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Blog / 07 Aug 2019

(Video) भारतीय कला एवं संस्कृति (Indian Art & Culture) : भारतीय मूर्ति और चित्रकला: गुप्तकालीन मूर्तिकला "भाग - 5" (Sculpture and Painting: Gupta Period Sculpture and Architecture "Part - 5")

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(Video) भारतीय कला एवं संस्कृति (Indian Art & Culture) : भारतीय मूर्ति और चित्रकला: गुप्तकालीन मूर्तिकला "भाग - 5" (Sculpture and Painting: Gupta Period Sculpture and Architecture "Part - 5")


परिचय

भारतीय इतिहास विभिन्न संस्कृतियों का दर्शन दिखाता है एवं मूर्तिकला भारत की विभिन्न एवं विविध संस्कृति को अपने में समाहित किये हुए है। भारतीय मूर्तिकला स्वयं में ही अद्भुत है। मूर्तिपूजा भारत की संस्कृति का एक अभिन्न अंग रहा है, अलग-अलग धर्मों से जुड़े अलग-अलग काल-खण्ड के दौरान हमें मूर्तियों का एक अलग रूप देखने को मिलता है। मूर्तियों की नक्काशी, उनकी बनावट, उनका रंग सब कुछ एक महान संस्कृति को परिलक्षित करता है। एवं भारत की ऐतिहासिक विरासत को दर्शाता है।

इसी क्रम में अपने मूर्तिकला विशेषांक के अगले पड़ाव में हम गुप्तकालीन मूर्तिकला की मूर्तिकला एवं उससे जुड़ी संस्कृति का विश्लेषण करने का प्रयास करेंगे।

गुप्तकालीन मूर्तिकला

भारतीय कला के इतिहास में गुप्तकाल को सर्वश्रेष्ठ माना जाता है। इसका कारण यह रहा कि इस युग की कलाकृतियाँ शैली एवं संपूर्णता, सुंदरता एवं संतुलन जैसे कला तत्वों से सुसज्जित हैं। अन्य कलाओं की तरह इस काल में मूर्तिकला का भी सम्यक विकास हुआ। गुप्कालीन मूर्तिकार मूर्तिकला के मर्मज्ञ थे। उनकी मूर्तियों में गांभीर्य, कमनीयता, लालित्य व माधुर्य के दर्शन होते हैं।

गुप्त शासक हिन्दू धर्म के पोषक थे, किंतु उन्होंने बौद्ध धर्म और जैन धर्म के लिए भी उदारता दिखायी। यद्यपि गुप्तकाल का प्रारंभिक दौर हिन्दू कला पर जोर देता है जबकि बाद का युग बौद्ध कला का शिखर युग है। दरअसल गुप्त मूर्तिकला की सफलता पूर्व मध्यकाल की प्रतीकात्मक छवि एवं कुषाण काल की कलात्मक छवि के मध्य निर्मित एवं संतुलन पर आधारित है। इस काल की मूर्तिकला में शारीरिक सौन्दर्य के स्थान पर आध्यात्मिक सौन्दर्य को प्रधानता दी गयी। जहाँ कुषाण काल में पारदर्शी वस्त्र विन्यास का प्रयोग मांसल सौन्दर्य को प्रकट करने के लिए किया जाता था, वहीं गुप्तकाल में इसका प्रयोग इसे आवृत्त करने के लिए किया जाने लगा। यही कारण है कि गुप्तकालीन मूर्तियों में आद्योपान्त आध्यात्मिकता, भद्रता एवं शालीनता दृष्टिगोचर होती है।

