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Blog / 27 Feb 2019

(डेली न्यूज़ स्कैन (DNS हिंदी) देशद्रोह कानून (Sedition Law)

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(डेली न्यूज़ स्कैन (DNS हिंदी) देशद्रोह कानून (Sedition Law)


मुख्य बिंदु:

पिछले कुछ दिनों से देशद्रोह क़ानून के दुरुपयोग का मामला काफी ज़ोर पकड़ने लगा है। राष्ट्रीय अपराध रिकॉर्ड ब्यूरो यानी NCRB द्वारा जारी किये गए आंकड़ों के मुताबिक़ साल 2014 से 2016 के बीच करीब 180 लोग देशद्रोह कानून के तहत ग़िरफ़्तार किये गए हैं। तमाम बुद्धिजीवियों का मानना है कि इनमें ज़्यादातर मामलों में देशद्रोह क़ानून का दुरूपयोग किया गया है। जिसके बाद इस कानून में बदलाव और स्पष्टीकरण की मांगें उठने लगी हैं। जबकि बीते दिनों, संसद में पूछे गए एक सवाल के ज़वाब में विधि मंत्रालय ने संसद को बताया कि देशद्रोह कानून को लचीला बनाने या फिर इसको समाप्त करने का फिलहाल सरकार का कोई विचार नहीं है।

DNS में आज हम आपको देशद्रोह क़ानून के बारे में बताएंगे साथ ही इसके दूसरे पहलुओं को भी समझने की कोशिश करेंगे।

भारत में देशद्रोह क़ानून के शुरुआत की जड़ें 19वीं शताब्दी के वहाबी आंदोलन से जुड़ी हुई हैं। वहाबी आंदोलन एक इस्लामी पुनरुत्थानवादी आंदोलन था जिसे सैयद अहमद बरेलवी ने शुरू किया था। हालांकि उस समय ये क़ानून स्पष्ट रूप में नहीं लाया गया था। साल 1859 तक देशद्रोह पर कोई भी डायरेक्ट कानून नहीं था लेकिन 1860 में देशद्रोह के लिए क़ानून बनाया गया और फिर 1870 में इसे IPC में शामिल कर दिया गया।

आज़ादी के लड़ाई में असहयोग आंदोलन के दौरान 18 मार्च, 1922 को महात्मा गांधी समेत कई स्वतंत्रता सेनानियों को ग़िरफ़्तार किया गया था। उस समय गांधीजी ने इसके बारे में कहा था - मैं धारा 124A के तहत बड़ी ख़ुशी से आरोपित किया गया हूँ। मेरे विचार से देशद्रोह के इस क़ानून को, आज़ादी की मांग को दबाने के लिए बनाय गया है, जिसे IPC के सभी क़ानूनों का राजा कहना ग़लत नहीं होगा।

दरअसल इस क़ानून को अंग्रेज इसलिए लाये थे ताकि वे भारतीयों पर और भी प्रभावी ढंग से शासन कर सके। भारतीयों की आवाज़ को दबाने के लिए इस क़ानून का इस्तेमाल किया जाता था। 1890 के दशक में इसकी भाषा को और सख़्त बनाया गया क्योंकि तत्कालीन ब्रिटिश अटॉर्नी जनरल का मानना था कि ब्रिटिश नागरिकों और भारतीयों को एक समान कानून नहीं दिया जाना चाहिए।

ग़ौरतलब है कि जब कोई आदमी देश के खिलाफ लिखकर, बोलकर, या फिर संकेत देकर नफ़रत फैलाता है या इस तरह की कोई कोशिश भी करता है तो ऐसे मामलों में आईपीसी की धारा-124A के तहत केस बनता है। अगर व्यक्ति इस कानून के तहत दोषी पाया जाता है तो उसे उम्रकैद की सजा हो सकती है। साथ ही देश द्रोह एक गैर-जमानती अपराध है। जिसके बाद दोषी को कभी भी सरकारी नौकरी नहीं मिल सकती है।

दरअसल धारा-124 ए में जिन लफ़्ज़ों का इस्तेमाल किया गया है, उनकी स्पष्टता को लेकर सवाल उठते रहे हैं। धारा-124A में स्पष्टता न होने के कारण इस क़ानून के दुरुपयोग की संभावनाएं भी बढ़ जाती हैं। क़ानून व्यवस्था के राज्य सूची में होने के कारण इस क़ानून का राज्य स्तर पर ग़लत इस्तेमाल किए जाने के मामले ज़्यादा देखे जाते हैं।

हालांकि साल 1962 में केदारनाथ बनाम बिहार राज्य के केस में सुप्रीम कोर्ट ने इस क़ानून की व्याख्या की थी। देश के सर्वोच्च न्यायालय ने ऐतिहासिक फैसला देते हुए देशद्रोह मामले में फेडरल कोर्ट ऑफ (ब्रिटिश) इंडिया से सहमति जताई थी। सुप्रीम कोर्ट ने धारा-124A के दायरे को सीमित करते हुए कहा था कि ये ऐसा ऐक्ट है जिसमें अव्यवस्था फैलाने, कानून व व्यवस्था में गड़बड़ी पैदा करने या फिर हिंसा को बढ़ावा देने या ऐसी मंशा रखने वाले के ख़िलाफ़ देशद्रोह का मामला दर्ज हो सकता है।

इसके अलावा सुप्रीम कोर्ट ने ये भी कहा था कि सरकार की आलोचना या फिर प्रशासन पर टिप्पणी करने से देशद्रोह का मुकदमा नहीं दर्ज हो सकता।

इस सम्बन्ध में विधि आयोग ने भी ‘देशद्रोह’ विषय पर अपनी रिपोर्ट में कहा कि देश या इसके किसी पहलू की आलोचना को देशद्रोह नहीं माना जा सकता और ये आरोप उन मामलों में ही लगाया जा सकता है जहां इरादा हिंसा और अवैध तरीकों से सरकार को उखाड़ फेंकने का हो।

विधि आयोग ने बताया कि IPC में इस धारा को जोड़ने वाले ब्रिटेन ने अपने ख़ुद के देश में दस साल पहले ही इस तरह के कानूनों को हटा दिया है। भारतीय संविधान के अनुच्छेद 19(1)A के तहत मिले अभिव्यक्ति के अधिकार और देशद्रोह क़ानून के बीच एक स्पष्ट रेखा खींचे जाने की ज़रूरत है। हमारे देश में क़ानून बनाने, उसमे बदलाव करने या फिर उसे समाप्त कर देने का अधिकार विधायिका के पास है। ऐसे में देशद्रोह क़ानून के दुरुपयोग को रोकने के लिए भी विधायिका ही सबसे ख़ास कड़ी साबित होगी।