिए भी महत्वपूर्ण था, क्योंकि ऐसा 34 साल बाद हुआ था जब किसी भारतीय प्रधानमंत्री ने चीन की यात्रा की थी।
- चीन की तरफ से यह कहा गया कि वह मानता है कि LAC पर बनने वाले तनाव को आपसी समझ से ही सुलझाया जा सकता है। इसलिए दोनों देश इस बात को लेकर राजी हुए कि शांति और मित्रता के माहौल में सीमा विवाद को सुलझाया जायेगा।
- यहां के बाद दोनों देशों के बीच का तनाव थोड़ा कम हुआ और व्यापार, संस्कृति, साइंस एंड टेक्नोलॉजी, एविएशन आदि क्षेत्रें में द्विपक्षीय सहयोग के करार हुए।
- वर्ष 1991 के दिसंबर में चीन के प्रधानमंत्री ली पेंग भारत दौरे पर आये इस दौरे पर पुनः दोनों देशों के बीच के सीमा विवाद को शांतिपूर्ण तरीके से ही हल करने की सहमती बनी।
- सितंबर 1993 में प्रधानमंत्री नरसिम्हा राव ने चीन का दौरा किया। इस दौरान सीमा तनाव को लेकर कई महत्वपूर्ण बिंदुओं पर सहमती बनी।
- 29 नवंबर 1996 को दोनों देशों ने इसी प्रकार का एक समझौता और किया था जिसमें कहा गया था कि दोनों ही पक्ष एक दूसरे के खिलाफ किसी ताकत का प्रयोग नहीं करेंगे या प्रयोग की धमकी नहीं देगें या श्रेष्ठता साबित करने का प्रयास नहीं करेगें।
- इस समझौते की धारा 6 में लिखा हैं LAC के 2 किमी- के दायरे में कोई भी पक्ष गोलाबारी, जैविक हथियार, हानिकारक केमिकल, बंदूको या विस्फोटकों से हमला नहीं करेगा।
- 1993 एवं 1996 में समझौते के प्रावधानों को वर्ष 2005 में पुनः स्वीकृति प्रदान की गयी।
- यह संधियाँ हथियारों के प्रयोग की अनुमति नहीं देता लेकिन यह नियम उस स्थिति में लागू नहीं होते है जब हमला सामने से हो।
- भारत ने एक और मोर्चे पर कार्य करना प्रारंभ किया, वह था अपने को परमाणु संपन्न राष्ट्र बनाना ताकि भारतीय सुरक्षा मजबूत हो सके। दरअसल चीन ने 1964 में एवं 1967 में परमाणु परीक्षण किया था, जिसके वजह से भारत की चिंताएं बढ़ गई थीं।
- भारत ने पहला परमाणु परीक्षण, मई 1974 में किया, जिसका कोड़ नाम स्माइंलिग बुद्धा था। इसके बाद से कई देशों द्वारा भारत पर अनेक प्रकार के तकनीकी प्रतिबंध लगा दिये गये।
- भारत ने अनेक प्रकार की चुनौतियों एवं अभावों के बावजूद अपना परमाणु कार्यक्रम जारी रखा और 2 मई 1998 पोखरण रेंज में फिर से भारत ने परमाणु परीक्षण किया। 11 और 13 मई, 1998 को पोखरण परमाणु स्थल पर पांच परमाणु परीक्षण किये। इसके बाद चीन, जापान, अमेरिका एवं अन्य देशों द्वारा भारत पर अनेक कड़े प्रतिबंध लगा दिये गये।
- 12 मई को चीनी विदेश मंत्रालय ने कहा कि- चीनी सरकार इस परमाणु परीक्षण से चिंतित है और यह परीक्षण वर्तमान अतर्राष्ट्रीय प्रवृत्ति के लिए तथा दक्षिण एशिया में शांति एवं स्थिरता के अनुकूल नहीं है।
- जून, 1999 में तत्कालीन विदेशमंत्री जसवंत सिंह ने चीन का दौरा किया और संबंधों को सामान्य करने का प्रयास किया।
- जनवरी 2002 में चीनी प्रधानमंत्री भारत आये।
