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Blog / 13 Mar 2019

(आर्थिक मुद्दे) कृषि : समस्याएं और समाधान (Agriculture : Problems and Solutions)

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(आर्थिक मुद्दे) कृषि : समस्याएं और समाधान (Agriculture : Problems and Solutions)


एंकर (Anchor): आलोक पुराणिक (आर्थिक मामलो के जानकार)

अतिथि (Guest): हरवीर सिंह (वरिष्ठ आर्थिक पत्रकार), स्कंद विवेक (आर्थिक पत्रकार)

"भारत गांवों में बसता है और कृषि भारतीय अर्थव्यवस्था की आत्मा है" - महात्मा गांधी

चर्चा में क्यों?

खराब फसल उत्पादकता और अनियमित मानसून के कारण किसान क़र्ज़ लेने के लिए मज़बूर हैं और फिर वे इसके बोझ से दबते चले जाते हैं। हाल ही में, तीन राज्यों - छत्तीसगढ़, मध्यप्रदेश और राजस्थान - में नयी सरकार के गठन के बाद वहां के किसानों के क़र्ज़ माफ़ी की घोषणा की गई। इसके बाद कुछ विशेषज्ञों ने सवाल उठाये कि क़र्ज़ माफ़ी के बजाय किसानों की मूल समस्या पर ध्यान दिया जाए तो परिणाम ज़्यादा बेहतर होंगे।

केंद्र सरकार ने भी भारी संकट झेल रहे किसानों को राहत प्रदान करने के लिए अंतरिम बजट 2019-2020 के ज़रिये प्रधानमंत्री किसान सम्मान निधि योजना को लॉन्च किया है। इस योजना से देश के 12 करोड़ से अधिक किसानों को फायदा मिलने की उम्मीद है। इसके तहत किसानों को 6,000 रुपये की सालाना गारंटीड आय देने की योजना है।

ये सारी घोषणाएँ ऐसे समय में हुई हैं जब चुनाव नज़दीक है। इस प्रकार, यह मुद्दा सामाजिक-राजनीतिक रूप से महत्वपूर्ण हो गया है। साथ ही, इससे प्रतिस्पर्धी लोकलुभावनवाद की प्रवृत्ति भी बढ़ रही है यानी धीरे-धीरे अन्य सरकारें भी इसी तरह के कदम उठा सकती हैं। लिहाज़ा किसानों की मूल समस्या गौड़ होने की संभावना बढ़ गयी है।

कृषि पर ध्यान देने की जरूरत क्यों है?

भारत में, कृषि आजीविका प्रदान करने और खाद्य सुरक्षा सुनिश्चित करने में अहम् भूमिका निभाती है। साथ ही, खेती गरीबी को कम करने और विकास को सतत बनाए रखने के लिहाज़ से भी महत्वपूर्ण है मसलन नक्सलवाद और पलायन।

कृषि का सकल घरेलू उत्पाद में 16 प्रतिशत का और रोजगार में 49 प्रतिशत का हिस्सा है। ऐसे में, खराब कृषि प्रदर्शन से महंगाई, किसानों से जुड़े संकट और राजनीतिक-सामाजिक असन्तोष पैदा हो सकता है। साथ ही, कृषि में उत्पादकता बढ़ने से अर्थव्यवस्था के अन्य उत्पादक क्षेत्रों को गति देने में मदद मिलेगी।

भारत में कृषि पैटर्न

मुख्य रूप से तीन प्रकार के फसल उगाये जाते हैं:

(1) खरीफ: दक्षिण पश्चिम या ग्रीष्म मानसून के दौरान जुलाई से अक्टूबर तक फसल का मौसम। चावल, कपास, मक्का, बाजरा, अरहर, सोयाबीन, मूंगफली, जूट आदि इस मौसम में उगाए जाते हैं।
(2) रबी: उत्तर पूर्व में मॉनसून की वापसी के दौरान अक्टूबर से मार्च तक का मौसम। गेहूं, जौ, जई, सरसों आदि इस मौसम में उगाई जाने वाली प्रमुख फसलें हैं।
(3) ज़ायद: मार्च और जून के बीच फसल का मौसम। तरबूज और चावल इस मौसम में उगाए जाते हैं।

भारत में कौन जिम्मेदार है कृषि विकास के लिए?

