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Blog / 25 Apr 2019

(आर्थिक मुद्दे) राजनीतिक घोसणापत्र और समावेशी विकास (Political Manifesto and Inclusive Development)

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(आर्थिक मुद्दे) राजनीतिक घोसणापत्र और समावेशी विकास (Political Manifesto and Inclusive Development)


एंकर (Anchor): आलोक पुराणिक (आर्थिक मामलो के जानकार)

अतिथि (Guest): हरवीर सिंह (संपादक, आऊटलुक हिंदी), राजीव रंजन (वरिष्ठ आर्थिक पत्रकार)

क्या है समावेशी विकास?

एक ऐसी अवधारणा जिसमे सामाजिक, आर्थिक, राजनीतिक और सांस्कृतिक वृद्धि के दौरान समाज के हर वर्ग को इसका लाभ व समान अवसर मिले।

यूएनडीपी ने समावेशी विकास को "एक ऐसे प्रक्रिया और परिणाम के रूप में परिभाषित किया है जहां सभी वर्गों की विकास में भागीदारी हो और सभी लोग इससे समान रूप से लाभान्वित हुए हों"। ऑक्सफैम के अनुसार समावेशी विकास गरीब केंद्रित एक दृष्टिकोण है जिसमें विकासात्मक मुद्दों के हल में शामिल सभी हित धारकों को समाहित किया जाता है. इन हित धारकों में समाज का वंचित वर्ग भी शामिल होता है। इसके कारण पारदर्शिता और जवाबदेही को बढ़ावा मिलता है और नागरिक समाज, सरकार और निजी क्षेत्र के बीच सहयोग के माध्यम से विकास की प्रक्रिया को अंजाम दिया जाता है। समावेशी विकास के कई परस्पर संबंधित अवयव हैं: जैसे

  • गरीबी घटाना
  • रोजगार सृजन और रोजगार की मात्रा और गुणवत्ता में वृद्धि।
  • कृषि विकास
  • औद्योगिक विकास
  • सामाजिक क्षेत्र का विकास
  • क्षेत्रीय विषमताओं में कमी
  • पर्यावरण सुरक्षा।
  • आय का समान वितरण

भारत में समावेशी विकास

भारत में सर्प्रथम समावेशी विकास की अवधारणा ग्यारहवीं पंचवर्षीय योजना के मसौदे में पेश की गई थी जिसमें समाज के सभी वर्गों के लोगों के जीवन स्तर को बेहतर बनाने और समान अवसर उपलब्ध करने की बात कही गई थी। इसके बाद 12वीं पंचवर्षीय योजना के मसौदे में इसको और व्यापक बनाया गया जिसमें ग़रीबी को कम करने, स्वास्थ्य और शिक्षा सुविधाओं में सुधार और रोज़गार के अवसर उपलब्ध कराने जैसी बातों पर खास जोर दिया गया।

इसके लिए सरकार ने कई योजनाएं चलाई है जिनमें दीन दयाल उपाध्याय अंत्योदय योजना, मनरेगा, समेकित बाल विकास योजना, मिड डे मील, स्कूली शिक्षा और साक्षरता, सर्व शिक्षा अभियान, जेएनएनयूआरएम, त्वरित सिंचाई लाभ कार्यक्रम और राष्ट्रीय कृषि विकास योजना शामिल हैं।

व्यापारिक स्तर पर समावेशन

विश्व बैंक द्वारा जारी होने वाले इज ऑफ़ डूइंग बिज़नेस इंडेक्स में 2018 में भारत 190 देशों में 77वें रैंक पर रहा। सरकार ने इस दिशा में बेहतर प्रदर्शन करते हुए चार सालों में भारत को 57 रैंक ऊपर पहुँचाया है। इस सूचकांक के ज़रिये विभिन्न देशों में व्यापार करने की सुविधाओं के बारे में जानकारी दी जाती है। इससे व्यापार के प्रति सरकारी अधिकारियों, वकीलों, बिज़नेस कंसल्टेंट्स इत्यादि का भी रुख पता चलता है। कारोबार शुरू करना, निर्माण अनुमति, बिजली सप्लाई, संपत्ति का रजिस्ट्रेशन, क़र्ज़ की उपलब्धता, निवेशकों की सुरक्षा, टैक्स अदायगी, सीमा पर व्यापार, कॉन्ट्रैक्ट्स का पालन, दिवालियेपन से उबरने की क्षमता जैसे आधारों पर इस सूचकांक में किसी देश की रैंकिंग निर्भर करती है।

