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Blog / 06 Jul 2019

(Video) भारतीय कला एवं संस्कृति (Indian Art & Culture) : भारत की युद्ध कलाएं (Martial Arts of India)

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(Video) भारतीय कला एवं संस्कृति (Indian Art & Culture) : भारत की युद्ध कलाएं (Martial Arts of India)


मुख्य बिंदु:

भारत राजा रानियों का देश रहा है कई दन्त कथाओ के अनुसार भगवान का अवतरण और उनके खंडकाल का भी वर्णन भारत के सन्दर्भ में किया गया है, शास्त्रों के अनुसार व्यक्ति के जीवन में चार आश्रमों का वर्णन देखने को मिलता है जिसमे ब्रह्मचर्य, गृहस्थ, वानप्रस्थ और सन्यास से जीवन क्रम को बनाया गया है. इसी सन्दर्भ में युद्ध कला ब्रह्मचर्य काल में ही शिक्षा एवं पाठ्यक्रम का हिस्सा माना जाता रहा है.

भारत में कई युद्ध कलाओ ने मूल रूप से जन्म लिया और कई युद्ध कलाओ को आयातित या बाहर का भी माना जाता है. भारत के हर भाग में युद्ध कलाओं ने अपना एक अहम् स्थान बनाया है..

इसी क्रम में आज के अपने आर्ट एंड कल्चर की यात्रा में हमने युद्ध कलाओं या मार्शल आर्ट के पड़ाव तक ले जाने का प्रयास किया है आइये इसी को विस्तार से जानने का प्रयास करते है

मार्शल आर्ट भारत की प्राचीन संस्कृति और पारंपरिक खेलों का एक हिस्सा है। आमतौर पर मार्शल आर्ट का एक पारंपरिक रूप जो दक्षिण भारत में शुरू हुआ, और अब भारत के अलग अलग क्षेत्रों की अलग अलग संस्कृतियों में इसके अलग-अलग नाम और अलग-अलग रूप हैं। भारतीय कुश्ती भी पूरे भारत में पाए जाने वाले भारतीय मार्शल आर्ट का एक हिस्सा है। भारतीय मार्शल आर्ट का आधुनिक एशियाई मार्शल आर्ट के विकास में एक महत्वपूर्ण प्रभाव है।

आजकल आत्म-रक्षा की भावना और फिटनेस के लिए बहुत से लोग मार्शल आर्ट के लिए चयन कर रहे हैं। भारतीय संस्कृति के अन्य मामलों में, भारतीय मार्शल आर्ट को मुख्यतः उत्तरी और दक्षिणी शैलियों में विभाजित किया जा सकता है।

कलरीपायट्टु शैली

इसका जनक परशुराम और अगस्त्य को माना जाता है। कलरीपायट्टु दक्षिणी केरल से उत्पन्न भारत की एक युद्ध कला है। संभवतः सबसे पुरानी अस्तित्ववान युद्ध पद्धतियों में से एक, ये केरल में और तमिलनाडु व कर्नाटक से सटे भागों में साथ ही पूर्वोत्तर श्रीलंका और मलेशिया के मलयाली समुदाय के बीच प्रचलित है। इसका अभ्यास मुख्य रूप से केरल की योद्धा जातियों जैसे नायर, एज्हावा द्वारा किया जाता था।

कलारीपयट में हमले, पैर से मारना, मल्लयुद्ध, पूर्व निर्धारित तरीके, हथियारों के जखीरें और उपचार के तरीके शामिल हैं। इसके क्षेत्रीय स्वरूप करेल की भौगोलिक सि्िाति के अनुसार वर्गीकृत हैं, ये हैं मलयालियों की उत्तरी शैली, तमिलों की दक्षिणी शैली और भीतरी केरल से केन्द्रीय शैली, उत्तरी कलारीपयट कठिन तकनीक के सिद्धांत पर आधारित है, जबकि दक्षिणी शैली मुख्यतः नर्म तकनीकों का अनुसारण करती है। हालांकि दोनों प्रणालियां आंतरिक और बाह्य अवधारणाओं का उपयोग करती हैं।

