(डेली न्यूज़ स्कैन - DNS हिंदी) भारत के वीर सपूत : महाराणा प्रताप (India's Epitome of Bravery : Maharana Prataap)
इतिहास क्या है ? जो किताबों में लिखा है जिसे हमें स्कूलों में पढ़ाया जाता है जिसके सवाल हमारे इम्तिहानों में पूछे जाते हैं या फिर वो जो हमारे ज़ेहन में रहता है हमारी यादों से दन्त कथाओं में उतरता है , जिसकी मिसालें दी जाती हैं जिसके गीत बंजारों और लंगों की जुबां से सुनाये जाते है और जिनको कठपुतलियों के खेलों में दिखाया जाता है । महराणा प्रताप का इतिहास भी एक ऐसा ही इतिहास है जो लोगों के दिलों में ज़िंदा है । जिसकी गूँज आज भी आज भी राजस्थान के सुनसान रेगिस्तानों में मौजूद है ।
आज राजस्थान के शौर्य और वीरता के अनमोल रत्न महराणा प्रताप के जन्म दिवस पर उसी इतिहास को फिर से दोहराएंगे हम अपने DNS कार्यक्रम में।
महराणा प्रताप के बारे में कई किवदंतियां प्रसिद्ध हैं ।उनके बारे में कई किस्म के मिथक भी सुने जा सकते हैं। मसलन उनका भाला 80 किलो का था। उनका कद सात फीट था। वो 150 किलो वजनी बख्तर पहनते थे। पर इन सब कहानियों के इतर सबसे बड़ा सवाल यह है कि असल में महाराणा प्रताप कौन थे और उनका इतिहास क्या था ?
महराणा प्रताप का जन्म कुम्भलगढ़ किले के कटारगढ़ के बादल महल में विक्रमी संवत 1596 के जेठ महीने उजली तीज के दिन हुआ था । लेकिन ग्रेगेरियन कलेंडर के हिसाब से देखा जाए तो तारीख थी 6 मई और साल था 1540।
प्रताप उदय सिंह के सबसे बड़े बेटे थे। उनकी मां का नाम जैवंता बाई था। जोकि पाली के सोनगरा चौहान अखेराज की बेटी थीं। अखेराज चौहान वही आदमी थे जिन्होंने उदय सिंह को मेवाड़ की गद्दी दिलवाने में मदद की थी। पहले बेटे के जन्म के बाद ही उदय सिंह जैवंता बाई से विमुख हो गए। राजकुमार होने के बावजूद प्रताप का बचपन बेहद साधारण था। उदय सिंह ने जैवंता बाई को महल में रखने की बजाए उनके रहने की व्यवस्था पास के ही गांव में कर दी। प्रताप राजमहल की चारदीवारी की बजाए महल से बाहर भील आदिवासियों के साथ बड़े हुए। दक्षिण राजस्थान के भील आदिवासियों की भाषा में छोटे बच्चे को कीका कहा जाता है। प्रताप इसी नाम से पहचाने जाने लगे। इसलिए अबुल फजल ने अपनी रचनाओं में प्रताप को कई जगह राणा कीका लिखा है।
भीलों के साथ रहने की वजह से प्रताप ने वो चीज़ें सीखी जो वो महल में नहीं सीख पाते। मसलन जंगल के मुश्किल हालातों में जीवन जीना। कमाल की तीरंदाजी। भाला चलाने के शुरुआती गुर भी प्रताप ने भीलों से ही सीखे।
प्रताप उदय सिंह के सबसे बड़े बेटे थे लेकिन उदय सिंह ने अपनी रानी धीरबाई के बेटे जगमाल को अपना उत्तराधिकारी बनाया लेकिन महल के सिसोदिया सरदारों को मुग़लों के बारे में पता था लिहाज़ा उन्होंने प्रताप को राजगद्दी के लिए ज़्यादा मुफीद समझा । मुग़लों की नज़र पहले से ही चित्तोड़ पर थी । राणा सांगा को बाबर से खानवा का युद्ध हारना पड़ा था जबकि राणा उदय सिंह को मुग़लों के हाथों चित्तोड़ गवांना पड़ा था । मुग़लों के आक्रमण का खतरा अब भी बना हुआ था जिसको सिर्फ प्रताप ही कम कर सकते थे लिहाज़ा प्रताप ने मेवाड़ का शासन संभाला।
जून 1573 : मान सिंह गुजरात के सैनिक अभियान से लौट रहे थे। उस समय अकबर के आग्रह पर वो प्रताप से मिलने के लिए उदयपुर गए। उन्होंने प्रताप के सामने संधि की बड़ी आकर्षक शर्त रखी। मान सिंह ने प्रताप से कहा कि मेवाड़ के आतंरिक मामलों में अकबर का कोई हस्तक्षेप नहीं होगा। दूसरा उन्हें मुगलों के साथ वैवाहिक संबंध स्थापित करने के लिए बाध्य नहीं किया जाएगा। उस समय तक मेवाड़ का ज्यादातर इलाका मुगलों के कब्जे में चला गया था। चित्तौड़ के किले के अलावा बदनोर, मांडलगढ़, जहाजपुर और रायला का इलाका अकबर के कब्जे में था। लेकिन प्रताप ने संधि की शर्तें मानने से इंकार कर दिया।
