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Blog / 16 Jan 2020

(डेली न्यूज़ स्कैन - DNS हिंदी) क्या है एडवर्स पजेशन? (What is Adverse Possession?)

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(डेली न्यूज़ स्कैन - DNS हिंदी)  क्या है एडवर्स पजेशन? (What is Adverse Possession?)


सुप्रीम कोर्ट ने अपने एक हालिया फैसले में कहा है कि राज्य सरकार कानून की उचित प्रक्रिया का पालन किए बग़ैर किसी नागरिक की निजी संपत्ति को बलपूर्वक नहीं छीन सकती है। सांविधानिक क्षेत्राधिकार का इस्तेमाल करने के लिए भी कोई समय सीमा तय नहीं की गई है। इसके अलावा जहां भी न्याय की मांग हो, वहां अदालतों को अपने क्षेत्राधिकार का इस्तेमाल करना चाहिए।

दरअसल सुप्रीम कोर्ट ने यह महत्वपूर्ण व्यवस्था हमीरपुर जिले की नादौन तहसील के जलाड़ी की विद्या देवी (80) की अपील को स्वीकारते हुए दी है। उनकी 3.34 हेक्टेयर भूमि को 53 वर्ष पहले हिमाचल सरकार ने सड़क निर्माण के लिए जबरन कब्जे में लिया था। इसके साथ न्यायाधीश इंदु मल्होत्रा और न्यायाधीश अजय रस्तोगी की खंडपीठ ने कहा कि कानून की उचित प्रक्रिया का पालन किए बगैर किसी नागरिक की निजी संपत्ति को जबरन छीनना न केवल मानव अधिकार का उल्लंघन है, बल्कि संविधान के अनुच्छेद 300 ए के तहत सांविधानिक अधिकार का भी उल्लंघन है। कोर्ट ने राज्य सरकार पर 10 लाख रुपये की कॉस्ट लगाते हुए प्रार्थी को कब्जाई गई भूमि की कीमत अदा करने के आदेश दिए है।

DNS में आज हम समझेंगे एडवर्स पजेशन क्या है ? साथ ही जानेंगे कि एडवर्स पजेशन को लेकर सुप्रीम कोर्ट के हालिया फैसले के फैसले के बारे में।

विद्या देवी की जमीन सरकार ने 1967-68 में सड़क निर्माण के लिए जबरन ले ली थी। दरअसल वो निरक्षर थी, इसलिए उन्हें कानूनी उपायों की ज़्यादा जानकारी नहीं थी। इसके अलावा 2004 में भी कुछ अन्य लोगों की भूमि भी राज्य सरकार ने अधिग्रहण की कार्यवाही की उचित प्रकिया का पालन किए बग़ैर ही ले ली थी । 2004 में कुछ लोगों ने इस मामले को लेकर हाईकोर्ट का दरवाजा खटखटाया था जिनकी जमीनें राज्य सरकार ने गलत कानूनी प्रक्रिया से हड़प ली थी। तीन वर्ष बाद हाईकोर्ट ने राज्य सरकार को निर्देश दिया कि वो याचिकाकर्ताओं की जमीनें भूमि अधिग्रहण कानून 1894 के तहत अधिग्रहीत करे और संबंधित लोगों को कानून के प्रावधानों के अनुरूप मुआवजा दे। इस आदेश की जानकरी मिलने के बाद, विद्या देवी ने भी 2010 में हाईकोर्ट में एक रिट याचिका दायर की थी, जिसमें उन्होंने भूमि अधिग्रहण कानून के प्रावधानों के तहत मुआवजे का दावा किया। इस मामले में उच्चतम न्यायालय ने निरक्षर विधवा विद्या देवी को राहत प्रदान की, जिनकी जमीन राज्य सरकार ने 1967-68 में सड़क निर्माण के लिए कानूनी प्रक्रिया अपनाये बिना जबरन ले ली थी। न्यायमूर्ति इंदु मल्होत्रा और न्यायमूर्ति अजय रस्तोगी की पीठ ने व्यवस्था दी कि सरकार नागरिकों से हड़पी जमीन पर पूर्ण स्वामित्व के लिए प्रतिकूल कब्जे यानी एडवर्स पजेशन के सिद्धांत का इस्तेमाल नहीं कर सकती। कोर्ट ने कहा कि कानूनी प्रक्रिया अपनाये बगैर निजी सम्पत्ति से किसी को जबरन बेदखल करना उसके मानवाधिकार तथा संविधान के अनुच्छेद 300ए के तहत उसके संवैधानिक अधिकार का उल्लंघन है। जबकि राज्य सरकार ने इस याचिका का यह कहते हुए विरोध किया कि 42 वर्षों तक प्रतिकूल कब्जे के जरिये उसने पूर्ण स्वामित्व हासिल कर लिया है।