कलारीपयट के कुछ युद्ध अभ्यासों को नृत्य में उपयोग किया जा सकता है और कथकली नर्तक जो युद्ध कला को जानते थे, वे स्पष्ट रूप से अन्य दूसरे कलाकारों की तुलना में बेहतर थे। कुछ पारंपरिक भारतीय नृत्य स्कूल अभी भी कलारीपयट को अपने व्यायाम नियम के हिस्से के रूप में शामिल करते हैं। 19वीं सदी में, अग्निशस्त्रें के आने कारण, जब नायर योद्धा अंग्रेजों से हार गए और विशेष रूप से ब्रिटिश औपनिवेशिक शासन की पूर्ण स्थापना के कारण कलारीपयट पतन की अवस्था में चला गया। अंग्रेजों ने अंततः विद्रोह और विरोधी औपनिवेशिक भावनाओं को रोकने के लिए कलारीपयट और तलवार धारण करने की नायरों की प्रथा पर प्रतिबन्ध लगा दिया। इस दौरान कई भारतीय युद्धकलाओं का गुप्त रूप से अभ्यास किया जाने लगा जो अक्सर ग्रामीण क्षेत्रें तक सीमित था।

कलारीपयट में सार्वजनिक रूचि का पुनरूत्थान तेल्लिचेरी में 1920 के दशक में सम्पूर्ण दक्षिण भारत में पारंपरिक कलाओं के पुर्न-अवष्किार की लहर के रूप में शुरू हुआ और 1970 तक दुनिया भर में युद्ध कला में रूचि के बढ़ने तक जारी रहा। हाल के वर्षों में अंतर्राष्ट्रीय और भारतीय फिल्मों जैसे-इंडियन (1996), अशोका (2001), द मिथ (2005), द लास्ट सीजन (2007) और जापानी अनिमे/मंगा श्रृंखला में इसके शामिल होने के साथ इस कला को और लोकप्रिय बनाने का प्रयास किया जा रहा है।

सिलाम्बम शैली

सिलाम्बम तमिलनाडु का हथियार आधारित भारतीय मार्शल आर्ट है परन्तु पारम्परिक रूप से श्रीलंका एवं मलेशिया के तमिल समुदाय में भी प्रचलित है। (या व्यवहार मे लाया जाता है) यह नजदीकी रूप से केरल के करलीपयट तथा श्रीलंका के अंगमपोरा से सम्बन्धित है। सिलाम्बम शब्द की उत्पत्ति तमिल शब्द ‘‘सिलम’’ जिसका अर्थ ‘पहाड़ी’ और कन्नड़ शब्द ‘बम्बु’, जहाँ से इंगलिश शब्द 'छेद-दच्च' की उत्पत्ति हुई से हुआ है। सिलमबम्बु शब्द कुरिंजी पहाड़ी जो कि वर्तमान में केरल में है, के एक विशेष प्रकार के ‘बाँस’ को दर्शाता है। ‘पतले लम्बे बाँस के डण्डे’ के कारण इसका नाम सिलाम्बम पड़ा। मास्टर्स ‘असान’ कहे जाते हैं जबकि ग्रैण्डमास्टर्स ‘पेरियासान’ या ‘इसान’ शब्द से सम्बोधित किये जाते हैं।

थोडा शैली

थोडा, हिमाचल प्रदेश का भव्य मार्शल आर्ट है। यह किसी के तीरंदाजी निपुणता पर निर्भर है और यह महाभारत के उन दिनों की ओर ले जाता है जब पाण्डवों और कौरवों के बीच महायुद्ध में तीन एवं धनुष प्रयोग में लाये जाते थे। यह कुल्लू और मनाली के आकर्षक घाटियों में खेला जाता है। इस प्रकार इस मार्शल आर्ट की उत्पत्ति कुल्लू में हुयी है। तीर के सिरे पर जडि़त ‘गोलाकार लकड़ी के टुकड़े’ से थोडा नाम की उत्पत्ति हुयी है जो कि तीन की घातक क्षमता को कुन्द करने के लिये प्रयोग में लाया जाता है। इस खेल में तीर एवं धनुष का प्रयोग किया जाता है। तीरंदाज की सुलभता के साथ लकड़ी का धनुष 1-5 मीटर से 2 मीटर का होता है जबकि धनुष के समानुपात में लकड़ी के तीर होते हैं जो कि कुशल दस्तकार या मिस्त्री द्वारा बनाये जाते हैं जो कि कुशल दस्तकार या मिस्त्री द्वारा बनाये जाते हैं। पुराने समय में, हिमाचल प्रदेश में यह थोडा का खेल बहुत ही दिलचस्प तरीके से प्रयोजित किया जाता था। एक गांव के मुट्ठी भर लोग दूसरे गांव में जाते थे और उनके गांव के कुएँ में सूर्योदय से पहले पेड़ की पत्तियां डाल देते थे और गांव की सीमा के बाहर झाडि़यों में छुप जाते थे। जैसे हो गांव के लोग पानी लेने आते तो नौजवान चिल्लाने लगते तथा लड़ने के लिये चुनौती देते जो कि भिड़त्त की तैयारी के लिये एक चिंगारी होता था।

