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Blog / 26 Jul 2019

(Video) भारतीय कला एवं संस्कृति (Indian Art & Culture) : भारतीय मूर्ति और चित्रकला: मौर्यकालीन कालीन मूर्तिकला "भाग - 2" (Sculpture and Painting: Mauryan Age Sculpture and Painting "Part - 2")

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(Video) भारतीय कला एवं संस्कृति (Indian Art & Culture) : भारतीय मूर्ति और चित्रकला: मौर्यकालीन कालीन मूर्तिकला "भाग - 2" (Sculpture and Painting: Mauryan Age Sculpture and Painting "Part - 2")


परिचय

मूर्तिकला भारत की विभिन्न एवं विविध संस्कृति को अपने में समाहित किये हुए है। भारतीय मूर्तिकला स्वयं में ही अद्भुत है। मूर्तिपूजा भारत की संस्कृति का एक अभिन्न अंग रहा है, अलग-अलग धर्मों से जुड़े अलग-अलग काल-खण्ड के दौरान हमें मूर्तियों का एक अलग रूप देखने को मिलता है।

इसी क्रम में अपने मूर्तिकला विशेषांक के अगले पड़ाव में हम मौर्यकाल एवं शुंग व सातवाहन काल की मूर्तिकला एवं उससे जुड़ी संस्कृति का विश्लेषण करने का प्रयास करेंगे।

मौर्यकालीन मूर्तिकला

  • भारत में मूर्तिकला का दूसरा चरण मौर्य काल से आरंभ होता है। सिंधु घाटी के नगरों की समाप्ति से मौर्यों के उदय तक, एक हजार वर्ष से अधिक की अवधि में, कोई भी कलात्मक कृति नहीं मिलती हैं। सिंधु घाटी के नगरों के पश्चात् अशोक स्तंभों के शीर्ष, जिनमें से कुछ संभवतः उसके राज्य से पूर्व निर्मित हुए थे, मूर्तिकला के प्रमुख प्रारंभिक उदाहरण हैं।
  • सारनाथ के स्तंभ के प्रसिद्ध सिंह तथा रामपुरवा के स्तंभ का कम प्रसिद्ध परंतु अधिक सुंदर वृषभ, यथार्थवादी मूर्तिकारों की कृतियाँ हैं जो कुछ न कुछ ईरानी और यूनानी परम्परा के ऋणी हैं। स्तंभों पर बनी हुई पशु आकृतियाँ सिंधु घाटी की मुद्राएँ खोदने वालों की शैली से प्रत्यक्ष रूप से प्रभावित थीं, जिनमें एक यथार्थवादी दृष्टिकोण भी मिलता है।
