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Blog / 13 May 2019

(Video) भारतीय कला एवं संस्कृति (Indian Art & Culture) : भारतीय नृत्य शैली - भरतनाट्यम (Indian Dance Forms: Bharatnatyam)

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(Video) भारतीय कला एवं संस्कृति (Indian Art & Culture) : भारतीय नृत्य शैली - भरतनाट्यम (Indian Dance Forms: Bharatnatyam)


मुख्य बिंदु:

भारतीय संस्कृति में वास्तुकला, चित्रकला और मूर्तिकला की तरह ही नृत्य एवं संगीत कला का मुख्य स्थान है। भारत अपनी सांस्कृतिक विरासत के लिए जाना जाता रहा है और इसी विरासत ने भारत को कई नृत्य कलायें और संगीत का बहुमूल्य खज़ाना दिया है।

  • अपने Art & Culture के आज के अंक में हम जानने का प्रयास करेंगें कि कैसे भारत में शास्त्रीय नृत्य यानि Classical dance का विकास हुआ है।
  • कई शास्त्रीय नृत्यों की शुरूआत मन्दिरों में हुई। जिसका मुख्य लक्ष्य नृत्य के द्वारा भगवान की उपासना यानि पूजा करना था।
  • हालांकि प्रत्येक नृत्य भारत के विभिन्न क्षेत्रें में विकसित हुआ, पर फिर भी इन सभी नृत्यों की जड़ें एक ही थी।
  • इस सन्दर्भ में इनके Roots को प्रारंम्भिक सदी में भरत मुनि द्वारा रचित नाट्यशास्त्र से जोड़ा जाता है।
  • नाट्य शास्त्र को 200 BC E और 200 CE के मध्य का माना जाता है।
  • नृत्य और संगीत के सिद्धांतों का यह अद्भुत ग्रन्थ है, जिसमें संगीत और नृत्य के विधान यानि Rules का Microscopic और सैद्धान्तिक Picturisation यानि चित्रण किया गया है।
  • वर्तमान में नृत्य और संगीत की जो विधाये अस्तित्व में हैं, उनमें से अधिकांश इसी ग्रन्थ से ली गई है।
  • अपने नृत्य और संगीत के माध्यम से भारतीय जनता अपने सुख-दुख, अपने संघर्षों और आकांक्षाओं तथा अनेकों भावनाओं की अभिव्यक्ति करती आई है।
  • शास्त्रीय नृत्य-संगीत और लोक नृत्य-संगीत दोनों की विविधता और दोनों की समृद्धि भारत की सांस्कृतिक विरासत का एक महत्त्वपूर्ण अंग है।

आइये जानते हैं भारत में नृत्य कला के विस्तार को-

प्राचीन काल से ही भारत में नृत्यकला की समृद्ध परम्परा रही है सिन्धु घाटी के उत्खनन से प्राप्त नर्तकी की मूर्ति इस बात को प्रमाणित करती है कि प्रागैतिहासिक यानि Pre-historic era से ही भारत में नृत्य का प्रचलन रहा है।

इसी क्रम में आइये जानते हैं नाट्यशास्त्र में उपलब्ध आठ रसों के बारे में-

नाट्य शास्त्र में कुल आठ रसों का वर्णन किया गया है जो नृत्य के दौरान अलग-अलग भवनाओं को Express करते हैं-

जैसे-

  • श्रंगार - जो प्रेम को दिखाता है]
  • हास्य - जो मजाक या परिहास को दिखाता है

इसी तरह से "करूणा, रौद्र, वीर, भयानक, वीभत्स और अद्भुत" रसों से मिलकर रसानुभूति का निर्माण होता है जो नृत्य का अंतिम लक्ष्य माना गया है।

  • बाद के काल में "अभिनव गुप्त" ने इन आठ रसों के एक नौवें रसा को इसमें शामिल किया, जो "शान्ति" रस है। इन नौ रसों से ही भारत में कई नृत्य शैलियों का निर्माण हुआ।