चेइबी गाड-गा शैली

यह मणिपुर के बहुत प्राचीन युद्ध सम्बंधी कलाओं (मार्शल आर्ट) में से एक है। इसमें लड़ाई के लिये तलवार व ढाल का प्रयोग किया जाता था जो कि अब एक छड़ी, जो कि मुलायम लेदर से घिरी होती है तथा जो मुलायम लेदर से बने ढाल के रूप में परिवर्तित हो गया है। अर्थात लेदर से घिरी छड़ी और लेदर के बने ढाल का प्रयोग किया जाता है। प्रतियोगी द्वन्द्व युद्ध लड़ते हैं और जो अधिकतम प्वाइंट लाता है, वह विजयी होता है। प्राचीन समय में प्रतियोगी तलवार व भाले का प्रयोग करते थे। इस मार्शल आर्ट में विजय, कुशलता पर आधारित होती है न कि माँसपेशियों की शक्ति व घातक बल पर। यह प्रतियोगिता समतल सतह पर 7 मीटर व्यास के वृत्त में आयोजित की जाती है। वृत्त में एक-दूसरे से 2 मीटर की दूरी पर एक-एक मीटर की दो रेखाएं होती हैं। चेइबी छड़ी की लम्बाई 2-2-5 फीट होती है जबकि ढाल का व्यास 1 मीटर होता है।

मर्दानी खेल

मर्दानी खेल महाराष्ट्र का हथियार आधारित युद्ध कला है। यह अद्वितीय भारतीय ‘पाटा’ (तलवार) तथा ‘विटा’ (रस्सी युक्त लम्बे हल्थे वाला भाला) के प्रयोग के लिये विशेष रूप से जाना जाता हें

स्क्वै शैली

यह एक दक्षिण एशियाई युद्ध सम्बन्धी कला (मार्शल आर्ट) है जो कि कश्मीर में उत्पन्न हुआ। वर्तमान में यह मुख्य रूप से पाकिस्तान में ‘आजाद कश्मीर’ तथा भारत में ‘कश्मीर घाटी’ में प्रचलित है। साजो-सामान युक्त स्क्वै ढाल युग्मित घुमावदार एकहरे किनारों वाला तलवार प्रयोग करता है जबकि हथियार मुक्त तरीकों में ‘लात मारना’, ‘मुक्का मारना’, ‘जकड़ लेना’ तथा ‘टुकड़े करना’ शामिल है।

काथी सामू शैली

यह आन्ध्र प्रदेश के प्राचीन मार्शल आटर््स में से एक है। इस विशिष्ट मार्शल आर्ट में विभिन्न प्रकार के तलवार प्रयोग में लाये जाते हैं। उस स्थान को जहाँ कांथी सामू का प्रदर्शन होता है, उसे ‘गरीडी’ कहते हैं। वर्तमान समय में इस प्रकार का मार्शल आर्ट सिर्फ उन्हीं परिवारों में प्रचलित है जैसा कि विगत वर्षों में था, जिन्होंने सिपाही के रूप में राजा की सेवा की हो। बाद के वर्षों में इसे दो जागीरों (छोटे प्रदेश) सुदूर उत्तर तटीय आन्ध्र में विजियानगर तथा सुदूर दक्षिण चित्तूर जिले में कारवेटीनगर द्वारा संरक्षण प्रदान किया गया। ‘वैरी’ नामक छड़ी युद्ध की, काथी सामू में महत्त्वपूर्ण भूमिका होती है और यह वास्तविक तलवार युद्ध की प्रस्तावना होती है। यह लम्बा और घुमावदार तलवार को घुमाते हुये दो व्यक्तियों के बीच लड़ा जाता है। ‘गेरजा’, जिसमें प्रतिभागी प्रत्येक हाथ में दो तलवार लिये हुए, चार तलवारों को पकड़े होता है और तलवार कौशल में ‘दाल फर्री खडगा’ एक अन्य महत्त्वपूर्ण पहलू है।