महाराणा प्रताप ने जब मेवाड़ की गद्दी संभाली तब तक मेवाड़ का ज्यादातर हिस्सा उनके हाथों से खिसक गया था। चित्तोड़गढ़, मांडलगढ़, बदनोर, रायला और जहाजपुर राणा के हाथों से जा चुका था। उनके पास कुम्भलगढ़, नए-नए बसे उदयपुर और गोगुंदा के इलाका का अधिकार बचा था। ऐसे में प्रताप ने गद्दी संभालने के साथ ही युद्ध की तैयारी शुरू कर दी। सबसे पहले उन्होंने चित्तौड़ के आस-पास के सभी खेतों में खड़ी फसलों में आग लगवा दी। उन्होंने ऐलान करवाया कि अगर कोई कास्तकार फसल उगाते हुए मिला तो उसे प्राणदंड दिया जाएगा। चित्तौड़ और गोगुंदा के बीच के सभी कुवों में कचरा डलवा दिया। ताकि मुगल सैनिकों को पानी ना मिल सके। मैदानों की सारी आबादी को अरावली के पहाड़ों पर ले गए। महाराणा अब जंग के लिए तैयार थे।
हल्दी घाटी का युद्ध :
इसके बाद साल 1576 में 18 जून को हल्दीघाटी में मुग़लों की सेना और राणा प्रताप की सेना आमने सामने थी । हल्दीघाटी, राजस्थान में एकलिंगजी से 18 किलोमीटर की दूरी पर स्थित है, जो कि राजसमन्द और पाली जिलों को आपस में जोड़ती है। इसका नाम 'हल्दीघाटी' इसलिये पड़ा क्योंकि यहां की मिट्टी हल्दी जैसी पीली है lमुग़लों की सेना की अगुवाई कर रहे थे मान सिंह ।इस बात पर लगातार बहस होती रही है कि इस युद्ध में अकबर की जीत हुई या महाराणा प्रताप ने जीत हासिल की? इस मुद्दे को लेकर कई तथ्य और रिसर्च सामने भी आए हैं। कहा जाता है कि लड़ाई में कुछ भी निष्कर्ष नहीं निकला था। हालांकि आपको बता दें कि यह जंग 18 जून साल 1576 में चार घंटों के लिए चली थी। इस पूरे युद्ध में राजपूतों की सेना मुगलों पर बीस पड़ रही थी और उनकी रणनीति सफल हो रही थी।
इस युद्ध के बाद मेवाड़, चित्तौड़, गोगुंडा, कुंभलगढ़ और उदयपुर पर मुगलों का कब्जा हो गया। सारे राजपूत राजा मुगलों के अधीन हो गए और महाराणा को दर-बदर भटकने के लिए छोड़ दिया गया। महाराणा प्रताप हल्दीघाटी के युद्ध में पीछे जरूर हटे थे लेकिन उन्होंने मुगलों के सामने घुटने नहीं टेके। वे फिर से अपनी शक्ति जुटाने लगे।
इतिहास में सेनाओं की गिनती के अलग-अलग मत हैं। वहीं ब्रिटिश इतिहासकार कर्नल जेम्स टॉड ने लिखा है कि 22,000 राजपूत 80,000 मुगलों के खिलाफ लड़े थे। साथ ही मेवाड़ की तरफ से तोपों का इस्तेमाल न के बराबर हुआ। खराब पहाड़ी रास्तों से राजपूतों की भारी तोपें नहीं आ सकती थीं। जबकी मुगल सेना के पास ऊंट के ऊपर रखी जा सकने वाली तोपें थीं।
हालाँकि राजस्थान विश्वविद्यालय ने एक किताब अपने पाठ्यक्रम में राखी है जिसमे राणा प्रताप को हल्दीघाटी के युद्ध में विजयी दिखाया गया है ।जबकि इतिहास में मुग़लों को विजयी बताया गया है।
फिर भी ऐसा माना जाता है की हल्दीघाटी के युद्ध में हारने के बावजूद राणा प्रताप को मुग़ल कभी पकड़ नहीं सके । न सिर्फ राणा प्रताप बल्कि राणा के परिवार का कोई भी सदस्य बंदी नहीं बनाया जा सका था । राणा प्रताप एक बार शिकार के दौरान हुए हादसे में घायल हो गए ।मेवाड़ का यह सूर्य 19 जनवरी 1597 को सदा के लिए अस्त हो गया । महराणा प्रताप को सदैव अपने आत्मसम्मान ,वीरता , धैर्य और साहस के लिए भारतीय इतिहास में जाना जाएगा । महराणा प्रताप ने मुग़लों के आगे न झुककर एक ऐसी मिसाल पेश की जिसका उदहारण शायद ही इतिहास में कहीं और मिलेगा।