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Blog / 18 May 2019

(Video) भारतीय कला एवं संस्कृति (Indian Art & Culture) : भारतीय नृत्य शैली - ओडिसी (Indian Dance Forms: Odissi)

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(Video) भारतीय कला एवं संस्कृति (Indian Art & Culture) : भारतीय नृत्य शैली - ओडिसी (Indian Dance Forms: Odissi)


मुख्य बिंदु:

भारतीय नृत्य अपने आप में ही अद्भुत है, भिन्न-भिन्न प्रकार के नृत्य भारत की बेहतरीन संस्कृति को परिलक्षित करते हैं। इन नृत्यों के साक्ष्य हमें कई शास्त्रें इत्यादि में देखने को मिलते रहते हैं।

  • सम्पूर्ण भारत में मंदिरों, स्तूपों और गुफाओं में बने चित्र खुदी हुई मूर्तियां प्राचीनकाल में नृत्य के विकास की कहानी सुनाते प्रतीत होते हैं। साँची, भरहुत के द्वारों पर बनी अप्सराएँ, बाघ, अजन्ता और एलोरा की गुफाओं के दीवारों पर बने चित्रें की रूपसियाँ, चिदम्बरम, खजुराहो और कोणार्क के मन्दिरों में उत्कीर्ण नायिकाएँ और हलेविड़ और बेलूर के मन्दिरों की नृत्य करती आकृतियाँ भारतीय नृत्य परम्परा की पराकाष्ठा को प्रदर्शित करती हैं।
  • अपने नृत्य यात्रा के अगले पड़ाव पर हम आ पहुचें है और इसी क्रम में हम आज अपने Art & Culture section ओडिसी नृत्य शैली के बारे में जानने का प्रयास करेंगे।
  • उड़ीसा में नृत्य परम्परा के प्राचीन उल्लेख बौद्ध एवं जैन युग के शिलालेख एवं गुफाचित्रें से मिलते हैं। ईसा पूर्व दूसरी शताब्दी का महरिस नामक सम्प्रदाय, जो कि शिव मन्दिरों में नृत्य करता था वह अपनी परम्परा अनुसार मन्दिरों में नृत्य-गीत करता रहा।
  • इसी से कालान्तर में ओडि़सी नृत्य का विकास हुआ।
  • ओडि़शा के श्री जगन्नाथ मन्दिर के शांत परिवेश में लम्बे समय से स्थापित होने के कारण ही इस नृत्य शैली का नाम ‘‘ओडि़सी’’ के रूप में प्रचलित हुआ।
  • इसका उल्लेख प्राचीनतम संस्कृत पाठ ‘‘नाट्यशास्त्र’’ में औद्र-मगधी के रूप में मिलता है।
  • प्राचीन दिनों में भक्ति रस से भरा यह नृत्य जगन्नाथ मन्दिरों में भगवान की पूजा का एक हिस्सा था, इसी वजह से हम मन्दिर के अन्द भी इसी नृत्य शैली को प्रदर्शित करती कई मूर्तियाँ पाते हैं।
  • इस नृत्य में लास्य और तांडव का अद्भुत सयोंजन देखने को मिलता है।
  • समुद्र की लहरों की तरह दिखाई देने वाला यह नृत्य दर्शकों को आश्चर्यचकित और मंत्रमुग्ध कर देता है।
  • ओडि़सी नृत्य, कवि जयदेव की कृतियों पर अपनी प्रस्तुति के लिए भी प्रसिद्ध है।
  • ओडि़सी को चलती-फिरती वास्तुकला भी कहा जाता है।
  • इसमें प्रस्तुत भंग, द्विभंग, त्रिभंग और पदचारण की मुद्रायें भरतनाट्यम से मिलती जुलती हैं।
  • यह नृत्य-शैली पूर्णतयाः आध्यामिकता को प्रदर्शित करती है।
  • इस नृत्य का मुख्य भाव समर्पण एवं अराधना होता है।
  • दरअसल यह भगवान जगन्नाथ को ही समर्पित नृत्य है। इसके माध्यम से भगवान के प्रति भक्ति-भावना व्यक्त की जाती है।