आइये इसी क्रम में अब जानते हैं भरतनाट्यम नृत्य शैली के बारे में-

शास्त्रीय नृत्य तकनीकि और कठिन नियमों का एक अद्भुत समागम है।

आचार्य नन्दिकेश्वर की "अभिनाय दर्पण" और शारंगदेव की रत्नाकर एवं नाट्यशास्त्र, शास्त्रीय नृत्यों की तकनीकि और नियमों का आधार माना जाता है। जिसमें शारीरिक मुद्रायों, रस और भाव इत्यादि का मिश्रण देखा जाता है।

Ministry of Culture ने कुल नौ शास्त्रीय नृत्यों को आधिकारिक पहचान दी है, जिसमें पहला है भरतनाट्यम-

  • भरतनाट्यम के लिए ये माना जाता है कि इस शैली का नाम भरत मुनि के नाट्यशास्त्र से लिया गया है।
  • तमिलनाडु में देवदासियों द्वारा विकसित व प्रसारित इस शैली को सबसे प्राचीन नृत्य माना जाता है।
  • दक्षिण भारत के अनेक प्रतिष्ठित मन्दिरों के मूर्तिकला में भरतनाट्यम के भंगिमाओं के दर्शन होते हैं।
  • ये एक ऐसा नृत्य है जिसमें भाव, राग, रस और ताल सभी का एकसाथ मिश्रण पाया जाता है।
  • देवदासियों द्वारा इसके प्रचार-प्रसार के कारण ही इसे ‘‘दासीअट्टम’’ के नाम से भी जाना जाता है।
  • भरतनाट्यम ही सही मायनों में नाट्यशास्त्र को चित्रित करता है, जो सामान्यतः नृत्य और अभिनय का मिला जुला रूप् है।
  • भरतनाट्यम का शाब्दिक सन्धि विच्छेद देखा जाये तो-
  • भ - का अर्थ भाव या emotions है
  • र - का अर्थ राग या Musical Notes है
  • त - का अर्थ ताल या Rhythm है
  • नाट्य का अर्थ - नाटक या Drama है
  • अर्थात् इन सबके समागम से ही भरतनाट्यम का सृजन हुआ है।
  • Body – movements या शारीरिक प्रक्रियाओं को देखा जाये तो- समभंग, अभंग और त्रिभंग, तीन भागों को भरतनाट्यम से जोड़ा गया है।
  • भरतनाट्यम में तीन घराने तजौर, काँचीपुरम और पण्डवलूर प्रचलित है।
  • ये घराने "पाणि" के नाम से भी जाने जाते है।
  • इस नृत्य की प्रस्तुति क्रमबद्ध रूप से होती है, जिसमें इसका पहला चरण है- "आलारिपु" जिसका अर्थ है- कली से फूल खिलना
  • नृत्य का दूसरा चरण है- "जाति-स्वरम" - जिसमें नर्तक अपने कला ज्ञान का परिचय देते हैं।
  • तीसरा है- ‘‘शब्दम्’’ - जिसमें नाट्यभावों की प्रस्तुति की जाती है।
  • चौथा है- ‘‘वर्णम्’’ - जिसमें भाव, ताल और राग तीनों की सम्यक प्रस्तुति होती है।
  • पाँचवा है- ‘‘पदम’’- जिसमें संस्कृत में पंक्तियुक्त वंदना होती है।
  • नृत्य का अन्तिम अंश है- ‘‘तिल्लाना’’- जिसमें नारी सौन्दर्य का बेहतरीन प्रदर्शन किया जाता है।
  • भरतनाट्यम में कर्नाटक शैली का संगीत इस्तेमाल किया जाता है।
  • इसमें तमिल, तेलुगु, कन्नड़ एवं संस्कृत के छदों का प्रयोग किया जाता है।
  • इसमें मृदंग, वीणा, बासुँरी, Violin इत्यादि वाद्य-यन्त्रें का प्रयोग किया जाता है।
  • आधुनिक कला में भरतनाट्यम को प्रतिष्ठापित करने का श्रेय-ई0 कृष्ण अय्यर को जाता है, अरूण्डेल, यामिनी कृष्ण मूर्ति, रूक्मिणी देवी, सोनल-मानसिंह, मृणालिनी साराभाई एवं पद्मा सुब्रमण्यम इस नृत्य से जुड़ी प्रमुख नृत्यांगनाये हैं।