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Blog / 27 Jun 2019

(डेली न्यूज़ स्कैन - DNS हिंदी) आपातकाल : लोकतंत्र पर काला धब्बा (Emergency: A Blot on Democracy)

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(डेली न्यूज़ स्कैन - DNS हिंदी) आपातकाल : लोकतंत्र पर काला धब्बा (Emergency: A Blot on Democracy)


मुख्य बिंदु:

आपातकाल...1975 के 25 जून की वो आधी रात जब तत्कालीन राष्ट्रपति फखरुद्दीन अली के दस्तख़त के बाद पूरे भारत में आपातकाल हो गया। आज भारत में लागू हुए पहले आपातकाल के लगभग 44 बीत गए हैं। लेकिन इसे देखने और झेलने वाले लोगों के ज़ेहन में इसकी यादे आज भी ताज़ा हैं।

DNS में आज हम जानेंगे भारतीय लोकतंत्र पर काले धब्बे की तरह लगे 1975 के आपातकाल के बारे में। साथ ही इस प्रोग्राम में ज़िक्र करेंगे आपातकाल से जुड़े कुछ महत्वपूर्ण नियमों का और समझेंगे भारत में आपातकाल के प्रभाव के बारे में।

1975 में लगा आपातकाल यूँ ही नहीं लगा था। इन वजहों में 1967 के चुनाव से ही भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस को मिल रही चुनौती और कांग्रेस विभाजन जैसी कुछ महत्वपूर्ण घटनाएं शुमार थी। हालाँकि 5 वीं लोकसभा चुनाव के बाद श्री मती गांधी की लोकप्रियता अपने चरम पर थी। 1971 के चुनाव में कांग्रेस ने एक ओर जहां ‘गरीबी हटाओ’ का नारा दिया। तो वहीं 1971 में पूर्वी पाकिस्तान में उठे राजनीतिक संकट मामले में भी श्री मती गांधी ने अपने राज्यकौशल के बल पर अपने सभी विरोधियों को पस्त कर दिया था। इन सब घटनाओं के बाद उन्हें ग़रीबों और वंचितों के रक्षक और मज़बूत राष्ट्रवादी नेता के तौर पर देखा गया। लेकिन लेकिन गरीबी हटाओ जैसे नारे के बावजूद भी देश की सामाजिक-आर्थिक दशा में कोई विशेष बदलाव नहीं आया। साथ ही 1971 में हुए भारत पाकिस्तान युद्ध के बाद अमेरिका ने भी भारत को किसी भी तरह की मदद देने से मना कर दिया था। इस दौरान वैश्विक बाज़ार में तेल की कीमतें कई गुना तक बढ़ गई थी। जिसके चलते 1973 में सामानों की कीमतों में 23 फीसदी और 1974 में 30 फीसदी का इज़ाफ़ा हुआ था। इसके अलावा औद्योगिक विकास की दर भी काफी कम थी और बेरोज़गारी भी अपने चरम पर थी। खर्चे को कम करने के लिए सरकार ने अपने कर्मचारियों के वेतन को रोक दिया था।

इन सब समस्याओं के चलते गुजरात और बिहार जैसे राज्यों में व्यापक तौर पर आंदोलन हुए। समाज का लगभग हर तबका इस आंदोलन में सहयोग कर रहा था। इन समस्याओं के चलते छात्र सबसे ज़्यादा आंदोलित हुए थे। इस तरह छात्र-आंदोलन ने एक राजनीतिक रूप धारण किया और इस पूरे आंदोलन में राष्ट्रव्यापी लहर अपने शबाब पर रही। इस पूरे घटनाक्रम की अगुवाई लोकनेता जयप्रकाश नारायण कर रहे थे। 1975 में जयप्रकाश नारायण ने जनता के ‘संसद-मार्च’ का भी नेतृत्व किया। जयप्रकाश नारायण को अब भारतीय कई गैर-कांग्रेसी दलों का समर्थन भी मिला। इन दलों में जनसंघ, कांग्रेस (ओ), भारतीय लोकदल, सोशलिस्ट पार्टी जैसे दल शुमार थे। इन दलों ने जयप्रकाश नारायण को इंदिरा गाँधी के विकल्प के रूप में पेश किया।

