संदर्भ:
हाल ही में भारतीय सुप्रीम कोर्ट ने रोहिंग्या प्रवासियों की हिरासत से संबंधित एक हैबियस कॉर्पस याचिका की सुनवाई के दौरान ऐतिहासिक निर्णय सुनाया। अदालत ने स्पष्ट रूप से कहा कि घुसपैठियों और अवैध प्रवासियों को भारत में प्रवेश करने, रहने या बसने का कोई संवैधानिक या कानूनी अधिकार नहीं है। यह फैसला भारत की सीमाओं पर उसके संप्रभु अधिकार की पुष्टि करता है तथा संविधान के अंतर्गत नागरिकों और गैर-नागरिकों के अधिकारों के बीच स्पष्ट और मूलभूत अंतर को स्पष्ट रूप से दर्शाता है।
सुप्रीम कोर्ट के फैसले के प्रमुख बिंदु:
1. भारतीय नागरिकों और गैर नागरिकों के अधिकार में अंतर:
• अदालत ने स्पष्ट किया कि अनुच्छेद 19(1)(e) (भारत के किसी भी हिस्से में रहने और बसने का अधिकार) केवल भारतीय नागरिकों को प्राप्त मौलिक अधिकार है।
• विदेशी नागरिक, जिनमें अवैध प्रवासी भी शामिल हैं, विदेशी अधिनियम, 1946 के तहत आते हैं। यह कानून केंद्र सरकार को अवैध रूप से प्रवेश करने वालों की पहचान करने, उन्हें हिरासत में लेने और देश से निर्वासित (Deport) करने की पूर्ण कानूनी शक्ति प्रदान करता है।

2. राष्ट्रीय संसाधनों की प्राथमिकता
• अदालत ने कहा कि भारत के सीमित संसाधनों का प्राथमिक उपयोग देश की विशाल और आर्थिक रूप से कमजोर जनसंख्या के लिए होना चाहिए।
3. संप्रभुता, सुरक्षा और जनसांख्यिकीय चिंताएँ
• अदालत ने असम के संदर्भ में वर्ष 2005 में की गई अपनी टिप्पणी को पुनः उद्धृत करते हुए कहा कि बड़े पैमाने पर अवैध प्रवास “बाहरी आक्रमण और आंतरिक अशांति” का रूप ले सकता है।
• अनुच्छेद 355 पर जोर देते हुए अदालत ने कहा कि केंद्र सरकार का संवैधानिक दायित्व है कि वह राज्यों को ऐसे जनसांख्यिकीय व्यवधानों से सुरक्षित रखे और देश की संप्रभुता की रक्षा सुनिश्चित करे।
4. मानवीय संरक्षण बनाम कानूनी स्थिति
• अदालत ने स्वीकार किया कि अनुच्छेद 21 के तहत “जीवन और व्यक्तिगत स्वतंत्रता का अधिकार” सभी व्यक्तियों “चाहे वे नागरिक हों या गैर–नागरिक” पर समान रूप से लागू होता है।
• लेकिन अदालत ने स्पष्ट कर दिया कि अमानवीय व्यवहार, यातना या मनमानी हिरासत से सुरक्षा का अर्थ यह नहीं है कि अवैध प्रवासियों को भारत में बने रहने का वैधानिक अधिकार प्राप्त हो जाता है। यदि उनका निवास भारत के कानूनों के विरुद्ध है, तो अनुच्छेद 21 उन्हें निर्वासन (Deportation) से संरक्षण नहीं दे सकता।
अंतरराष्ट्रीय शरणार्थी कानून में भारत की स्थिति:
• भारत 1951 के यूएन रिफ्यूजी कन्वेंशन का सदस्य नहीं: भारत ने 1951 के रिफ्यूजी कन्वेंशन या उसके 1967 के प्रोटोकॉल को स्वीकार नहीं किया है। इससे अंतरराष्ट्रीय दायित्वों के दबाव के बजाय घरेलू प्राथमिकताओं और सुरक्षा आकलन के आधार पर शरणार्थियों की स्थिति से निपटने के लिए नीति में आवश्यक लचीलापन प्राप्त होता है।
• रूढ़ अंतरराष्ट्रीय कानून की मान्यता: भारत नॉन-रिफाउलमेंट अर्थात् किसी व्यक्ति को ऐसी जगह वापस न भेजना जहाँ उसे उत्पीड़न या जान का खतरा हो, के सिद्धांत को व्यवहारिक रूप से स्वीकार करता है, किन्तु इसे अभी तक देश के घरेलू कानून में औपचारिक रूप से शामिल नहीं किया गया है।
कानूनी और संस्थागत ढांचा:
• भारत में शरणार्थियों के लिए कोई अलग कानून नहीं है। शरणार्थियों पर वही कानून लागू होते हैं जो सभी विदेशियों पर लागू होते हैं:
o विदेशी अधिनियम, 1946
o विदेशियों का पंजीकरण अधिनियम, 1939
o पासपोर्ट अधिनियम, 1967
o नागरिकता अधिनियम, 1955
• इनमें से कोई भी कानून “शरणार्थी” (Refugee) शब्द को परिभाषित नहीं करता, जिससे एक कानूनी रिक्ति (Legal Vacuum) बनी रहती है।
निष्कर्ष:
सुप्रीम कोर्ट का यह फैसला भारत के संप्रभु अधिकारों तथा सीमा प्रबंधन की कानूनी क्षमता की मजबूत पुनर्पुष्टि है। निर्णय स्पष्ट रूप से दर्शाता है कि भारतीय संविधान नागरिकों और गैर–नागरिकों के अधिकारों में स्पष्ट अंतर स्थापित करता है, राष्ट्रीय सुरक्षा और संसाधनों की प्राथमिकता सर्वोपरि मानी जाती है और भारत के पास अब भी शरणार्थियों के लिए अलग से कोई विशेष विधि उपलब्ध नहीं है। यह निर्णय मानवीय संरक्षण के सिद्धांतों को स्वीकार करते हुए भी यह सुनिश्चित करता है कि अवैध प्रवासन को किसी भी परिस्थिति में कानूनी वैधता प्रदान नहीं की जा सकती।
