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Blog / 05 May 2020

(डेली न्यूज़ स्कैन - DNS हिंदी) कांग्रेस का त्रिपुरी संकट (What was Tripuri Crisis of Congress?)

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(डेली न्यूज़ स्कैन - DNS हिंदी) कांग्रेस का त्रिपुरी संकट (What was Tripuri Crisis of Congress?)



मार्च 1939 , पंडित गोबिंद बल्लभ पंत ने प्रस्ताव पारित किया । प्रस्ताव में सुभाष चंद्र बोस से एक कार्यकारी समिति बनाने के लिए कहा गया ।कार्यकारी समिति को गांधी के विचारों के अनुरूप बनाने का प्रस्ताव था । बोस ने नेहरू को 27 पन्नों का एक खत लिखा। खत में बोस ने लिखा की वे नेहरू से काफी निराश हैं । बोस की गांधी से बातचीत सफल नहीं हुई और उन्होंने अध्यक्ष के पद से इस्तीफ़ा दे दिया । इसके बाद राजेंद्र प्रसाद को कांग्रेस का अध्यक्ष बनाया गया। ये सब हुआ मध्य प्रदेश में स्थित त्रिपुरी अधिवेशन के दौरान । त्रिपुरी संकट के दौरान ये बात सामने आ गयी थी की गांधी को शायद बोस से डर लगने लगा था । डर की वजह थी उनकी शख्शियत और उनके समर्थकों की भीड़ में लगातार इज़ाफ़ा होना । लेकिन अगर सुभाष चंद्र बोस ने अध्यक्ष पद से इस्तीफ़ा न दिया होता तो शायद आज भारत की राजनीति किसी और ही पड़ाव पर खड़ी होती ।

आज के DNS में हम जानेंगे त्रिपुरी संकट के बारे में और समझेंगे की किस तरह इस संकट ने भारतीय आज़ादी के आंदोलन की दशा और दिशा बदल दी ।

महात्मा गांधी ने अगर नेताजी सुभाष चन्द्र बोस की खिलाफत न की होती तो क्या आजाद भारत की राजनीति कुछ और ही होती ? महात्मा गांधी ने कांग्रेस अध्यक्ष के तौर पर सुभाष चन्द्र बोस का विरोध क्यों किया था ? इतिहासकार भी इस मुद्दे पारर एक से इत्तिफ़ाक़ नहीं रखते । कुछ इतिहासकारों मानना है कि आजादी हासिल करने के बोस और गांधी के नज़रियों में फ़र्क़ था । गांधी जी अहिंसा और असहयोग से आजादी हासिल करना चाहते थे। लेकिन सुभाष चंद्र बोस इससे इत्तेफाक नहीं रखते थे। हालांकि सैद्धांतिक विरोध के बाद भी गांधी और बोस एक दूसरे का बहुत सम्मान करते थे। जब कि रुद्रांगशु मुखर्जी जैसे इतिहासकारों की माने तो गांधी, का झुकाव नेहरू की ओर ज़्यादा था।

सुभाष चन्द्र बोस को 1938 में हरिपुरा अधिवेशन के दौरान कांग्रेस का अध्यक्ष चुना गया । उस वक़्त बोस कांग्रेस के सबसे लोकप्रिय नेता थे। सुभाष का कद मकबूलियत में जवाहर लाल नेहरू से भी ऊंचा था । लेकिन पार्टी में खुद की नीतियों को लागू करने के लिए बोस का फिर से कांग्रेस का अध्यक्ष बनना ज़रूरी था । साल 1939 , कांग्रेस का अधिवेशन इस बार त्रिपुरी में हो रहा था । त्रिपुरी मध्य प्रदेश के जबलपुर में एक जगह है ।पूरी दुनिया इस वक़्त दुसरे विश्व युद्ध के मुहाने पर आ खड़ी हुई थी । दुनिया के साथ साथ भारत की सियासत में उठापठक का दौर शुरू हो चुका था । कांग्रेस का खेमा भी बँट चुका था । इस खेमे में एक ओर बोस के समर्थक थे जो अंग्रेज़ों से आर पार की लड़ाई लड़ना चाहते थे तो वहीं दूसरा खेमा अंग्रेज़ों से समझौते का पैरोकार था । ऐसे में बोस का अपनी नीतियों को जारी रखने के लिए अध्यक्ष चुना जाना ज़रूरी था । लिहाज़ा अधिवेशन में उन्होंने फिर से अपनी उम्मीदवारी का एलान कर दिया । नेहरू ने बोस के खिलाफ चुनाव लड़ने से इंकार कर दिया। मौलाना अबुल कलाम आजाद ने भी अपना नाम वापस ले लिया। लेकिन गांधी जी किसी कीमत पर बोस को दूसरी दफा कांग्रेस का अध्यक्ष बनते हुए नहीं देखना चाहते थे।