हालाँकि इस सूचकांक को लेकर कुछ विवाद भी होता रहता है क्योंकि यह व्यापार सुगमता के लिये केवल सरकारी प्रयासों को ही आधार बनाता है, जबकि इसके अलावा कई ऐसे फैक्टर्स हैं जिन पर कारोबार की सुगमता निर्भर करती है, मसलन उत्पादकों को मिलने वाली सेवाएँ, बिजली के साथ पानी की उपलब्धता और कचरा प्रबंधन।

मानव संसाधन विकास में समावेशन

संयुक्त राष्ट्र विकास कार्यक्रम यानी UNDP द्वारा जारी किये जाने वाले मानव विकास सूचकांक यानी HDI में भारत कोई खास प्रगति नहीं कर पाया है। साल 2014 में भारत का रैंक 130 था और साल 2018 में भी यह 130 ही है। जबकि भारत हालिया वर्षों में सबसे तेजी से विकास करने वाली अर्थव्यवस्था है। इससे एक बात तो साफ है कि किसी भी देश की अर्थव्यवस्था मानव संसाधनों के मामले में उल्लेखनीय वृद्धि प्राप्त किये बिना भी तेजी से विकास कर सकती है।

आपको बता दें कि HDI को पाकिस्तानी अर्थशास्त्री महबूब उल हक एवं भारतीय अर्थशास्त्री अमर्त्य सेन ने मिलकर विकसित किया है। इसमें पर कैपिटा इनकम, स्वास्थ्य एवं स्कूली शिक्षा के आधार पर विभिन्न देशों को रैंकिंग दी जाती है। लेकिन इस इंडेक्स की एक ख़ामी यह है कि इसमें विकास की जानकारी तो मिलती है, लेकिन उस विकास की गुणवत्ता के बारे में इसमें कुछ नहीं बताया जाता। मसलन केवल यह देखा जाना कि स्कूल में कितने विद्यार्थी हैं, काफी नहीं है; इसके साथ यह भी जरूरी है कि उन्हें मिलने वाली तालीम की गुणवत्ता का स्तर कैसा है।

पर्यावरण एवं पारिस्थितिकी के स्तर पर समावेशन

पर्यावरण प्रदर्शन सूचकांक में 2018 में भारत को 180 देशों में 177वाँ रैंक मिला जबकि 2014 में भारत 180 देशों में 155वें पायदान पर था। यानी पर्यावरण के मामले में भारत सबसे खराब प्रदर्शन करने वाले देशों में से एक है।

यह इंडेक्स वर्ल्ड इकोनोमिक फोरम, येल यूनिवर्सिटी और कोलंबिया यूनिवर्सिटी द्वारा संयुक्त रूप से ज़ारी किया जाता है। इस सूचकांक में 24 संकेतकों के आधार पर रैंकिंग दी जाती है जिसमे पर्यावरण स्वास्थ्य, पारिस्थितिक तंत्रों की विविधता, हवा की गुणवत्ता, पेयजल और स्वच्छता, कृषि, जैवविविधता और बायो-हैबिटाट, जलवायु एवं ऊर्जा प्रमुख हैं।

ग़ौरतलब है कि साल 2018 में कोस्टल रेगुलेशन जोन नोटिफिकेशन के ज़रिये तटीय आर्थिक क्षेत्र में उन स्थानों को भी निर्माण एवं पर्यटन के लिये खोल दिया गया है जिन्हें पहले पवित्र और इको सेंसिटिव माना जाता था।

भारत में भ्रष्टाचार और समावेशी विकास

भ्रष्टाचार समावेशी विकास की राह में एक बड़ा रोड़ा है। भ्रष्टाचार वो बिमारी है जो समावेशी विकास के बजाय अमीरों को और अमीर बनाने और गरीबों को गरीब बनाए रखने का काम करती है।

