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Blog / 12 Nov 2019

(Video) भारतीय कला एवं संस्कृति (Indian Art & Culture) : भारतीय मूर्ति और चित्रकला: पहाड़ी शैली (Sculpture and Painting: Pahaadi Style)

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(Video) भारतीय कला एवं संस्कृति (Indian Art & Culture) : भारतीय मूर्ति और चित्रकला: पहाड़ी शैली (Sculpture and Painting: Pahaadi Style)


पहाड़ी शैली

भौगोलिक दृष्टि से भारत के अन्य क्षेत्रों की ही तरह कश्मीर, पंजाब-हिमांचल तथा उत्तर प्रदेश के पहाड़ी क्षेत्रों में प्राचीन भारतीय चित्रकला परम्परा का संशोधित रूप विकसित होता रहा। इस शैली में राजस्थानी, मुगल तथा स्थानीय लोक तत्व का समावेश दिखायी पड़ता है। इस शैली की कई उपशैलियाँ हैं, जिनमें प्रमुख हैं:

  • बूंदी शैलीः यह शैली बूँदी कला में कतिपय परिवर्तनों के साथ उदित हुई। इस शैली को राजा उम्मेद सिंह द्वारा प्रश्रय मिला। यह शैली मेवाड़ शैली की एक स्वतंत्र शाखा थी। इस शैली में बना बारहमासा चित्र विशेष रूप से उल्लेखनीय है।
  • बसौली शैलीः बसौली शैली का सबसे प्राचीन प्रमाण राजा कृपाल सिंह (17वीं सदी) के समय का प्राप्त होता है। इस शैली में सामाजिक और धार्मिक दोनों प्रकार का चित्रंकन हुआ है। धार्मिक चित्रें में भागवत पुराण, गीत गोविंद, रस मंजरी आदि ग्रंथों को आधार बनाया गया है। कई चित्र रागमालाओं पर आधारित हैं। भाव प्रवण कमल सदृश नयन इस शैली की एक अनूठी विशेषता है।
  • गुलेर शैलीः इस शैली का प्रादुर्भाव 18वीं सदी के प्रारम्भ में हुआ। बसौली शैली से इसकी साम्यता का प्रमाण भवन और पेड़-पौधे हैं। राजा दिलीप सिंह ने इस शैली को संरक्षण प्रदान किया था। इस शैली को नया रूप देने का श्रेय नैनसुख नामक चित्रकार को जाता है। इस शैली में स्त्री में चित्रें में भाव-प्रवणता, लावण्य तथा सौन्दर्य का संगम दृष्टिगत होता है।
  • जम्मू शैलीः गुलेर शैली से समानता रखने वाली जम्मू शैली को राजा बलवंत सिंह ने प्रश्रय दिया। इस शैली के अधिकांश चित्र राजाओं के व्यक्ति चित्र हैं। कुछ चित्र रामायण, दशावतार और कृष्ण लीलाओं से भी संबंधित हैं। राजा बलवंत सिंह के घोड़ों का निरीक्षण तथा कत्थक नर्तकी इस शैली के उत्कृष्ण चित्र हैं।
  • चम्बा शैलीः बसौली तथा गुलेर शैली से प्रभावित इस शैली को राजा राज सिंह का संरक्षण मिला। इस शैली के विषय धार्मिक तथा नायिका भेद से संबंधित हैं। बार्डर में बेलबूटों से सजावट की गयी है।

कांगड़ा चित्रकला

  • कला जगत के लिए कांगड़ा कलम अनुपम भेंट है। कांगड़ा कलम का नाम कांगड़ा रियासत के नाम पर पड़ा और यहाँ इसे पुष्पित-पल्लवित होने के लिए उचित परिवेश मिला।
  • 18वीं सदी के मध्य में जब सोहली चित्रकला समाप्त होने लगी तब कांगड़ा रियासत में पहाड़ी चित्रकला को कांगड़ा चित्रकला के नाम से जाना जाने लगा। वैसे तो कांगड़ा चित्रकला के मुख्य स्थान गुलेरा, बसोहली चंबा, नूरपुर, बिलासपुर और कांगड़ा है, लेकिन बाद में यह शैली मंडी, सुकेत, कुल्लू, नालागढ़ और गढ़वाल तक फैली। वर्तमान में यह पहाड़ी चित्रकला के नाम से विख्यात है। इस काल का जनम गुलेर नामक स्थान में हुआ। मुगल चित्रकला शैली के कलाकार परिवार को राजा दलीप सिंह ने अपने राज्य गुलेर (1695-1741) में शरण दी और चित्रें में चित्रकला विकसित होना शुरू हुई। इन चित्रें में चित्रकार अपने मालिक के प्रेम प्रसंग के दृश्य, राजा-कृष्ण के प्रेम प्रसंग के दृश्य जैसे विषय लेते थे। कलाकार प्राकृतिक एवं ताजे रंगों का प्रयोग करते थे। ये रंग खरिज व वनस्पति से बनते थे, इनसे चित्रें में प्राकृतिक दृश्य जैसी हरियाली होती थी। कांगड़ा चित्रकला का मुख्य विषय श्रृंगार है। कांगड़ा चित्रकला के पात्र उस समय समाज की जीवन शैली दर्शाते थे। भक्ति सूत्र इसकी मुख्यशक्ति है और राधा-कृष्ण की प्रेम कथा इसका मुख्य भक्ति अनुभव है जिसे देखने के लिए आधार मन है। भागवत पुराण और जयदेव की गीत गोविंद की प्रेम कविताएँ इसका मुख्य विषय रहा है। राधा-कृष्ण की रासलीला को दर्शाते हुए आत्मा का परमात्मा के साथ मिलन दिखाया है। कुछ चित्रें में कृष्ण को वन में नाचते हुए दिखाया है, जहाँ सब गोपियाों की नजरें उन्हीं पर हैं। कृष्ण लीला पर आधारित चित्र, चित्रकारों के प्रिय रहे हैं। प्रेम प्रसंग ही पहाड़ी चित्रकला का मुख्य विषय वस्तु रहा है।
  • भागवत पुराण से प्रभावित कांगड़ा चित्र वृन्दावन और यमुना के साथ कृष्ण का बचपन दर्शाते हैं। इसमें दूसरा प्रिय विषय नल दमयन्ती की कहानियाँ हैं।
  • यह शैली प्रकृतिवादी है और इसमें बहुत ध्यान से छोटी-छोटी चीजें विस्तार में बनाई गई हैं। कांगड़ा चित्रकला में स्त्री का आकर्षण बड़ा ही सुंदर ढंग से दिखाया जाता है। इनके चेरहे कोमल, सुंदर तथा देह सुगठित होती है। कालांतर में कांगड़ा चित्रकला में रात्रि के दृश्य तथा तूफान और बिजली गिरना भी बनाए गए। कालांतर में यह कला लुप्त होती गई। इस कला की उन्नति के लिए कांगड़ा आर्ट प्रमोशन सोसायटी, धर्मशाला (हि-प्र-) पिछले कुछ सालों से अहम भूमिका अदा कर रही है।