वैष्णव मूर्तियाँ: गुप्त धर्म से ब्राह्यण थे और उनकी भक्ति विशेष रूप से विष्णु में थी। अतः उनके समय में भगवान विष्णु की बहुसंख्यक प्रतिमाओं का निर्माण किया गया। मथुरा, देवगढ़ तथा एरण से प्राप्त मूर्तियाँ उल्लेखनीय हैं। इस काल की विष्णु मूर्तियाँ चतुर्भुजी हैं। उनके सिर पर मुकुट, गले में हार तथा कैयूर एवं कानों में कुण्डल दिखाया गया है। प्रलम्बबाहु (लटकती हुई भुजाओं वाली) मूर्ति का केवल धड़भाग ही अवशिष्ट है। यह चतुर्भुजी है, जिसमें अलंकृत मुकुट, कानों में कुण्डल, भुजाओं पर लटकती हुई वनमाला, गले में ग्रैवेयक आदि का अंकन अत्यन्त कलापूर्ण है।

वस्तुतः अवशिष्ट गुप्त मंदिर मूर्तिशिल्प की दृष्टि से अत्यंत समृद्ध हैं। इस प्रसंग में देवगढ़ के दशावतार मंदिर का विशेष रूप से उल्लेख करना अभीष्ट होगा। इस मंदिर की दीवार पर शेषनाग की शैय्या पर विश्राम करते हुए विष्णु का अंकन है। उनकी नाभि से निकलते हुए कमल पर ब्रह्य, ऊपर आकाश में नन्दी पर सवार शिव-पार्वती, मयूर पर कार्तिकेय तथा ऐरावत पर इन्द्र को दिखाया गया है। बैठी हुई लक्ष्मी विष्णु का पैर दबा रही हैं। विष्णु के इस रूप को अनन्तशायी अथवा शेषशायी कहा गया है। कनिंघम के शब्दों में, मूर्तियों का चित्रंकन सामान्यतः ओजपूर्ण है तथा अनन्तशायी विष्णु का रेखांकन तो न केवल सहज, अपितु मनोहर और मुद्रा गौरवपूर्ण है।

उदयगिरी से इस काल की बनी हुई एक विशाल प्रतिमा प्राप्त हुई है। इसके पार्श्व भाग में बने हुए दृश्यों में मकर एवं कच्छप की सवारी में गंगा तथा यमुना की आकृतियाँ उत्कीर्ण हैं। इसमें वाराह को पृथ्वी को दांतों से उठाते हुए दिखाया गया है। ए-एल बाशम के शब्दों में, ‘वह गंभीर भावना, जिसने इस आकृति के निर्माण की प्रेरणा दी, इसे संसार की कला में संभवतः एकमात्र पशुवत मूर्ति का स्थान प्रदान करती है जो आधुनिक काल के मनुष्य को एक सच्चा धार्मिक संदेश देती है।’

शिवलिंग मूर्तियाँ: विष्णु के अतिरिक्त इस काल की बनी शैव मूर्तियाँ, लिंग तथा मानवीय दोनों रूपों में ही मिलती हैं। लिंग में ही शिव के एक अथवा चार मुख बना दिए गये हैं। इस प्रकार के लिंग मथुरा, भीटा, कौशाम्बी, करमदण्डा, खोह, भूमरा आदि स्थानों से मिले हैं। इन मूर्तियों को ‘मुखलिंग’ कहा जाता है। इनमें शिव के सिर पर जटा-जूट, गले में रूद्राक्ष की माला तथा कानों में कुण्डल है। ध्यानावस्थित शिव के नेत्र अधखुले हैं तथा उनके होठों पर मन्द मुस्कान है। जटा-जूट के ऊपर अर्धचन्द्र विराजमान है। इन मुखलिंगों की रचना आकर्षक एवं कलापूर्ण है। शिव के अर्द्धनारीश्वर स्वरूप की मूर्तियों का निर्माण सर्वप्रथम इसी काल में हुआ। अर्द्धनारीश्वर रूप की दो मूर्तियाँ मथुरा संग्रालय में सुरक्षित हैं।