हाल ही में अंतर्राष्ट्रीय गैर-सरकारी संगठन ट्रांसपेरेंसी इंटरनेशनल ने करप्शन परसेप्शन इंडेक्स-2018 जारी किया था। ट्रांसपेरेंसी इंटरनेशनल द्वारा जारी इस सूचकांक के अनुसार, भारत भ्रष्टाचार के मामले में 180 देशों की सूची में 78वें स्थान पर है। ग़ौरतलब है कि साल 2017 में भारत इस सूचकांक में 81वें पायदान पर था। इस सूचकांक के अनुसार, भ्रष्टाचार के क्षेत्र में भारत की स्थिति में सुधार हुआ है, लेकिन अभी भी काफी कुछ किया जाना शेष है।

वित्तीय समावेशन

वित्तीय समावेशन लोगों और अर्थव्यवस्था से जुड़ी वित्तीय मुख्यधारा के बीच कड़ी मुहैया कराकर वित्तीय अभाव को दूर करता है। इसके अलावा, यह निम्न आय वर्ग वाले लोगों को संगठित बैंकिंग क्षेत्र के दायरे में लाकर उनकी संपत्तियों और अन्य संसाधनों की जरूरी परिस्थितियों में सुरक्षा करता है। वित्तीय समावेशन सरकारी सिस्टम में क़र्ज़ की उपलब्धता को आसान बनाकर कमजोर समूहों को शोषण से भी बचाता है। वित्तीय समावेशन की दिशा में सरकार द्वारा कई कदम उठाये गए हैं जिनमे मोबाइल बैंकिंग का विस्तार, बैंकिंग कॉरस्पॉन्डेट योजना, प्रधानमंत्री जन धन योजना, प्रधानमंत्री मुद्रा योजना और वरिष्ठ पेंशन बीमा योजना अहम् हैं।

अगर वित्तीय समावेशन नहीं हुआ तो क्या होगा?

किसी भी देश में वित्तीय समावेशन का न होना वहां के समाज और व्यक्ति दोनों के लिये हानिकारक होता है। जहाँ तक व्यक्ति का सवाल है, वित्तीय समावेशन के अभाव में, बैंकिंग सुविधा से वंचित लोग इनफॉर्मल बैंकिंग क्षेत्र से जुड़ने के लिये मज़बूर हो जाते हैं, जहाँ ब्याज दरें मनमानी और अधिक होती हैं और प्राप्त होने वाली राशि काफी कम होती है।

समाज के कई तबके विकास की दौड़ में पीछे छूट सकते हैं और इससे अराजकता, अपराध या बिमारी जैसी कई अन्य समस्याएं भी पैदा हो सकती हैं। इससे समूचे राष्ट्र के अस्तित्व पर खतरा पैदा हो सकता है। नक्सलवाद इसका एक ज्वलंत उदाहरण है। साथ ही नैतिक और तार्किक आधार पर भी वित्तीय समावेशन ज़रूरी है।

चूँकि इनफॉर्मल बैंकिंग ढाँचा कानूनके दायरे से बाहर होता है, ऐसे में, उधार देने वालों और उधार लेने वालों के बीच किसी भी विवाद की दशा में इसका कानूनन निपटान करना मुश्किल होता है।

वित्तीय समावेशन और महिलाएं

ग़ौरतलब है कि विश्व की कुल जनसंख्या में आधी जनसंख्या महिलाओं की है। वे कार्यकारी घंटों में दो-तिहाई का योगदान करती हैं, लेकिन उन्हें विश्व संपत्ति में सौवें से भी कम हिस्सा प्राप्त है। विश्व भर में लगभग 76 करोड़ व्यक्ति प्रतिदिन 1-9 अमेरिकी डॉलर या इससे कम में अपना जीवन व्यतीत कर रहे हैं। इनमें एक बड़ा हिस्सा महिलाओं का भी है, इसलिये यह कहा जा सकता है कि गरीबी का महिलाकरण हो गया है।

साल 2011-17 के दौरान 15 साल के ऊपर की 77 फीसदी महिलाओं के पास बैंक खाता था। ग्लोबल फिन्डेक्श 2017 के सर्वेक्षण के अनुसार इन आँकड़ों में 2011 के पश्चात् 51 फीसदी बढ़ोत्तरी हुई। इस बढ़ोत्तरी की मुख्य वजह मौजूदा सरकार द्वारा शुरू की गई देश व्यापी योजना प्रधानमंत्री जनधन योजना है, जिसका मक़सद देश के सभी नागरिकों को बैंकिंग सुविधाओं से जोड़ना है। यह डायरेक्ट बेनिफिट ट्रांसफर जैसे सेवाओं को जरूरी बनाता है और विभिन्न सामाजिक सुरक्षा तथा बीमा योजनाओं से भी जुड़ा है।