कांग्रेस में कोई भी चर्चित व्यक्ति बोस के खिलाफ नही खड़ा होना चाह रहा था । इस सूरत में गांधी जी ने बोस के खिलाफ पट्टाभि सीतारमैया को अपना समर्थन दिया। गांधी जी ने उस वक़्त साफ़ तौर पर कहा था, पट्टाभि सीतारमैया की हार, मेरी हार होगी। चुनाव हुआ गांधी जी के विरोध के बाद भी सुभाष चन्द्र बोस जीत गये। उस वक़्त कांग्रेस में सुभाष चन्द्र बोस के सामने गांधी जी फीके पड़ गये। गांधी जी ने इसे अपनी निजी हार के रूप में लिया । इस जीत से कांग्रेस खेमे में खलबली मच गयी । नेहरू भी बोस की जीत से खुश नहीं थे । कांग्रेस के ज़्यादातर कार्यकर्ता सुभाष चन्द्र बोस के समर्थन में थे । लेकिन गांधी जी और नेहरू उनके खिलाफ खड़े थे। ऐसे में सुभाष चन्द्र बोस ने कांग्रेस अध्यक्ष पद से इस्तीफा दे दिया । इस्तीफे के दो साल बाद नेताजी भारत से विदेश चले गये । नेता जी ने विदेश में आजादी की लड़ाई के लिए आजाद हिंद फौज की नीव रखी।

बोस बनाम नेहरू

उम्र में बोस नेहरू से 8 साल छोटे थे । दोनों में कई चीज़ें एक सी थी। जैसे दोनों ही मशहूर वकीलों के बेटे थे । दोनों ने इंग्लैंड में पढ़ाई की थी । भारत लौटने के बाद दोनों ने ही खुद को आज़ादी की लड़ाई में झोंक दिया । नेहरू और बोस ने पहली बार साल 1928 में एक साथ काम किया । नेहरू कांग्रेस की डोमोनियन स्टेटस की मांग के खिलाफ थे । डोमिनियन स्टेटस की मांग नेहरू रिपोर्ट के मद्देनज़र की गयी थी । नेहरू रिपोर्ट जवाहर लाल नेहरू के पिता पंडित मोतीलाल नेहरू ने बनायी थी । बोस ने नेहरू के प्रजातांत्रिक समाजवादी भारत की मांग का किया । बोस और नेहरू दोनों ही उस दौर में कांग्रेसी विचारधारा से अलग वामपंथी विचारधारा के पैरोकार थे।

गांधी ने नेहरू को अपना उत्तराधिकारी बनाया लेकिन वे बोस की काबिलियत से भी इत्तेफ़ाक़ रखते थे । गांधी बोस पर पूरी तरह से यकीन नहीं करते थे । बोस अहिंसा के विचारों में गांधी से पूरी तरह से सहमत नहीं थे । जबकि नेहरू कई मौकों पर गांधी के खिलाफ होने के बावजूद भी गांधी के साथ खड़े रहते थे । इसके उलट बोस आम तौर पर झुकने को तैयार नहीं रहते थे । कई मौकों पर बोस खुद को आज़ादी की लड़ाई में बाहरी पाते थे।

जाने माने लेखक रूद्रांग्शु मुखजी के मुताबिक़ बोस अंग्रेज़ी हुकूमत को उखाड़ फेकने के लिए नाज़ीजर्मनी या जापान की मदद लेने में किसी तरह की दिक्कत नहीं समझते थे । नेहरू की नज़र में फ़ासी वाद और साम्राज्य वाद दोनों ही ठीक नहीं थे । नेहरू इंडियन नेशनल आर्मी को लेकर भी संशय में थे । हालांकि बोस के गायब हो जाने के बाद उन्होंने INA मामले में बड़ी भूमिका निभाई थी।

बोस के कांग्रेस का अध्यक्ष बनने के दौरान नेहरू यूरोप की यात्रा पर थे । इस दौरान नेहरू ने ब्रिटिश नेता क्लेमेंट एटली से मुलाकात की । मुलाकात में भारत को धीरे सत्ता सौपने पर बातचीत हुई । इधर भारत में बोस पूरी आज़ादी की तैयारी में जुट गए थे।

1937 के चुनावों के बाद बोस बंगाल में कृषक प्रजा पार्टी और दलितों के साथ मिलकर साझा सरकार बनाना चाह रहे थे । लेकिन गांधी इसके खिलाफ थे । गांधी कांग्रेस की अध्यक्षता की लिए मौलाना आज़ाद को खड़ा करना चाहते थे । आज़ाद इसके लिए तैयार नहीं थे और न ही नेहरू । कांग्रेस कार्यसमिति की मंत्रणा की बाद गांधी की अगली पसंद थी पट्टाभि सितारमैय्या । लेकिन बोस की जीत की बाद कांग्रेस कार्य समिति ने नेहरू समेत इस्तीफ़ा दे दिया।

इन सारी घटनाओं से यह पहले ही ज़ाहिर हो चुका था की गांधी किसी भी सूरत में बोस को भारत का प्रधानम्नत्री बनते नहीं देखना चाहते थे । गांधी , नेहरू और बोस में दरार त्रिपुरी संकट की पहले ही पड़ चुकी थी लेकिन त्रिपुरी अधिवेशन की बाद इस दरार को पाटना नामुमकिन हो चला था । बोस ने खुद को कांग्रेस से अलग कर लिया और खुद की तरीकों से आज़ादी की कोशिश करने लगे थे । लेकिन क्या होता अगर बोस भारत की प्रधानमंत्री बन जाते । क्या उस सूरत में भारत की राजनीति ऐसी ही होती या भारत का बंटवारा दो मुल्कों में होता । यह सब सवाल हमारे ज़ेहन में कौंधते रहेंगे लेकिन इनका जवाब शायद अतीत की पन्नों में ही दफ़न होकर रह गया है।