बुद्ध मूर्तियाँ: गुप्तकालीन मूर्तिशिल्प में बुद्ध धर्म का शांति आदर्श अत्यंत भव्यता से बुद्ध की मूर्तियों में अभिव्यक्त हुआ है। उनके चेहरे की भाव मुद्रा और मुस्कान उस परम समरसता की अनुभूति को दर्शाती है, जिसे उस महाज्ञानी ने प्राप्त किया था। इन मूर्तियों के शिल्प की हर रेखा में सौन्दर्य और भाव का परम्परागत स्वरूप दिखाया गया है। बुद्ध की मूर्तियाँ मथुरा और सारनाथ से मिली हैं।

बौद्ध मूर्तियाँ अभय, वरद, ध्यान, भूमिस्पर्श, धर्मचक्रप्रवर्तन आदि मुद्राओं में हैं। इनमें सारनाथ की दृष्टि मूर्ति अत्यधिक आकर्षक है। इसमें बुद्ध पद्मासन में विराजमान हैं तथा उनके सिर पर अलंकृत प्रभामण्डल है। उनके बाल घुंघराले तथा कान लम्बे हैं। उनकी दृष्टि नासिका के अग्रभाग पर टिकी है। यह धर्मचक्रप्रवर्तन मुद्रा में है। वस्तुतः कलाकारों को बुद्ध के शांत तथा निःस्पृह भाव को व्यक्त करने में अद्भुत सफलता मिली है।

पाषाण के अतिरिक्त इस काल में धातुओं से भी बुद्ध मूर्तियाँ बनायी गयीं। गुप्तकाल की अनेक काँसे और तांबे की आकृतियाँ उपलब्ध हैं, जिनमें से अधिकांश बौद्ध हैं। इनमें सुल्तानगंज (बिहार) की मूर्ति विशेषरूप से उल्लेखनीय है। सुल्तानगंज से प्राप्त बुद्ध की प्रतिमा लगभग साढ़े सात फुट ऊँची है जो अब बरमिंघम के संग्रहालय में सुरक्षित है। ताम्रनिर्मित इस मूर्ति में है। संघाटि का घेरा पैरों तक लटक रहा है। यह मूर्ति भी अत्यंत सजीव तथा प्रभावशाली है। यह एक सुंदर आकृति है जो पारदर्शक अँगरखा पहने है।

उस काल की अन्य कृतियों के समान यह भी यथार्थ विवरण है अनुपात की ओर ध्यन आकृष्ट कराकर नहीं, अपितु थोड़े से उठे हुए शरीर की चेष्टाओं की भावना, अंगरखे के किनारों को धीरे से स्पर्श करती हुई सुकुमार उँगलियों तथा कोमत रचना द्वारा सजीवता को भावना प्रदर्शित करती है। गुप्तकालीन मूर्तिकला के प्रमुख केन्द्र मथुरा, सारनाथ और पाटलिपुत्र थे।

गुप्तकालीन धार्मिक सहिष्णुता के वातावरण में कुछ जैन तीर्थंकरों की प्रतिमाएं भी गढ़ी गयीं जो शिल्प की दृष्टि से उच्चकोटि की हैं। यह ध्यानमुद्रा, अजानवाहु एवं नग्न हैं। इनके हथेली तथा तलवों पर धर्मचक्र एवं भौहों के बीच उर्णा की आकृति बनाई गयी है। इनके उष्णीश सुन्दर एवं आकर्षक हैं तथा प्रभामण्डल में विशेष अलंकरण है।

तीर्थंकर मूर्तियों में बिहार के चौसा से प्राप्त तीर्थंकर आदिनाथ की धातु निर्मित मूर्ति उल्लेखनीय है। स्कन्दगुप्त कालीन कहाँवर (देवरिया जिला) से प्राप्त स्तम्भ के ऊपरी भाग पर चार ‘जिन’ मूर्तियाँ तथा नीचे पार्श्वनाथ का चित्रण मिलता है। राजगृह, देवगढ़, बेसनगर आदि से भी कुछ जैन मूर्तियाँ पूर्ण या खण्डित अवस्था में मिलती हैं।

अगले अंक में मूर्तिकला से जुड़े कुछ अन्य रोचक जानकारियों को लेकर हम शीघ्र ही आपके समक्ष प्रस्तुत होंगे।