सरकार ने स्टार्ट-अप इंडिया, स्टैंड-अप इंडिया, महिला एवं बाल विकास मंत्रालय द्वारा संचालित Support to Training and Employment Programme for Women यानी STEP, ट्रेड रिलेटेड एंटरप्रेन्योरशिप असिस्टैंस एंड डेवलपमेंट स्कीम फॉर वीमेन यानी TREAD योजना, प्रधानमंत्री कौशल विकास योजना और महिला उद्यमिता मंच जैसे कदम उठाये हैं। इसके बावजूद ग्लोबल फिन्डेक्श रिपोर्ट में महिलाओं के वित्तीय समावेशन के भागीदारी पर चिंता व्यक्त की गई है। दरअसल इन चिंताओं के मूल में महिलाओं के वित्तीय समावेशन को लेकर आ रही चुनौतियाँ है।

वित्तीय समावेशन और दिव्यांग

निःशक्तता या विकलांग व्यक्ति (समान अवसर, अधिकारों का संरक्षण और पूर्ण भागीदारी) अधिनियम, 1995 की धारा 2(N), के अनुसार किसी चिकित्सा प्राधिकारी द्वारा प्रमाणित किसी विकलांगता से न्यूनतम 40 प्रतिशत पीडि़त व्यक्ति को विकलांग व्यक्ति माना जाता है।

भारतीय सामाजिक विकास रिपोर्ट तथा जनगणना 2011 के अनुसार भारत में 26.8 मिलियन व्यक्ति दिव्यांग हैं जो भारत की कुल जनसंख्या का 2.21 प्रतिशत है, जबकि विश्व बैंक के अनुसार, भारत में लगभग 4.8 प्रतिशत लोग दिव्यांग हैं। भारत में कुल दिव्यांगों में से 56 प्रतिशत पुरुष हैं। 70 प्रतिशत दिव्यांग ग्रामीण पृष्ठभूमि के हैं। जनसंख्या के अनुपात के आधार पर सबसे अधिक दिव्यांग सिक्किम, ओडिशा, जम्मू-कश्मीर तथा लक्षद्वीप में पाए गए जबकि जनसंख्या में दिव्यांगों का सबसे कम अनुपात तमिलनाडु, असम व दिल्ली में पाया गया। इस रिपोर्ट के अनुसार, भारत में लगभग 45 प्रतिशत दिव्यांग निरक्षर हैं। आश्चर्य की बात यह है कि केरल जो कि शत-प्रतिशत साक्षर राज्य है, वहां पर भी 33.1 प्रतिशत दिव्यांग निरक्षर पाए गए।

दिव्यांगता से निपटने के लिए और उनके समावेशन के लिए सरकार ने अनेक महत्वपूर्ण कदम उठायें हैं- जैसे निःशक्तता या विकलांग व्यक्ति (समान अवसर, अधिकारों का संरक्षण और पूर्ण भागीदारी) अधिनियम, 1995; कल्याणार्थ राष्ट्रीय न्यास अधिनियम, 1999; विकलांग व्यक्ति अधिनियम 1995 के कार्यान्वयन के लिए योजना (सिपडा); सुगम्य भारत अभियान; यूडीआईडी कार्ड; छात्रवृत्ति योजना, स्वावलंब योजना, दिव्यांगजनों के कल्याण और सशत्तिकरण हेतु विभाग, दिव्यांगजन अधिकार अधिनियम, 2016 और दिव्यांगजन अधिकार नियम, 2017।

वित्तीय समावेशन और किसान

भारत में लगभग आधी आबादी, प्रत्यक्ष व अप्रत्यक्ष रूप से अभी भी कृषि पर निर्भर है और विडम्बना यह है कि कृषि लम्बे समय से घाटे का सौदा रहा है, जिससे किसानों की आय काफी कम है। बड़े पैमाने पर क़र्ज़ में दबे किसानों की आत्महत्या की घटना भी देखने को मिलती है। जो यह इशारा करता है कि किसान भी वंचित वर्ग में है और उसका भी समावेशन ज़रूरी है। सरकार ने 2022 तक किसानों की आय को दोगुना करके 100 डॉलर प्रतिमाह करने का वादा किया था किन्तु वर्तमान में किसानों की आय लगभग 50 डॉलर प्रतिमाह ही है।