भारत में, कृषि मंत्रालय के अंतर्गत कृषि एवं सहकारिता विभाग कृषि क्षेत्र के विकास के लिए जिम्मेदार है। यह अन्य संबद्ध कृषि क्षेत्रों को विकसित करने के लिए कई अन्य निकायों जैसे राष्ट्रीय डेयरी विकास बोर्ड (NDDB) का भी प्रबंधन करता है।

भारतीय कृषि का इतिहास

भारत में सिंधु घाटी सभ्यता के समय से ही खेती के प्रमाण मिलते हैं। दक्षिण भारत के कुछ हिस्सों में तो हड़प्पा सभ्यता से भी पहले खेती करने के साक्ष्य मिलते हैं। समय बीता, सभ्यताएं बदलीं, शासक बदले और नए नगर बसे लेकिन भारत में खेती का अपना महत्व बना रहा।

परंपरागत रूप से, भारत में अंग्रेजों के आने से पहले, भूमि के निजी स्वामित्व की प्रथा बहुत प्रचलन में नहीं थी। आमतौर पर गाओं में सामूहिक रूप से खेती की जाती थी। टोडर मल द्वारा अकबर के शासनकाल के दौरान एक उचित भूमि राजस्व व्यवस्था शुरू की गई थी। इस व्यवस्था के तहत, पहले भूमि को मापा जाता था और गुणवत्ता के अनुसार इसे वर्गीकृत किया जाता था। और फिर उसके अनुसार राजस्व तय किया जाता था। जब सत्ता अंग्रेजों के हाथ आई, तो भूमि के मालिकाना हक़ के पैटर्न में बदलाव देखा गया।

ब्रिटिश शासन ने सबसे ज़्यादा किया कृषि का सत्यानाश

ब्रिटिश शासन के दौरान भी भारत की अर्थव्यवस्था मूलभूत रूप से कृषि प्रधान रही थी। देश की लगभग 85 प्रतिशत आबादी ज्यादातर गांवों में निवास करती थी और अपनी आजीविका के लिए प्रत्यक्ष या अप्रत्यक्ष रूप से कृषि पर निर्भर थी। इन तमाम तथ्यों के बावजूद, कृषि विकास में ठहराव और वाज़िब प्रगति न होने का ही अनुभव रहा।

भू-राजस्व वसूली के लिए अंग्रेजी सरकार द्वारा लायी गई ज़मींदारी व्यवस्था और पट्टेदारी व्यवस्था ने कृषि विकास को एकदम ठप्प सा कर दिया था। इसके अलावा कृषि का वाणिज्यीकरण, निवेश और कल्याणकारी उपायों की उपेक्षा और जानलेवा कर उगाही जैसे कदमों ने भारतीय कृषि का सत्यानाश ही कर दिया।

आज़ादी के बाद कृषि सुधार के लिए कौन-कौन से बड़े कदम उठाये गए?

  • जमींदारी प्रथा को समाप्त करना
  • इस बात को स्वीकार करना कि भूमि उन लोगों की है, जो इस पर खेती कर रहे हैं
  • भूमि सीमा अधिनियम बनाना
  • भूदान और सर्वोदय आंदोलनों को प्रोत्साहित करना
  • भू-राजस्व उगाही के लिए उपयुक्त तर्कसंगत व्यवस्था तैयार करना
  • खाद्यान्न उत्पादन के मामले में देश को आत्मनिर्भर बनाना। इसके लिए हरित क्रांति समेत तमाम ऐसे क़दमों को उठान जिससे कृषि उत्पादन बढ़ सके, और
  • कृषि के लिए ज़रूरी क्षेत्रों में निवेश मसलन सिंचाई के लिए

भारतीय कृषि का वर्तमान परिदृश्य

वर्तमान समय में, भारत दुनिया भर में कृषि उत्पादन के क्षेत्र में दूसरे स्थान पर है।

