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Blog / 22 May 2019

(Video) भारतीय कला एवं संस्कृति (Indian Art & Culture) : भारतीय नृत्य शैली - कुचिपुड़ी (Indian Dance Forms: Kuchipudi)

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(Video) भारतीय कला एवं संस्कृति (Indian Art & Culture) : भारतीय नृत्य शैली - कुचिपुड़ी (Indian Dance Forms: Kuchipudi)


मुख्य बिंदु:

  • भारतीय नृत्य परम्परा पिछले दो हजार वर्षों से निरन्तर रूप् से सुनिश्चित दिशा में बढ़ती रही है। इस यात्रा में नृत्य परम्परा को भारतीय दार्शनिक चिन्तन ने भी गहरे तक प्रभावित किया है।
  • भारतीय नृत्य परम्परा में यदि सौन्दर्य और लालित्य को महत्व दिया गया है, तो अंग संचालन में महारत और कला प्रवीणता अर्जित करने के अतिरिक्त नृत्य के माध्यम से मन और मनोभावों को व्यक्त करने पर ज्यादा जोर दिया गया है।
  • भारत के नृत्य शैली में देवी-देवताओं के प्रति प्रेम और भक्ति का अनूठा समागम देखने को मिलता है।
  • कहने का अर्थ यह है कि अधिकांश शास्त्रीय नृत्यों का मूल ‘‘धर्म’’ ही रहा है।
  • अपनी कला और संस्कृति की यात्रा में हम आज अपने अगले पड़ाव- ‘‘कुचिपुड़ी’’ पर आ पहुँचे हैं।

आइये विस्तार से इस नृत्य शैली के बारे में जानने का प्रयास करते हैं-

  • कुचिपुड़ी का उद्भव अर्थात् Origination- आन्ध्र-प्रदेश के कृष्णा जिले के, ‘‘कचेलुपुरम’’ गांव के नाम पर हुआ। दरअसल संस्कृत के शब्द कचेलुपुरम या कुसीलवपुरी को ही बोलचाल की भाषा में ‘‘कुचिपुड़ी’’ कहा जाता है।
  • इसकी शुरूआत 3rd Century BCE से हुई और तबसे ही यह नृत्य शैली-अपने ‘‘नृत्य-नाट्य’’ समागम के रूप में स्थापित है।
  • ऐसा भी कहा जाता है कि खनन कार्य से प्राप्त नेल्लोर जिले के ‘‘नागार्जुनकोण्डा’’ व ‘‘भैरवानीकोण्डा’’, वारंगल जिले के पलमपेट के रामाप्पा मन्दिर तथा अमरावती मन्दिर में जो देवी देवताओं, अप्सराओं, नर्तक-नर्तकियों एवं वाद्ययन्त्रें के जो चित्र पाये गये हैं, उनसे इस नृत्य की भगिमाओं की साम्यता स्थापित की जाती है।
  • इस नृत्य का उद्देश्य वैदिक एवं उप-निषदों में वर्णित धर्म एवं आध्यात्म का प्रचार-प्रसार करना है।
  • इस नृत्य में ‘‘ताण्डव’’ और ‘‘लास्य’’ दोनों का समन्वय यानि coordination देखने को मिलता है।
  • वैष्णववाद के प्रभाव के तहत इसका विषय महा-भागवत् से लिया गया है। इसीलिए इसके पात्र ‘‘भगवत-मेला’’ भी कहलाते हैं।
  • इस नृत्य में पदसंचालन, हस्त-मुद्राओं, ग्रीवा-संचालन आदि पर विशेष ध्यान दिया जाता है।
  • इस नृत्य में इस्तेमाल की जानी वाली वेषभूषा यानि Costume लगभग भरतनाट्यम नृत्यशैली के प्रकार की ही होती है।
  • परन्तु कुछ भिन्नतायें भी पाई जाती हैं जैसे- भरतनाट्यम नृत्य में घाघरे में तीन असमान परतें या Frills पाई जाती हैं जबकि कुचिपुड़ी में भरतनाट्यम की पोशाक के सबसे लम्बे Frill से भी लम्बा सिर्फ एक Frill होता है।
  • भरतनाट्यम में कोई अलग से पल्लू लेने का रिवाज़ नही है परन्तु कुचिपुड़ी में बाई तरफ अलग-पल्लू लिया जाता है।
  • कुचिपुड़ी की एक विशेषता है जिसे ‘‘तरगंम’’ कहा जाता है जिसमें नर्तक कास्य की प्लेट पर खड़े होकर नृत्य करता है।
  • कई बार नर्तक या नर्तकी अपने सिर पर कई घड़ों का भी संतुलन बनाकर नृत्य करते हैं।
  • इस तरह से नृत्य को देखना दर्शकों के लिए एक अद्भुत विषय होता है।
  • इस नृत्य में महिला नर्तकी साड़ी एवं हल्के साज-श्रृंगार यानि Light Makeup का उपयोग करती है।
  • पारम्परिक रूप से पुरूष नर्तक ही महिलाओं की भूमिका बनाकर इस नृत्य को किया करते थे, या कई बार वे अपनी ही भूमिका में अंग वस्त्र और धोती पहनकर इस नृत्य को किया करते थे।
  • इस नृत्य में तेलुगु भाषा में बजने वाला Carnatic Music ही उपयोग किया जाता है।
  • मृदंग, झांझ, वीणा, बासुँरी और तम्बूरा इस नृत्य के प्रमुख वाद्य यन्त्र है।
  • 20वीं सी के प्रारम्भ तक कुचिपुड़ी आन्ध्र प्रदेश के गावों तक ही सीमित था। बाल सरस्वति और रागिनी देवी ने इसे लोकप्रिय बनाने में महत्त्वपूर्ण भूमिका निभाई।
  • मूलरूप से पुरूषों की इस नृत्य शैली को कई नृत्यांगनाओं ने अपनाया और इसे प्रसिद्धि के शिखर तक पहुँचाया है।
  • कुचिपुड़ी को आधुनिक काल में लोकप्रिय बनाने का श्रेय लक्ष्मीनारायण शास्त्री को दिया जाता है।
  • चिन्ताकृष्ण-मुरली, वेगवन्ती-सत्य नारायण, यामिनी-कृष्णमूर्ति, राजा-राधा-रेड्डी कुचिपुड़ी के प्रमुख उन्नायक रहे हैं।