किसानों की स्थिति बेहतर बनाने के लिए और उनके वित्तीय समावेशन के लिए सरकार ने कई अहम् कदम उठाये हैं, जिनमें मृदा स्वास्थ्य कार्ड योजना, नीम कोटेड यूरिया, प्रधानमंत्री कृषि सिचाई योजना, परम्परागत कृषि विकास योजना, राष्ट्रीय कृषि बाजार योजना (ई-एनएएम), प्रधानमंत्री फसल बीमा योजना, राष्ट्रीय खाद्य सुरक्षा मिशन, एकीकृत बागवानी विकास मिशन, तिलहन एवं तेल ताड़ पर राष्ट्रीय मिशन, राष्ट्रीय सतत कृषि मिशन, राष्ट्रीय कृषि विस्तार और प्रौद्योगिकी मिशन और राष्ट्रीय कृषि विकास योजना शामिल है। इसके अलावा, न्यूनतम समर्थन मूल्य, वृक्षारोपण (हर मेड़ पर पेड), मधुमक्खी पालन, डेयरी और मत्स्य पालन से संबंधित योजनाएं भी लागू की जाती हैं।

समावेशी विकास, आर्थिक असमानता और बेरोज़गारी

भारत के विकास को लेकर अमेरिकी अर्थशास्त्री और नोबेल पुरस्कार विजेता पॉल क्रुगमैन का कहना है कि आर्थिक मोर्चे पर भारत ने तेजी से प्रगति की है, लेकिन देश में कायम आर्थिक असमानता एक बड़ा मुद्दा है। एक विश्लेषण से पता चलता है कि 2013 से 2016 के दौरान गिन्नी गुणांक में 15 प्रतिशत की वृद्धि हुई है।

गिनी गुणांक के ज़रिये समाज में व्याप्त आय एवं सम्पत्ति के असमान वितरण का मापन किया जाता है। यदि गिनी गुणांक का मान ‘शून्य’ है, तो समाज में आय वितरण समान माना जाता है और यदि गिनी गुणांक का मान 1 है, तो इसका मतलब है कि समाज में आय वितरण में काफी असमानता व्याप्त है।

अंतर्राष्ट्रीय श्रम संगठन द्वारा ज़ारी इंडिया वेज रिपोर्ट: वेज पॉलिसीज़ फॉर डिसेंट वर्क एंड इंक्लूसिव ग्रोथ में बताया गया है कि भारत में पिछले दो दशकों में सालाना 7% की औसत जीडीपी दर होने के बावज़ूद वेतन में कमी और असमानता की स्थिति बनी हुई है।

इसके अलावा लगातार बढ़ रही बेरोजगारी भारत के विकास की राह में बाधक बन सकती है। एक रिपोर्ट के मुताबिक़ भारत में हर साल तक़रीबन सवा करोड़ शिक्षित युवा तैयार होते हैं। ये नौजवान रोज़गार के लिये सरकारी और निजी क्षेत्रों में राह तलाशते हैं, लेकिन रोज़गार के पर्याप्त अवसर के अभाव में एक बड़ा वर्ग बेरोज़गारी का जीवन जी रहा है या अपनी योग्यता के अनुसार उपयुक्त नौकरी नहीं पाता है।

निष्कर्ष

उक्त के अलावा समाज के कई अन्य संवेदनशील वर्ग जैसे कि वरिष्ठ नागरिक, अनुसूचित जाति, अनुसूचित जन-जाति, श्रमिक वर्ग और अल्पसंख्यक वर्ग के लिए किये जा रहे तमाम प्रयासों के बावजूद काफी कुछ किये जाने की ज़रूरत है।

अगर कुछ आंकड़ों पर नज़र डालें तो हम पाते हैं कि भारत साल 2018 में वैश्विक भूख सूचकांक यानि ग्लोबल हंगर इंडेक्स में 119 देशों की सूची में 103वें नंबर पर आया था, वहीं स्वास्थ्य सुविधाओं के मामले में भारत 195 देशों की सूची में 145वें पायदान पर है। इन सब आंकड़ों से देश के लोगों का औसत जीवन स्तर ज़ाहिर होता है, और शायद इसीलिए समावेशी विकास की दिशा में और काम किये जाने की ज़रूरत है।