होम > Blog

Blog / 22 Dec 2025

उच्चतम न्यायालय का बाल तस्करी के सन्दर्भ में निर्देश

संदर्भ:

हाल ही में, उच्चतम न्यायालय ने भारत में 'बाल तस्करी' और 'व्यावसायिक यौन शोषण' को एक "गहन चिंताजनक यथार्थ" के रूप में परिभाषित किया है। न्यायालय ने रेखांकित किया कि कानूनी सुरक्षा तंत्रों की उपलब्धता के बाद भी, ये अपराध अपनी जड़ें जमा चुके हैं और एक सुव्यवस्थित व संस्थागत रूप ले चुके हैं।

निर्णय के विषय में:

      • उच्चतम न्यायालय ने निचली अदालतों को निर्देशित किया है कि बाल तस्करी और यौन शोषण जैसे संवेदनशील मामलों में साक्ष्यों का मूल्यांकन 'कठोर तकनीकी मानकों' के बजाय 'व्यावहारिक संवेदनशीलता' के आधार पर किया जाना चाहिए। न्यायालय का मानना है कि बच्चों की विशेष मनोवैज्ञानिक और सामाजिक कमजोरियों को देखते हुए, साक्ष्य के पारंपरिक और औपचारिक मानदंडों में लचीलापन आवश्यक है।
      • अदालत ने स्वीकार किया कि ये अपराध केवल व्यक्तिगत कृत्य नहीं हैं, बल्कि एक 'गहन संगठित तंत्र' का हिस्सा हैं। ये नेटवर्क इतने जटिल और रणनीतिक तरीके से कार्य करते हैं कि कानून की उपस्थिति के बावजूद शोषण का एक निरंतर चक्र बना रहता है। न्यायालय ने इसे एक 'प्रणालीगत वास्तविकता' माना है जिसे साधारण आपराधिक मामलों से अलग देखा जाना चाहिए।
      • निर्णय में इस बात पर बल दिया गया है कि अधिकांश पीड़ित समाज के हाशिए पर स्थित समुदायों से आते हैं। उनकी गरीबी, अशिक्षा और सामाजिक परिवेश अक्सर उन्हें अपने अनुभवों को स्पष्ट रूप से व्यक्त करने से रोकते हैं। इसके अतिरिक्त, तस्करी नेटवर्क की भ्रामक और जटिल कार्यप्रणाली के कारण, किसी भी नाबालिग के लिए घटनाओं का क्रमिक और सटीक विवरण देना कठिन होता है।
      • यदि पीड़ित ने शोषण के समय तुरंत विरोध नहीं किया या भागने का प्रयास नहीं किया, तो इसे उसकी गवाही को खारिज करने का आधार नहीं बनाया जाना चाहिए। इसे सहमति के बजाय 'विवशता' के रूप में देखा जाना चाहिए। बयानों में छोटी-मोटी कमियों या विरोधाभासों को संदेह की दृष्टि से देखने के बजाय 'न्यायिक संवेदनशीलताऔर 'मानवीय यथार्थवादके साथ परखा जाना चाहिए।

Child Trafficking

भारत में बाल तस्करी को रोकने के उपाय:

      • किशोर न्याय (बच्चों की देखभाल और संरक्षण) अधिनियम, 2015: तस्करी के शिकार और असुरक्षित बच्चों की देखभाल, संरक्षण, पुनर्वास और समाज में पुन: एकीकरण का प्रावधान करता है।
      • यौन अपराधों से बच्चों का संरक्षण (POCSO) अधिनियम, 2012: बच्चों को यौन शोषण से बचाने के लिए एक व्यापक कानूनी ढांचा प्रदान करता है, जिसमें बच्चों के अनुकूल जांच और सुनवाई प्रक्रियाएं शामिल हैं।
      • बाल और किशोर श्रम (निषेध और विनियमन) अधिनियम, 1986: 14 वर्ष से कम उम्र के बच्चों के नियोजन पर रोक लगाता है और 14-18 वर्ष की आयु के किशोरों के लिए खतरनाक व्यवसायों को प्रतिबंधित करता है।
      • राष्ट्रीय बाल श्रम परियोजना (NCLP): जिला स्तर पर पुनर्वास कार्यक्रम लागू करती है, जिसमें बचाए गए बाल श्रमिकों की शिक्षा, व्यावसायिक प्रशिक्षण और उन्हें मुख्यधारा में लाना शामिल है।
      • पेंसिल (PENCIL) पोर्टल: एक डिजिटल प्लेटफॉर्म जिसका उद्देश्य बाल श्रम कानूनों का प्रभावी प्रवर्तन सुनिश्चित करना और पुनर्वास योजनाओं के कार्यान्वयन की निगरानी करना है।

ये कानूनी, प्रशासनिक और तकनीकी उपायजब न्यायिक संवेदनशीलता के साथ पूरक होते हैंएक ऐसा सुरक्षात्मक तंत्र बनाने का प्रयास करते हैं जो शोषण को रोकता है, प्रवर्तन को मजबूत करता है और पुनर्वास में सहायता करता है।

निष्कर्ष:

यह निर्णय बाल तस्करी के मामलों में 'पीड़ित-केंद्रित' (Victim-Centric) न्यायिक दृष्टिकोण की आवश्यकता को रेखांकित करता है। संगठित अपराध की जटिलताओं और बच्चों की संवेदनशीलता को पहचानते हुए, न्यायालय यह सिद्धांत स्थापित करता है कि न्याय को कानूनी कठोरता और सामाजिक वास्तविकता के बीच संतुलन बनाना चाहिए। प्रक्रियात्मक तकनीकी (Procedural Technicalities) कभी भी बच्चों के संरक्षण, पुनर्वास और सारभूत सामाजिक न्याय के मार्ग में बाधा नहीं बननी चाहिए।