  • सकल फसली क्षेत्र: 195 मिलियन हेक्टेयर
  • बोया गया निवल क्षेत्र: 141 मिलियन हेक्टेयर
  • कृषि सिंचित भूमि (कुल कृषि भूमि का%): 36% (विश्व बैंक के साल 2014 के आंकड़ों के अनुसार)
  • 58 प्रतिशत से भी अधिक ग्रामीण परिवार अपनी आजीविका के लिए कृषि पर निर्भर हैं।
  • आर्थिक सर्वेक्षण 2017 के मुताबिक़, 2018 -2019 में कृषि विकास दर 4.1% रहने की संभावना है जबकि वर्ष में 2015-16 में ये दर 1.2% था।
  • बागवानी फसलों का कुल फसल क्षेत्र में 10% का हिस्सा है, पशुपालन का देश के कुल कृषि उत्पादन में लगभग 32% की हिस्सेदारी है।
  • भारत की दूध, आम, केला, नारियल, काजू, पपीता, मटर, कसावा और अनार में पहली रैंक।
  • मसाले, बाजरा, दलहन, सूखा बीन, अदरक का सबसे बड़ा उत्पादक और निर्यातक।
  • कुल मिलाकर, सब्जी, फल और मछलियों का दूसरा सबसे बड़ा उत्पादक।
  • भारत में विश्व की भैंस आबादी का 57% और मवेशियों की आबादी का 14% है।
  • औषधीय और सुगंधित पौधों के मामले में विश्व बाजार में 7% हिस्सेदारी के साथ भारत अपना 6वां स्थान रखता है।

भारतीय कृषि की वर्तमान समस्याएं

  • ग्रामीण-शहरी विभाजन- शहरों की प्रगति को देखकर किसानों को ये लगने लगा है कि खेती घाटे का सौदा है। इससे शहरों की तरफ पलायन की समस्या भी बढ़ रही है। लोकनीति द्वारा 2014 में किये गए एक सर्वेक्षण के अनुसार लगभग 40% किसान अपनी आर्थिक स्थिति से पूरी तरह से असंतुष्ट थे। यह आंकड़ा पूर्वी भारत में 60% से अधिक था। 70% से अधिक किसानों का यह मानना है कि शहरी जीवन ग्रामीण जीवन से बेहतर है।
  • आबादी बढ़ने के साथ-साथ खेतों का आकार दिनों-दिन छोटा होता जा रहा है। इस कारण खेती में मशीनों का प्रयोग थोड़ा मुश्किल हो रहा है।
  • जल के समुचित दोहन का अभाव, सिंचाई के अपर्याप्त साधन। मतलब प्राकृतिक संसाधनों के सही उपयोग का अभाव।
  • मानसून पर अत्यधिक निर्भरता और मानसून की अनियमितता।
  • सब्सिडी का वाज़िब परिणाम नहीं आ रहा है यानी सब्सिडी वितरण व्यवस्था में कहीं न कहीं कमी है।
  • उत्पादन के बाद भंडारण और प्रसंस्करण की समुचित व्यवस्था नहीं है।
  • सरकारी अनुसंधान से पता चलता है कि उर्वरक का ज़रूरत से ज़्यादा प्रयोग, परंपरागत फसल पद्धति, मिटटी की घटती गुणवत्ता भी प्रमुख समस्यायों में से एक है।
  • कृषि में निवेश का अभाव
  • प्रभावी नीतियों का अभाव
  • निजी निवेश की कमी
  • पर्याप्त अनुसंधान की कमी
  • गरीबी तथा ऋणग्रस्तता के कारण किसान अपनी उपज कम कीमतों पर बिचौलियों को बेचने के लिए बाध्य हैं।
  • कृषि के लिए आवश्यक मूलभूत सुविधाओं जैसे सड़क और बिजली की कमी। लिहाज़ा कृषि उत्पादों का बाज़ार प्रभावित होता है।
  • कृषि उत्पादों की गुणवत्ता अंतर्राष्ट्रीय मानकों के अनुरूप नहीं। इससे कृषि उत्पादों का निर्यात नहीं हो पा रहा है।