गतका शैली

गतका, दक्षिण एशियाई पारंपरिक युद्ध प्रशिक्षण का रूप है। इसमें लकड़ी की छडि़याँ, आभासी तलवार के रूप में लड़ाकू युग्मों द्वारा प्रयोग में लायी जाती हैं। वर्तमान प्रयोग में यह साधारणतया उत्तर पश्चिमी भारतीय मार्शल आर्ट को प्रदर्शित करता है, जिसको उचित रूप में शास्त्र विद्या अंग्रेजों में पंजाबी-सिक्ख के संबंध में प्रायः ‘गतका’ और ‘शास्त्र विद्या’ शब्द का प्रयोग किया जाता है।

वास्तविक रूप से यह कला विशेष नृजातीय-सांस्कृतिक समूह या किसी धर्म की अद्वितीय कला नहीं है, बल्कि यह कला पारंपरिक रूप से कई शताब्दियों से पूरे उत्तरी भारत एवं पाकिस्तान में युद्ध कला का रूप है। हमला और जवाबी हमला एक समुदाय में और दूसरे समुदाय में बदल सकता है परन्तु आधारित तरीका समान होता है।

गतका खेल या संस्कार के रूप में व्यवहार में लाया जा सकता है। खेल रूप में लकड़ी की छड़ी जिसे गतका कहा जाता है, से दो विरोधी खिलाड़ी एक-दूसरे पर शक्ति का प्रयोग करते हैं। यह छड़ी ढाल युग्मित भी हो सकती है। छड़ी के साथ सम्पर्क होने पर प्वाइंट की प्राप्ति होती है। कोई अन्य हथियार लड़ाई में प्रयोग नहीं किया जाता परन्तु उनकी विधि प्रशिक्षण के दौरान सीखी जाती है। गतका का अभ्यास करने वाले को गतकाबाज जबकि सिखाने वाले को गुरू या गुरूदेव कहा जाता है।

थांग-टा शैली

मणिपुर के मिशेई जनजाति द्वारा प्रचलित थांग - टा हथियार आधारित भारतीय मार्शल आर्ट है। मणिपुरी भाषा में ‘थांग का अर्थ तलवार’ तथा ‘टा का अर्थ भाला’ होता है जो कला के प्राथमिक हथियार को प्रदर्शित करता है। भाले का प्रयोग समीप से किया जाता है या दूर से फेंक कर भी उपयोग में लाया जाता है। अन्य हथियारों में ढाल और कुल्हाड़ी हैं। मणिपुर और म्यांमार के बीच सांस्कृतिक समानता, भौगोलिक समीपता तथा नृजातीय सम्बद्धता के कारण थांग-टा नजदीकी रूप से तोबनशाही से जुड़ा है। थांग-टा के तीन अलग-अलग प्रकार हैं-रीति रिवाजों, संसकारों से सम्बन्धित प्रदर्शन तथा युद्ध से सम्बन्धित दूसरा प्रकार विशेष रूप से तलवार व भाले के साथ नृत्य के प्रदर्शन से सम्बन्धित है। यह कार्यकलाप वास्तविक युद्ध में भी परिवर्तित हो सकती है। तीसरा प्रकार वास्तविक युद्ध प्रयोग है। थांग-टा नजदीकी रूप से कुछ युद्ध नृत्यों से सम्बन्धित है और प्रायः नृत्य एवं युद्ध के बीच की लाईन धुँधली पड़ जाती है जैसे अस्थांगकैरोल (तलवार नृत्य) और खोसारोल (भाला नृत्य)। मणिपुर में पारम्परिक रूप से, संस्कारों से सम्बन्धित अधिकतर नृत्य मार्शल आर्टिस्ट्स (कलाकारों) द्वारा किये जाते हैं जैसे, कि वह संस्कार के लिए भाला नृत्य या पवित्र देनगो नृत्य।