  • स्तंभों के अतिरिक्त मौर्यकाल की एक कलाकृति दीदारगंज से प्राप्त यक्षी की मूर्ति है। यक्षी के हाथ में चँवर है, जिससे देवताओं और राजाओं पर पंखा किये जाने का संकेत मिलता है। इस मूर्ति के शरीर के निचले हिस्से में वस्त्र है तथा महिला ने कानों, बाहों और गले में बड़ी मात्र में आभूषण पहने हुए हैं। इस प्रतिमूर्ति को भारतीय कला जगत के विकास की एक महत्त्वपूर्ण कड़ी के रूप में देखा जाता है। इसी के साथ, चिपके निचले बस्त्र, वस्त्रहीन धड़ एवं प्रचुर आभूषण आम हो गये।
  • आगरा-मथुरा के मध्य स्थित परखम ग्राम से प्राप्त एक मुख एवं भुजाविहीन मूर्ति इस काल की मूर्तिकला का उत्कृष्ट नमूना है। इस यक्ष मूर्ति को ‘मणिभद्र’ कहा गया है। यह मूर्ति आज भी मथुरा संग्रहालय में रखी गयी है। बेसनगर से प्राप्त एक स्त्री की मूर्ति मिलती है जो मौर्यकालीन मूर्तिकला का प्रतिनिधित्व करती है।
  • वास्तव में ईसा से कुछ शताब्दियों पूर्व की कुछ अन्य प्रमुख मूर्तियाँ, यक्षों की अनेक आकृतियाँ हैं जो सजीव आकार से कुछ बड़ी हैं। वे सुदृढ़, वुषभ के समान ग्रीवा वाली और भारी हैं और यद्यपि प्राविधिक रूप से वे पूर्ण नहीं हैं तथापि उनमें एक तात्विक ठोसपन है जो उत्तरकालीन मूर्तियों में कठिनाई से पाया जाता है। इन आकृतियों के विशाल उदर की तुलना हड़प्पा की मूर्ति के धड़ के उदर से की गयी है, जिससे बीच के लम्बे काल में परम्परा के बने रहने का प्रमाण मिलता है।
  1. मथुरा जिले के परखम ग्राम से मिली यक्ष मूर्ति जिसे ‘मणिभ्रद’ कहा गया है।
  2. मथुरा जिले के बड़ौदा ग्राम से मिली यक्ष-प्रतिमा।
  3. मथुरा के झींग-का-नगरा से प्राप्त यक्षी की प्रतिमा।
  4. मथुरा से प्राप्त यक्ष प्रतिमा।
  5. पद्मावती (ग्वालियर, म-प्र-) से प्राप्त यक्ष-प्रतिमा।
  6. पटना नगर में दीदारगंज से प्राप्त चामर ग्राहिणी यक्षी की प्रतिमा।
  7. पटना से प्राप्त दो यक्ष प्रतिमायें।
  8. बेसनगर (विदिशा) से प्राप्त त्रिमुख यक्षी की प्रतिमा।
  9. राजघाट (वाराणसी) से प्राप्त त्रिमुख यक्ष की प्रतिमा।
  10. विदिशा से प्राप्त यक्ष प्रतिमा।
  11. शिशुपालगढ़ (उड़ीसा) से प्राप्त यक्ष प्रतिमायें।
  12. कुरूक्षेत्र में आमीन से प्राप्त यक्ष प्रतिमा।
  13. मेहरौली से प्राप्त यक्षी की प्रतिमा।