- प्रधानमंत्री अटल बिहारी बाजपेयी ने 22 से 27 जून, 2003 के दौरान चीन का अधिकारिक दौरा किया। इस दौरान अटल बिहारी बाजपेयी ने राष्ट्रपति हू जिन्ताओ तथा प्रधानमंत्री वेन जियाबाओ से मुलाकात की।
- इस यात्रा के दौरान हुए समझौते कई दशकों का सबसे महत्वपूर्ण समझौता था। जिसमें समग्र द्विपक्षीय संबंधों को आगे बढ़ाने की बात की गई।
- अप्रैल 2005 में चीनी प्रधानमंत्री वेन जियाबाओं भारत की यात्रा पर आये तो नवंबर 2006 में चीनी राष्ट्रपति हू जिन्ताओ भारत दौरे पर आये।
- इन यात्राओं के दौरान मजबूत आर्थिक संबंधों को विकसित करने तथा सीमा विवादों के शांतिपूर्वक समाधान की बात कही गई।
- 13-15 जनवरी, 2008 को प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह चीन दौरे पर गये और दोनों देशों ने 21वीं सदी के लिए साझा दृष्टिकोण जारी किये। भारत गणराज्य तथा चीन जनवादी गणराज्य की 21वीं शताब्दी के लिए साझा विजन में अनेक अंतर्राष्ट्रीय तथा कुछ द्विपक्षीय मुद्दों पर साझे दृष्टिकोण को रेखांकित किया गया था।
- 15-17 सितंबर 2010 को चीनी प्रधानमंत्री वेन जियाबाओ ने भारत का दौरा किया तथा पुनः दोनों देशों के मध्य संबंध को मजबूत करने की बात दोहराई गई तथा 2015 तक द्विपक्षीय कारोबार को 100 अरब डॉलर तक पहुचाने का लक्ष्य रखा गया।
- वर्ष 2011 को चीन-भारत विनिमय वर्ष और 2012 को चीन-भारत मैत्री और सहयोग के वर्ष के रूप में मनाया गया।
- वर्ष 2014 में भारत के प्रधानमंत्री पद पर नरेंद्र मोदी आये। प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने अपने शपथ ग्रहण समारोह में सभी पड़ोसी राष्ट्राध्यक्षों को निमंत्रित किया। इसका उद्देश्य पड़ोसियों के साथ अपने संबंधों को मजबूत करना था।
- नरेंद्र मोदी के प्रधानमंत्री बनने के तीन दिन बाद चीनी राष्ट्रपति शी जिनपिंग भारत दौरे पर आये और उनका भव्य स्वागत अहमदाबाद में किया गया।
- जिनपिंग भारत की यात्रा पर ही थे कि खबर आई कि चीनी सैनिकों ने लद्दाख के चुमार और डेमचक में घुसपैठ शुरू कर दी है। चुमार में भारतीय इलाके से सड़क बनाने की भी बातें आई, जिसकी वजह से कई दिनों तक गतिरोध बना रहा। समीक्षकों के अनुसार भारत सरकार की तरफ से इस बार भी कोई कड़ी प्रतिक्रिया नहीं दी गई।
- चीनी राष्ट्रपति के वापस जाने के कई दिन बाद तक चीनी सेना चुमार में तंबू लगाये बैठी रही।
- कुछ अलोचक और समीक्षक यह भी कहते है कि प्रधानमंत्री मोदी की यह नीति चीन के प्रति तुष्टीकरण की शुरूआत थी।
- वर्ष 2015 में भारतीय प्रधानमंत्री चीन की यात्रा पर गये और वहां चीनी नागरिकों को इलैक्ट्रॉनिक पर्यटक वीजा देने की घोषण कर दी। जबकि इस घोषण से कुछ ही रोज पहले गृह मंत्रालय और खुफिया एजेंसियों ने सुरक्षा के दृष्टिकोण से चीनियों को इलेक्ट्रॉनिक वीजा न देने की बात कही थी।
- इस यात्रा के दौरान एक बड़ा कदम यह उठाया गया कि चीन का नाम ‘कंट्रीज ऑफ कंसर्न’ की सूची से हटा दिया गया। जिससे चीनी कंपनियों के निवेश में अत्यधिक तेजी आई।