सरकार द्वारा उठाये गए कदम

  • कृषि के व्यापक विकास के लिए सरकार द्वारा साल 2007 में राष्ट्रीय कृषक नीति लाइ गई।
  • जमीन की उर्वरता और जैव विविधता को बनाए रखने के लिए जैविक खेती को बढ़ावा दिया जा रहा है।
  • फसलों के मुताबिक पोषण और उर्वरक की जानकारी उपलब्ध कराने के लिए 'सॉइल हेल्थ कार्ड' और 'किसान कॉल सेंटर' जैसी योजनाएं चलाई जा रही हैं।
  • सिंचाई की समस्याओं को दूर करने के लिए 'प्रधानमंत्री कृषि सिंचाई योजना' को व्यापक स्तर पर क्रियान्वित किया जा रहा है।
  • यूरिया और अन्य खतरनाक रासायनिक उर्वरकों के दुष्प्रभाव से बचने के लिए 'नीम कोटेड यूरिया' को बढ़ावा दिया जा रहा है।
  • इसके अलावा खाद्यान्नों के भंडारण और उनके प्रसंस्करण से जुड़ी ढांचागत विकास पर भी ध्यान केंद्रित किया जा रहा है।
  • कृषि उत्पादों को एक बड़ा बाजार उपलब्ध कराने के लिए इ-नैम व्यवस्था और APMC एक्ट भी लाया गया है।
  • कृषि में जोखिम को कम करने के लिए प्रधानमंत्री फसल बीमा योजना भी क्रियान्वित किया जा रहा है।
  • इसके अलावा खेती में वित्त की समस्या से निपटने के लिए लोन की सुगमता, किसान क्रेडिट कार्ड और न्यूनतम समर्थन मूल्य जैसे पहल किए जा रहे हैं। सरकार का लक्ष्य 2022 तक किसानों की आय को दोगुना करने की है। इस दिशा में 'प्रधानमंत्री किसान सम्मान निधि' एक और नयी पहल है।
  • कृषि उत्पादों के निर्यात को बढ़ावा देने के लिए सरकार ने पिछले साल दिसंबर 2018 में कृषि निर्यात नीति लागू किया है।
  • कृषि में अनुसंधान एवं विकास को भी बढ़ावा दिया जा रहा है। साथ ही, जलवायु परिवर्तन के अनुसार ऐसी खेती को बढ़ावा दिया जा रहा है जिससे पर्यावरण में हो रहे बदलाव के बुरे प्रभाव से बचा जा सके और पर्यावरण को भी नुक्सान न हो।

आगे क्या किया जाना चाहिए?

  • 'पर ड्रॉप मोर क्रॉप' के लक्ष्य पर और भी ज्यादा ध्यान देने की जरूरत है।
  • हरित क्रांति के बाद जिस तरह से क्षेत्रीय असमानता देखने को मिला है मसलन पंजाब और बिहार की स्थिति में काफी फ़र्क़ है। ऐसे में एक दूसरे लेकिन अधिक तर्कसंगत हरित क्रांति की जरूरत है।
  • इसके अलावा कृषि क्षेत्र में अनुसंधान अभी भी पर्याप्त नहीं है। लिहाज़ा, इस पहलू पर और भी ज्यादा ध्यान दिया जाना चाहिए।
  • कृषि संबद्ध क्षेत्रों जिसमें अंडे का उत्पादन,ऊन का उत्पादन, मांस का उत्पादन और मत्स्य उत्पादन जैसी चीजें शामिल हैं इनके भंडारण, सरक्षण और मार्केटिंग पर भी ध्यान देने की जरूरत है। हालांकि, सरकार इसके लिए राष्ट्रीय पशुधन मिशन जैसी योजना तो चला रही है लेकिन इस क्षेत्र में संभावनाएं और भी ज्यादा हैं।
  • इसके अलावा कृषि के लिए दी जाने वाली सब्सिडी को और भी तर्कसंगत बनाने की जरूरत है। और इसमें तकनीक का महत्वपूर्ण योगदान हो सकता है।
  • कर्ज माफी जैसी शार्ट टर्म नीति समुचित रूप से प्रभावी नहीं होगी। लिहाजा कृषि से जुड़ी समस्याओं का लांग टर्म हल ढूंढा जाना चाहिए।
  • कृषि उत्पादों के भंडारण और उनके वितरण वाले पहलू पर सरकार को ध्यान देना होगा। क्योंकि हमारे यहां उत्पादन पर्याप्त मात्रा में होने के बावजूद भी एक बड़ा वर्ग ऐसा है जो खाद्यान्न के अभाव से जूझ रहा है। हालांकि सरकार ने इसके लिए राष्ट्रीय खाद्य सुरक्षा मिशन जैसे उपाय जरूर किए हैं लेकिन अभी यह उपाय नाकाफी हैं।