उड़ीसा के धौली और कालसी (देहरादून) के चट्टानों को काटकर बनायी गयी हाथी की आकृतियाँ स्वाभाविक हैं। ये हाथी चट्टान से बाहर निकलते हुए जान पड़ते हैं। हाथी की दोनों ही आकृतियाँ उत्कीर्ण मूर्तिकला का सुंदर उदाहरण प्रस्तुत करती हैं। अशोक स्तंभों के शीर्षों पर बनी पशुओं की आकृतियाँ मौर्ययुगीन मूर्तिकला का सर्वोत्तम नमूना हैं।

शुंग एवं सातवाहन कालीन मूर्तिकला

  • मौर्यों के बाद उत्तर भारत में मुख्यतः सत्ता में शुंग रहे। सातवाहनों के पास दक्षिण-पश्चिम का क्षेत्र था। इन दोनों के कल में कला रचनात्मक गतिविधि के चरण में पहुँची, जिसने बौद्ध धर्म के सहारे और उसको मुख्य स्रोत बनाते हुए घरेलू कलात्मक आंदोलन का एक साथ प्रतिनिधित्व किया। शुंभ-सातवाहन युग की कला का प्रभाव उत्तर भारत के बोधगया, साँची और भरहुत के बौद्ध स्तूपों के प्रवेश द्वार और वेष्टनियों में स्पष्ट रूप से देखने को मिलता है।
  • दरअसल मौर्यकाल के पश्चात बुद्ध या उनके शिष्यों के अवशेषों पर स्तूपों का निर्माण हुआ, जिनके रेलिंग्स और द्वारों पर मूर्तियाँ उत्कीर्ण करके उन्हें सजाया गया। इनमें बुद्ध की जीवन कथा और बौद्ध साहित्य के अनेक दृश्य दिखाये गये हैं। भरहुत, गया और साँची के महान बौद्ध स्थलों की पाषाण वेष्टनियाँ और प्रवेश द्वारों पर खुदी मूर्तियाँ शुंग-सातवाहन कालीन मूर्तिकला के उत्कृष्ट उदाहरण हैं। भरहुत की मूर्तिकला गया और साँची की शैली से कम विकसित है और संभवतः यह प्राचीनतम है जबकि साँची के प्रवेश-द्वार जिनकी खुदाई अधिक स्थिरता एवं कौशल से हुई थीं, संभवतः इन तीनों में सबसे बाद की है।
  • भरहुत में स्तूप की पाषाण वेष्टनियों के सीधे खड़े स्तंभों पर समस्त श्रेष्ठ भारतीय मूर्तिकला के समान यक्षों और यक्षियों की सुन्दरता से पूर्ण की गयी एवं अलंकारिक मूर्तियाँ खुदी हुई हैं। उनकी समतलता से यह संकेत मिलता है कि कलाकार हाथी दाँत पर कार्य करने में दक्ष थे। गया की पाषाण वेष्टनियाँ, जो एक स्तूप के चारों ओर न होकर उस पवित्र पथ के चारों ओर हैं जहाँ ज्ञान-प्राप्ति के उपरांत ध्यानमग्न बुद्ध ने भ्रमण किया था, भरहुत से प्रगति की ओर बढ़ती प्रतीत होती हैं। आकृतियाँ अधिक गहरी, अधिक चेतन और अधिक गोलाकार हैं।
  • इससे इस काल के मूर्तिकारों के कौशल और दक्षता का पता चलता है। प्रारंभिक उत्तर भारतीय मूर्तिकला की महत्त्वपूर्ण सफलता निस्सन्देह साँची है। यहाँ का स्तूप अत्यंत प्राचीन नक्काशी से सुसज्जित है। यक्षियाँ मुस्कुराती हैं जब वे सुंदर मुद्राओं में झुकती हैं अथवा पादांगों के लिए ब्रैकेट का काम करती हैं जो स्थूल हाथियों अथवा प्रसन्नता से दाँत निकाले हुए बौनों पर टिके हैं। ऊर्ध्वों और पादांगों के समतल धरातल से युक्त चौखटों पर बुद्ध के जीवन अथवा जातक कथाओं के दृश्य बनाए गये हैं। इनमें कुछ चेष्टाएँ तो स्पष्टतया मेसोपोटामिया या फारस से प्रेरणा प्राप्त लगती हैं, परंतु सम्पूर्ण रूप में, अपने आकार के पेचीदेपन में, प्रसन्नतापूर्ण यथार्थ में साँची के प्रवेश-द्वार की नक्काशी किसी पूर्व अनुमानित योजना के अनुसार नहीं हुई थी।
  • मूर्तिकारों की नियुक्ति धार्मिक मठों द्वारा न होकर निजी संरक्षकों द्वारा होती थी जो स्तूप को सुन्दर रूप देकर कीर्ति प्राप्त करना चाहते थे और मूर्तिकार अपने संरक्षकों द्वारा बतायी हुई नक्काशी उस ढंग से करते थे, जिसे वे सर्वश्रेष्ठ समझते थें कलाकार जानते थे कि उन्हें क्या प्रदर्शित करना है। वे अपने मस्तिष्क में स्पष्ट रूप् से देख लेते थे कि उसे कैसे उकेरना है।
  • यह काल भारतीय मूर्तिकला के विकास का प्रारंभिक और सौन्दर्यपूर्ण आंदोलन का युग रहा जो कुषाण काल में मूर्तिकला के विकास के महानतम युग में प्रविष्ट हुआ।

मूर्तिकला के इस अंक में इतना ही, अगले अंक में हम कुछ अन्य कालखण्डों से जुड़ी मूर्तिकला के बारे में रोचक जानकारियाँ लेकर शीध्र प्रस्तुत होंगे।