- भारतीय नेताओं के इन प्रयासों के बावजूद चीन ने भारतीय क्षेत्र के अतिक्रमण की गतिविधियों को नहीं रोका और न ही भारतीय कूटनीतिक लक्ष्यों में अडंगा लगाना बंद किया।
- वर्ष 2016 में भारत ने वैश्विक संगठन-परमाणु आपूर्तिकर्ता समूह (NSG) की सदस्यता पाने के लिए आवेदन किया, लेकिन चीन ने वीटो पावर का प्रयोग कर दिया जिससे भारत सदस्य न बन सका। जबकि अमेरिका, ब्रिटेन, फ्रांस, रूस एवं जर्मनी इसके लिए तैयार थे।
- वर्ष 2017 में दोनों देशों के संबंध पुनः तनावपूर्ण हो गये जब डोकलाम विवाद बढ़ा।
- डोकलाम एक पठार है जो भूटान के हा-घाटी, भारत के पूर्व सिक्किम जिला और चीन के यदोंग काउंटी के बीच एक ट्राई- जंक्शन (तिराहा) है जहां भारत, चीन एवं भूटान की सीमा लगती है।
- यह नाथू ला पास से मात्र 15 किमी- की दूरी पर है, जिसे भारत भूटान का हिस्सा मानता है जबकि चीन उसे अपने क्षेत्र के रूप में बताता है।
- साल 1968 और 1998 में चीन भूटान के बीच समझौता हुआ था कि दोनों देश डोकलाम में शांति बनाये रखने की दिशा में काम करेंगे। लेकिन चीन ने इस समझौते का कभी मजबूती से पालन नहीं किया और भूटान के क्षेत्र का अतिक्रमण करता रहा।
- वर्ष 2017 में जून माह में पहली बार बड़ी तैयारी के तहत डोकलाम में भूटान आर्मी शिविर की ओर एक सपाट सड़क का निर्माण प्रारंभ किया। भूटान की सेना सेना अकेले PLA को रोकने में सक्षम नहीं थी। फलस्वरूप 300 भारतीय सैनिकों ने चीन को (PLA को) सड़क बनाने से रोक दिया।
- भारत और भूटान के बीच वर्ष 1949 में एक संधि हुई थी कि भूटान की विदेशनीति और रक्षा मामलों का मागदर्शन भारत करेगा। इसमें भूटान की जिम्मेदारी भारत पर बताई गई है।
- भारत और भूटान के बीच वर्ष 2007 में एक और सैन्य सहयोग पर करार हुआ था। इस करार के अनुच्छेद-2 में कहा गया है कि- ‘‘भूटान और भारत के घनिष्ठ दोस्ती और सहयोग के संबंधों को ध्यान में रखते हुए, भूटान और भारत सरकार अपने राष्ट्रीय हितों से संबंधित मुद्दों पर एक दूसरे का सहयोग करेंगी।’’
- चुम्बी घाटी में स्थित डोकलाम भारत के लिए भी सामरिक दृष्टि से महत्वपूर्ण हैं । यहां पर यदि चीन सड़क बना लेता तो भारत की रक्षा और सुरक्षा के दृष्टिकोण से भी यह ठीक नहीं होता।
- चीन यहां से सिलीगुड़ी कोरिडोर युद्ध के समय पर कब्जा पर भारत की पहुंच पूर्वोत्तर में बाधित कर सकता था।
- चीन अगर डोकलाम में अपनी तोपें तैयार कर देता तो चिकन नेक के साथ-साथ पश्चिम बंगाल, सिक्किम एवं अन्य पूर्वोत्तर क्षेत्र में वह नुकसान पहुँचा सकता था।
- डोकलाम विवाद बहुत बढ़ गया। जिसकी वजह से यहां 70 दिन तक गतिरोध बना रहा। विवाद तभी हुआ जब 28 अगस्त को दोनों देशों की सेनायें वापस लौट गई और 16 जून के पहले की स्थिति बहाल हो गई।
- यह भारत की महत्वपूर्ण कूटनीतिक और रणनीतिक जीत थी। इससे क्षेत्रीय शांति एवं सुरक्षा सुनिश्चित हुई तो भारत का कद भी बढ़ा।