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Blog / 26 Sep 2019

(Video) भारतीय कला एवं संस्कृति (Indian Art & Culture) : भारतीय मूर्ति और चित्रकला: बाघ चित्रकला (Sculpture and Painting: Bagh Paintings)

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(Video) भारतीय कला एवं संस्कृति (Indian Art & Culture) : भारतीय मूर्ति और चित्रकला: बाघ चित्रकला (Sculpture and Painting: Bagh Paintings)


चित्रकला की विभिन्न विधाओं पर चर्चा करने के बाद अपने Art & Culture series के आज के अंक में हम कुछ अन्य चित्रकलाओं के बारे में चर्चा करेंगे-

बाघ चित्रकला

उत्तरी भारत में मध्य प्रदेश के धार के पास बाघ गुफाओं के चित्र अजंता शैली के ही विस्तार कहे जा सकते हैं। आकल्पन वैविध्य, सबल चित्रंकन और अलंकरण की गुणवत्ता की दृष्टि से उन्हें अजंता के चित्रें के समकक्ष ही कहा जा सकता है। बाघ गुफाओं के चित्रें में लाल, पीला, सफेद, खाकी तथा काले रंग का प्रयोग किया गया है। यहाँ के चित्र शांति, करूणा, सांत्वना आदि को अभिव्यक्त करने की दृष्टि से अद्वितीय हैं। यहाँ की गुफाओं में बने चित्र अत्यंत सुन्दर हैं। फर्ग्यूसन तथा वर्गेस जैसे कलाविद इनका काल 350-450 ई- अथवा 450-500 ई- के बीच निर्धारित करते हैं। बाघ पहाड़ी के निकटवर्ती क्षेत्र से प्राप्त कुछ ताम्रपत्रें पर ब्राह्यी लिपि में एक लेख अंकित है, जिसका समय चौथी-पांचवी सदी निर्धारित किया जाता है। माना जाता है कि इन गुफाओं का निर्माण इन क्षेत्र में शासन करने वाले गुप्तों के सामन्तों ने कराया था। अजंता शैली की चित्रकारी के चिन्ह दक्षिण की अन्य गुफाओं मुख्यतः बादामी और एलोरा में पाये जाते हैं। सुदूर दक्षिण के तमिल देश में सीतनवसल नामक स्थान में एक सुंदर यद्यपि अत्यधिक नष्टप्राय भित्ति चित्र प्राप्त होता है। सीतनवसल के चित्र जैन विषयों और बिम्ब प्रतीकों पर आधारित हैं। बाद में इस शैली का प्रसार श्रीलंका तक हुआ। वहाँ सिगिरिया के सुंदर भित्ति चित्रें में अजंता की परंपरा का प्रत्यक्ष प्रभाव दिखायी देता है।

सभी गुफाओं में चित्र बनाए गए किंतु प्राकृतिक प्रकोप एवं मानव असावधानों के फलस्वरूप अधिकांश चित्र नष्ट-भ्रष्ट हो गए तथा चौथी-पांचवीं गुफाओं के भित्ति-चित्र सबसे अधिक सुरक्षित अवस्था में हैं। ये चित्र अजन्ता के चित्रें से इस अर्थ में भिन्न हैं कि इनका विषय धार्मिक न होकर लौकिक जीवन से सम्बन्धित है। बाघ की चौथी-पांचवी गुफाओं को संयुक्त रूप से ‘रंग महल’ कहा जाता है। इनका बरामदा परस्पर मिला हुआ है। इनके बरामदे तथा भीतरी दीवारों पर सर्वाधिक चित्र बनाए गए हैं।

संगीत युक्त नृत्य के अभिनय का एक दृश्य प्राप्त हुआ है, जिसमें स्त्रियों और पुरूषों को अलंकृत वेषभूषा में स्वच्छन्दतापूर्वक नृत्य करते हुए चित्रित किया गया है। उनके हाथों में मृदंग, करताल, कांस्यताल आदि वाद्य यंत्र हैं। बायीं ओर सात स्त्रियों के बीच विचित्र वेषभूषा वाली कोई नर्तकी (अथवा नर्तक) है, जो मोतियों की माला पहने है। स्त्रियों के केश विन्यास आकर्षक हैं। इस चक्राकार नृत्य को भारतीय परम्परा में ‘हल्लीसक’ कहा गया है, जिसकी उत्पत्ति भगवान कृष्ण की रासलीला से माना जाता है। जहाँ तक चित्रण तकनीक का प्रश्न है, गुफा की दीवारों पर लेप नहीं लगाए जाते थे। चिकनी दीवार पर चूने की सफेदी की जाती थी तथा उसके सूखने पर चित्र बनाए जाते थे। रंगों में लाल, पीला, सफेद, खाकी तथा काले रंग का प्रयोग किया गया है। यहाँ के चित्रण में जो व्यापकता एवं विस्तार दिखाई देता है, वह अजन्ता में भी नहीं मिलता।