यह नृत्य पारम्परिक रूप से दो शैलियों में बाँटा गया है-

  • जिसमें पहला है महारिस जो कि मन्दिरों की लड़कियों या देवदासियों द्वारा प्रदर्शित किया जाता है।
  • दूसरा है गोतिपुआ जो कि लड़कों द्वारा प्रदर्शित किया जाता है।
  • इस नृत्य में अंग सचालन, नेत्र संचालन, ग्रीवा संचालन हस्त मुद्राओं और पद संचालन पर विशेष ध्यान दिया जाता है।
  • इस नृत्य को भी क्रमबद्ध रूप में प्रदर्शित किया जाता है।
  • सर्वप्रथम ‘‘मंगलाचरण’’ होता है जहाँ भगवान जगन्नाथ एवं अन्य देवी-देवताओं की पूजा की जा जाती है।
  • उसके पश्चात् धरती माँ को ‘‘पुष्पान्जलि’’ दी जाती है, जिसमें ‘‘त्रिखण्डी प्रणाम’’, - यानि देवों, गुरूओं और रसिकों को प्रणाम किया जाता है।
  • तत्पश्चात ‘‘बटु-नृत्य’’ होता है, जो कि एक पूर्ण तेजी वाला नृत्य है, जिसके पश्चात् ‘‘अभिनय’’ के द्वारा भक्ति गीतों और कविताओं की अभिव्यक्ति की जाती है।
  • इसमें उडि़या या संस्कृत भाषा के छदों का प्रयोग किया जाता है।
  • अंत में ‘‘नृत्य-नाटक’’ की श्रृंखला को दर्शाया जाता है। जिसका विषय समान्यतः हिन्दु देवी-देवता ही होते हैं। हालांकि आधुनिक काल में कई अन्य विषयों पर भी इसे दर्शाया जाता है।
  • इस नृत्य में पारम्परिक परिधानों यानि कपड़ों का प्रयोग किया जाता है। जिसमें पुरूषों के लिए धोती और महिलाओं के लिए सड़ी का उपयोग किया जाता है।
  • वर्तमान में पूरे सिले कपड़े भी उपलब्ध है।
  • महिला नर्तकी जगन्नाथपुरी द्वारा तैयार एक मुकुट पहनती है।
  • सफेद रंग के फूल गोखरू पर सजाये जाते हैं।
  • हर नृत्य की तरह आभूषणों का भी इसमें भी बहुत महत्व है जो कि चांदी के रंग के होते हैं।
  • इस नृत्य में भी धुंधरूओं का प्रयोग होता है।
  • इस नृत्य में दक्षिण भारत और उत्तर भारत के संगीत का उपयोग किया जाता है।
  • पखा़वज, तबला, स्वर-मण्डल, हारमोनियम, सितार, बाँसुरी, वायलिन और झाँझ आदि वाद्य यन्त्रें की सहायता से इस नृत्य के संगीत के सुरों को सजाया जाता है।
  • केलुचरन-महापात्र, गंगाधर-प्रधान, पंकज-चरन-दास आदि ने 1940 से 1950 के दौरान इस नृत्य में काफी योगदान दिया।
  • संजुक्ता-पाणिग्रही, सोनल-मानसिंह, कुमकुम-मोहन्ती, अनीता-बाबू, सुजाता- मोहापात्रा इत्यादि ने ओडिसी नृत्य की प्रसिद्धि के लिए काफी प्रयास किये।
  • 2015 में IIT- भुवनेश्वर ने अपने B.Tech के Syallabus में भी ओडि़सी नृत्य शैली को शामिल किया है। जिसके पश्चात् यह पहला ऐसा तकनीकी शिक्षण संस्थान बन गया है जिसने किसी भारतीय शास्त्रीय नृत्य को अपने पाठ्यक्रम में शामिल किया हो।