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Blog / 12 Jul 2019

(Video) भारतीय कला एवं संस्कृति (Indian Art & Culture) : भारत की संगीत कला "भाग -2" (Music of India "Part - 2")

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(Video) भारतीय कला एवं संस्कृति (Indian Art & Culture) : भारत की संगीत कला "भाग -2" (Music of India "Part - 2")


मुख्य बिंदु:

भारत में धार्मिक मान्यतानुसार कहा जाता है कि संगीत पहले ब्रह्याजी के पास था। उन्होंने यह कला शिव जी को दी, जिनसे यह देवी सरस्वति को प्राप्त हुई। इसीलिए सरस्वति को संगीत की अधिष्ठात्री माना गया है। इसके अलावा एक अन्य मत के अनुसार सृष्टिकर्ता ने नारी सौन्दर्य में आकर्षण पैदा करने के लिए उसे संगीत से अलंकृत किया क्योंकि यदि नारी के अंदर संगीत न होता तो वह सृष्टि की जननी न बन पाती। हालांकि वैज्ञानिक मतानुसार संगीत की उत्पत्ति अफ्रीका से मानी जाती है क्योंकि मानव की उत्पत्ति भी वहीं से मानी जाती है और प्राचीन काल से ही लगभग सभी मानव समुदायों में संगीत किसी न किसी रूप में अस्तित्व में रहा है। इन सभी दृष्टिकोणों के मध्य संगीत की महत्ता अक्षुण्ण है और इतना तो निर्विवाद है कि संगीत के अभाव में जीवन का श्रृंगार न हो पाता।

इसी क्रम में अपने Art & Culture की संगीत यात्रा में हम आज शास्त्रीय संगीत के बारे में जानने का प्रयास करेंगे-

शास्त्रीय संगीत

संगीत के प्राचीन शास्त्रें के आधार पर प्रयुक्त संगीत ‘शास्त्रीय संगीत’ कहलाता है। शास्त्रीय संगीत को दो प्रमुख शैलियों में विभाजित किया गया है- हिन्दुस्तानी संगीत शैली और कर्नाटक संगीत शैली। आरंभ में संगीत की ये दोनों शैलियाँ भौगोलिक क्षेत्र की द्योतक थीं, परन्तु वर्तमान में संगीत के दोनों स्वरूप एवं क्षेत्र में काफी परिवर्तन हो गया है। ऐतिहासिक दृष्टि से हिन्दुस्तानी संगीत को उत्तरी भारत का संगीत और कर्नाटक संगीत को दक्षिणी भारत का संगीत कहने में कोई आपत्ति नहीं है, परंतु आधुनिक हिन्दुस्तानी संगीत का क्षेत्र इतना व्यापक हो गया है कि उसे मात्र उत्तरी भारत की सीमा में बांधना आधुनिक होगा। दरअसल हिन्दुतानी संगीत की पद्धति सामवेद से ही प्रसूत होकर विभिन्न समसामयिक परिवर्तनों को अपने अंदर समाहित करते हुए हमारे समक्ष उपस्थित है।

छोनों ही भारतीय संगीत की पद्धतियों की व्याख्या करते समय भ्रम की स्थिति नहीं होनी चाहिए कि ये दोनों शैलियाँ एक-दूसरे के विपरीत हैं। दरअसल ये दोनों ही शैलियाँ सांस्कृतिक रूप से हमारी सांस्कृतिक आत्मा के दो अनिवार्य अंग हैं। कर्नाटक संगीत की बहुत सी रागें हिन्दुस्तानी शैली के रागों से मिलती-जुलती हैं। ‘तिल्लना’ हिन्दुतानी संगीत के ‘तराना’ की भाँति ही है। लेकिन हिन्दुतानी संगीत में रागों का भाव प्रदर्शन उनसे कही अधिक व्यापक है। हिन्दुस्तानी संगीत अपने रागों का कर्नाटक संगीत से कहीं अधिक सूक्ष्म, भावुक और कलात्मक विश्लेषण भी करता है। कर्नाटक संगीत समय के साथ इतना प्रभावित नहीं हुआ जितना कि हिन्दुतानी संगीत। कर्नाटक संगीत में एक प्रकार की सभ्य कट्टरता है और वह इतना रोचक, भावुक और परिवर्तनशील नहीं रहा है जितना कि हिन्दुस्तानी संगीत।