अजंता और बाघ की कला दक्षिण भारत में सित्तनवसल में दृष्टिगोचर होती है। सित्तनवसल के चित्र जैन विषयों और बिम्ब प्रतीकों पर आधारित हैं। वास्तु तथा तक्षण के साथ-साथ ऐलोरा चित्रकला का भी महत्त्वपूर्ण केन्द्र था। ऐलोरा के चित्र जैन तथा ब्राह्यण धर्मों से संबंधित हैं। कैलाश मंदिर में की गयी चित्रकारियाँ उत्तम कोटि की हैं। मण्डप की छत पर नटराज शिव का चित्र है, जिसमें उनकी दस भुजाएं दिखाई गयी हैं। चित्रें के माध्यम से शिव की विविध लीलाओं को दिखाया गया है। चित्रें में चटक रंगों की प्रमुखता है तथा रेखाओं का उभार प्रभावपूर्ण है। विद्याधरों की उड़ती पंक्ति तथा विद्याधर दम्पति के चित्र मनोहर हैं। चित्रकला पर अजन्ता का प्रभाव है किन्तु शैली भिन्न प्रकार की है।

पाल चित्रकला

चित्रकला की पाल शैली बंगाल के पाल शासकों के संरखण में विकसित हुई। पाल शैली की चित्रकला का विकास ताड़पत्रें और कागज की पांडुलिपियों तथा काष्ठ आवरणों पर चित्रंकन से हुआ। ये सभी चित्रंकन बौद्ध धर्म की वज्रयान शाखा से प्रेरित हैं। अजंता के अनुकरण पर निर्मित इस शैली ने तिब्बत तथा नेपाली चित्र शैली को प्रभावित किया। वर्तमान में इस शैली के चित्र विभिन्न संग्रहालयों में सुरक्षित हैं।

अपभ्रंश चित्रकला

इस चित्रकला का उद्भव एवं विकास पश्चिम भारत में हुआ। चित्रकला की यह शैली भारत में पाँच शताब्दियों (8वीं से 13वीं सदी) की निरंतर परंपर के रूप में प्रचलित रही। इसके दो चरण हैं- पहला, ताड़पत्रें पर चित्रित पांडुलिपियों का और दूसरा चरण कागज पर चित्रंकन का है। सर्वश्रेष्ठ चित्रकारी संक्रमणकालीन है जब कागज, ताड़पत्रें का साथ देने के लिए सुलभ हो गया था। दरअसल अपभ्रंश शैली 8वीं सदी से 14वीं सदी तक विजयनगर एवं बीजापुर के राजाओं के संरक्षण में फली-फूली।

इस चित्रकला की शैली के विषय जैन धर्म, वैष्णव धर्म और तत्कालीन भौतिक जीवन से सम्बन्धित हैं। अपभ्रंश शैली की विशिष्टताएँ - कोणीय चेहरे जिनका सिर्फ 3/4 भाग ही दृष्टिगोचर होता है, नुकीली नाक व बड़ी आंखें, सादगीपूर्ण अलंकरण तथा अनेक प्रकार के विवरणों के चित्र द्वारा प्रकट होती हैं। इस शैली में भड़कीले रंगों का प्रयोग किया गया है। प्रायः सुनहरें रंग का प्रयोग अधिक मिलता है।

चोल चित्रकला

वास्तुकला और तक्षण कला की तरह चित्रकला को भी चोल शासकों ने संरक्षण प्रदान किया। चित्रकला के विकास में चोलों ने अभूतपूर्व योगदान दिया। इस युग के कलाकारों ने मंदिरों की दीवारों पर अनेक सुंदर चित्र बनाये हैं। अधिकांश चित्र वृहदेश्वर मंदिर की दीवारों पर उत्कीर्ण मिलते हैं। ये अत्यंत आकर्षक एवं कलापूर्ण हैं। प्रायः धार्मिक चित्र मिलते हैं। यहाँ शिव की विविध कालाओं से सम्बन्धित चित्रकारियाँ मिलती हैं। एक चित्र में राक्षस का वध कराती हुई दुर्गा तथा दूसरे में राजा को सपरिवार शिव की पूजा करते हुए प्रदर्शित किया गया हैं।