राज्य सरकार ने यह भी दलील दी थी कि उक्त जमीन पर सड़क बनायी जा चुकी है और अपीलकर्ता को दीवानी मुकदमा का रास्ता अपनाना चाहिए था। वर्ष 2013 में हाईकोर्ट ने यह कहते हुए रिट याचिका खारिज कर दी कि इस मामले में तथ्य संबंधी विवादित सवाल मौजूद हैं, हालांकि उसने अपीलकर्ता को दीवानी मुकदमा दायर करने की अनुमति दी थी। इस आदेश से असंतुष्ट होकर अपीलकर्ता ने सुप्रीम कोर्ट का दरवाजा खटखटाया था। बगैर प्रक्रिया अपनाये सम्पत्ति से जबरन बेदखल नहीं किया जा सकता सुप्रीम कोर्ट ने संविधान के अनुच्छेद 300ए का हवाला देते हुए कहा कि किसी व्यक्ति को कानूनी प्रक्रिया अपनाये बगैर उसकी निजी सम्पत्ति से जबरन बेदखल करना मानवाधिकार का तथा संविधान के अनुच्छेद 300ए के तहत प्रदत्त संवैधानिक अधिकार का भी उल्लंघन है।

कोर्ट ने ये भी कहा कि कानून के शासन से संचालित लोकतांत्रिक राजतंत्र में सरकार कानून की मंजूरी के बिना अपने ही नागरिक को उसकी सम्पत्ति से वंचित नहीं कर सकती। कानून के शासन द्वारा संचालित कल्याणकारी सरकार होने के नाते सरकार खुद को संविधान के दायरे से बाहर नहीं ले जा सकती। नागरिकों की सम्पत्ति कब्जाने के लिए प्रतिकूल कब्जे की दलील नहीं दी जा सकती है। इसके अलावा सुप्रीम कोर्ट ने राज्य सरकार की ओर से पेश प्रतिकूल कब्जे की दलील पर आश्चर्य जताया। इस मामले पर सुप्रीम कोर्ट ने कहा कि कोई भी कल्याणकारी सरकार अपने नागरिक की सम्पत्ति कब्जाने के लिए प्रतिकूल कब्जे के सिद्धांत का इस्तेमाल नहीं कर सकती। हमें राज्य सरकार द्वारा हाईकोर्ट में पेश दलील को लेकर आश्चर्य हो रहा है कि चूंकि उस जमीन पर उसका 42 वर्ष से लगातार कब्जा है, इसलिए यह प्रतिकूल कब्जे के समान माना जायेगा।

कल्याणकारी सरकार होने के नाते राज्य को प्रतिकूल कब्जे की दलील की अनुमति नहीं दी जा सकती, जिसके तहत अनधिकृत व्यक्ति (नुकसान पहुंचाने या किसी अपराध के दोषी व्यक्ति) को भी किसी सम्पत्ति पर 12 साल से अधिक कब्जा जमाये बैठे रहने के आधार पर कानूनी स्वामित्व दे दिया जाता है। सरकार को प्रतिकूल कब्जे के सिद्धांत का इस्तेमाल करके जमीन पर पूर्ण स्वामित्व हासिलकरने की अनुमति नहीं दी जा सकती, जैसा कि इस मामले में किया गया है।कोर्ट ने राज्य सरकार द्वारा मामले में की गयी देरी की दलील भी खारिज कर दी। राज्य सरकार की यह भी दलील दरकिनार कर दी गयी कि अधिग्रहण के लिए मौखिक सहमति दी गयी थी। एक ऐसा मामला, जिसमें न्याय की मांग इतनी अकाट्य है, तो एक संवैधानिक अदालत न्याय को बढ़ावा देने के लिए अपने अधिकार क्षेत्र का इस्तेमाल करेगी, न कि न्याय को हराने के लिए। कोर्ट ने कहा कि राज्य सरकार ने किसी कानूनी मंजूरी के बिना एक विधवा औरत को उसकी सम्पत्ति से करीब आधी सदी वंचित रखा। इसलिए शीर्ष अदालत की नज़र में संविधान के अनुच्छेद 142 के तहत प्रदत्त असाधारण शक्तियों का इस्तेमाल करने के लिए यह उचित मामला है।

खंडपीठ के लिए न्यायमूर्ति इंदु मल्होत्रा ने फैसला लिखते हुए कहा हम संविधान के अनुच्छेद 136 और 142 के तहत प्रदत्त असाधारण अधिकारों का इस्तेमाल करते हैं और राज्य सरकार को यह निर्देश देते हैं कि वह अपीलकर्ता को मुआवजे का भुगतान करे। इस मामले को डीम्ड एक्वीजिशन की तरह मानते हुए राज्य सरकार को अपीलकर्ता को उतना ही मुआवजा देने को निर्देश दिया गया, जितना मुआवजा बगल की उस जमीन के लिए दिया गया है, जिसका उल्लेख इस मामले में हुआ है। कोर्ट ने इस तथ्य का संज्ञान लेते हुए कि उल्लेखित मामले में दावाकर्ताओं ने मुआवजे में बढ़ोतरी के लिए हाईकोर्ट में अपील दायर की है, मौजूदा अपीलकर्ता को आठ सप्ताह के भीतर अपील दायर करने की अनुमति दे दी। इन सबके अलावा, राज्य सरकार को यह भी निर्देश दिया गया कि वह अपीलकर्ता (विद्या देवी) को कानूनी खर्चे के तौर पर एक लाख रुपये का भुगतान करे।