कुल मिलाकर कहा जा सकता है कि संगीत की इन दोनों धाराओं में कुछ अंतर अवश्य है, किन्तु ये दोनों धाराएँ परस्पर विरोधी नहीं है, अपितु ये दोनों ही भारतीय संस्कृति की अमूल्य धरोहर हैं।

शास्त्रीय संगीत की अन्य शैलियाँ

हिन्दुतानी और कर्नाटक संगीत नामक दो प्राचीन भारतीय संगीत शैलियों के अतिरिक्त मध्यकाल में भी कुछ शास्त्रीय संगीत शैलियों का विकास हुआ, जिनका विवरण इस प्रकार है-

ध्रुपद

संगीत की इस शैली का उद्भव 15वीं-16वीं शताब्दी में ग्वालियर के राजा मान सिंह के समय हुआ। इस संगीत शैली के विकास का श्रेय तानसेन को दिया जाता है। स्वर, ताल और पर गायन इन तीनों का सम्यक रूप ध्रुपद शैली प्रस्तुत करती रही। इसमें आलाप शुद्ध स्वरों की क्रमशः बढ़त दिखाता है, फिर इसमें गति आती हैं। तानसेन, स्वामी हरिदास, बैजूबावरा आदि ध्रुपद शैली के गायक थे। वर्तमान प्रसिद्ध ध्रुपद गायकों में डागार बंधु, अभय नारायण मलिक, विदुर मलिक इत्यादि हैं।

संगीत की ध्रुपद शैली की चार शाखाएँ हैं, जिन्हें ‘बानी’ कहा जाता है जो निम्नवत हैं- 1. खंडार, 2. नौहार, 3. डागुर तथा 4. गौड़हार।

  • खंडार बानीः यह बानी बेसरा गीत से मिलती-जुलती है और इसमें तेज लय वाली गमक का अधिक प्रयोग किया जाता है। तानसेन ने इस बानी को सेनापति माना है।
  • नौहार बानीः इस बानी में अलंकार का प्रयोग किया जाता है, जिसमें स्वर गमक के साथ एक विशेष ढंग से लगाए जाते हैं। तानसेन इसे निम्न श्रेणी का पदाधिकारी मानते हैं।
  • डागुर बानीः इसमें मींड एक विशेष प्रकार से लगायी जाती है ओर गमक का भी बहुत सुन्दर और कलात्मक प्रयोग किया जाता है। तानसेन के गुरू हरिदास स्वामी इस बानी का प्रयोग करते थे।
  • गौड़हार बानीः इसे शुद्ध हिन्दुस्तानी संगीत का परिचायक माना जा सकता है। तानसेन ने इसे सभी बानियों का राजा माना है। इसमें मींड का अधिक प्रयोग किया जाता है।

ख्यालः

‘ख्याल’ का अर्थ है, ‘कल्पना’ अर्थात् विभिन्न प्रकार की शब्द रचना के अंतर्गत’ रागानुकूल स्वरों के माध्यम से अपना भाव प्रकट करना ख्याल कहलाता है। यक एक स्वर प्रधान गायन शैली है। प्रसिद्ध सूफी संत अमीर खुसरो को ख्याल का जनक माना जाता है। ख्याल को शास्त्रीय स्वरूप प्रदान करने का श्रेय सदानन्द नियामक खां (18वीं शताब्दी) को जाता है।

ख्याल तीन प्रकार के होते हैं-

  1. विलम्बित ख्याल,
  2. मध्य ख्याल,
  3. द्रुत ख्याल।

विलम्बित ख्यालः धीमी लय में गाये जाने वाले ख्याल विलंबित ख्याल कहलाते हैं। इसमें एक ताल, झूमरा, पिलवाड़ा इत्यादि तालों का प्रयोग किया जाता है।

मध्य ख्यालः इसमें ख्याल मध्य लय के अंतर्गत गाए जाते हैं, इसलिए इन्हें मध्य लय के ख्याल कहते हैं। इनमें झपताल, एकताल, तीनताल आदि का प्रयोग किया जाता है।

द्रुत ख्यालः तेज लय में गाए जाने वाले ख्याल द्रुत ख्याल कहलाते हैं।

अगले अंक में हम शास्त्रीय संगीत के प्रसिद्ध घरानो के बारे में गहन अध्ययन करके आपके समक्ष फिर से प्रस्तुत होंगें।