12 जून 1975 का दिन प्रधानमंत्री इंदिरा गांधी के लिए काफी निराशाजनक था। ये वो तारीख़ थी जब इलाहाबाद हाईकोर्ट ने श्री मती गांधी को भ्रष्ट चुनावी आचरण का दोषी क़रार देते हुए उनके 1971 के चुनाव को अवैध घोषित कर दिया। इलाहाबाद उच्च न्यायालय के न्यायाधीश जगमोहन लाल सिन्हा ने ये फ़ैसला समाजवादी नेता राजनारायण द्वारा दायर एक चुनाव याचिका के मामले में सुनाया था। राजनारायण, इंदिरा गाँधी के खिलाफ़ 1971 में बतौर उम्मीदवार चुनाव में खड़े हुए थे। याचिका में इंदिरा गाँधी के निर्वाचन को चुनौती देते हुए तर्क दिया गया था कि उन्होंने चुनाव-प्रचार में सरकारी कर्मचारियों की सेवाओं का इस्तेमाल किया था। इलाहाबाद उच्च न्यायलय के इस फैसले के बाद इंदिरा गांधी ने इस्तीफा देने के बजाय देश में आपातकाल की घोषणा कर दी और विपक्ष के कई प्रमुख नेताओं के साथ हज़ारों निर्दोष लोगों को जेल में बंद कर दिया। आपातकाल के तहत मिली शक्तियों के आधार पर सरकार ने प्रेस की आज़ादी पर रोक लगा दी। एक तरीके से ये प्रेस सेंसरशिप थी जिसके तहत किसी भी समाचार पत्र में छपने वाली ख़बरों को लिए सरकार से इजाज़त लेनी होती थी। हालाँकि कई अख़बारों ने ने प्रेस पर लगी इस सेंसरशिप का विरोध किया।

आपातकाल के दौरान संसद ने संविधान के सामने कई नयी चुनौतियाँ पेश की। इंदिरा गाँधी के मामले में इलाहाबाद उच्च न्यायालय के फैसले की पृष्ठभूमि में संविधान में 42 वां संशोधन हुआ। इस संशोधन के ज़रिए प्रावधान किया गया कि प्रधानमंत्री, राष्ट्रपति और उपराष्ट्रपति पद के निर्वाचन को अदालत में चुनौती नहीं दी जा सकती।

दरअसल संविधान के अनुच्छेद 352 के तहत ये प्रावधान है कि बाहरी या अंदरूनी गड़बड़ी की स्थिति में सरकार आपातकाल लागू कर सकती है। उस दौर में श्री मती गांधी ने इसी स्थिति का ज़िक्र करते हुए देश में आपातकाल की घोषणा की थी। तकनीकी रूप से देखा जाए तो सरकार आपातकाल लगा सकती है क्योंकि संविधान में सरकार को आपातकाल की स्थिति में विशेष शक्तियाँ प्रदान की गई हैं।

राष्ट्रीय आपात की उद्घोषणा अनुच्छेद 352 के तहत राष्ट्रपति द्वारा की जाती है। जब कभी राष्ट्रपति को किसी गंभीर स्थिति का आभास होता है जिसमें युद्ध, बाह्य आक्रमण या फिर सशस्त्र विद्रोह जैसे मामले शामिल होते हैं तो राष्ट्रपति भारत या उसके किसी भाग में राष्ट्रीय आपातकाल लागू कर सकता है।

आपको बता दे कि आपातकाल के सन्दर्भ में युद्ध, बाह्य आक्रमण या फिर सशस्त्र विद्रोह जैसे शब्द 44 वें संसोधन के ज़रिए शामिल किए गए थे। इसके अलावा जब राष्ट्रीय आपातकाल की घोषणा युद्ध या बाह्य आक्रमण के आधार पर की जाती है तो इसे बाह्य आपातकाल के नाम से जाना जाता है, दूसरी ओर जब इसकी घोषणा सशस्त्र विद्रोह के आधार पर की जाती है तब इसे आंतरिक आपातकाल के नाम से जाना जाता है।

आपातकाल लागू होने के बाद शक्तियों के बँटवारे का संघीय ढाँचा व्यावहारिक तौर पर कम करना बंद कर देता है और सारी शक्तियाँ केंद्र सरकार के हाथ में चली जाती हैं। आपातकाल के दौरान सरकार चाहे तो सभी मौलिक अधिकारों पर रोक लगा सकती है या उनमें कटौती कर सकती है। संविधान के प्रावधान में आए शब्दों से ये ज़ाहिर होता है कि आपातकाल को एक असाधारण स्थिति के रूप में देखा गया है। जिसके पीछे सामान्य लोकतांत्रिक राजनीति के कामकाज नहीं किए जा सकने जैसे कारण शुमार हैं। इसी वजह से सरकार को आपातकाल की स्थिति में विशेष शक्तियाँ प्रदान की गई हैं।

भारत मे आपातकाल के चलते कार्यपालिका, विधानमंडल और वित्त जैसे मामले प्रभावित होते हैं। इसके अलावा अनुच्छेद 19 का निलंबन, लोकसभा और विधानसभा के कार्यकाल पर प्रभाव और कई अन्य मूल अधिकार प्रभावित होते हैं। हालाँकि आपातकाल लागू होने के दौरान भी अनुच्छेद 20 यानी अपराधों के लिए दोषसिद्धि के संबंध में संरक्षण और जीवन और स्वतंत्रता का अधिकार प्रदान करने वाला अनुच्छेद 21 प्रभावित नहीं होता।