संदर्भ:
हाल ही में संसद ने निरसन और संशोधन विधेयक, 2025 को पारित किया है। इस विधेयक का उद्देश्य कानून पुस्तिका (Statute book) को सुव्यवस्थित और सरल बनाना है, ताकि ऐसे कानूनों को निरस्त या संशोधित किया जा सके जो समय के साथ पुराने, अनुपयोगी या अप्रासंगिक हो चुके हैं। यह पहल सरकार के निरंतर जारी विधायी सुधारों और कानूनों के युक्तिकरण के व्यापक प्रयासों का हिस्सा है।
विधेयक के प्रमुख प्रावधान:
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- यह विधेयक 71 ऐसे अधिनियमों को निरस्त (रद्द) करने का प्रस्ताव करता है, जो वर्तमान समय में अप्रासंगिक हो चुके हैं या जिनकी वर्तमान समय में कोई व्यावहारिक आवश्यकता नहीं रह गई है।
- इसके साथ ही, चार मौजूदा कानूनों में संशोधन का भी प्रावधान किया गया है, ताकि मसौदा संबंधी त्रुटियों को दूर किया जा सके, शब्दावली को अद्यतन किया जा सके तथा भेदभावपूर्ण प्रावधानों को हटाया जा सके।
- जिन अधिनियमों को निरस्त करने का प्रस्ताव है, उनमें भारतीय ट्रामवे अधिनियम, 1886; लेवी चीनी मूल्य समानीकरण निधि अधिनियम, 1976 तथा भारत पेट्रोलियम कॉर्पोरेशन लिमिटेड (कर्मचारियों की सेवा शर्तों का निर्धारण) अधिनियम, 1988 जैसे प्रमुख उदाहरण शामिल हैं।
- यह विधेयक 71 ऐसे अधिनियमों को निरस्त (रद्द) करने का प्रस्ताव करता है, जो वर्तमान समय में अप्रासंगिक हो चुके हैं या जिनकी वर्तमान समय में कोई व्यावहारिक आवश्यकता नहीं रह गई है।
मुख्य संशोधन:
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- भारतीय उत्तराधिकार अधिनियम, 1925: इस अधिनियम की धारा 213 को हटाने का प्रावधान किया गया है। इस धारा के तहत कुछ धार्मिक समुदायों को विशिष्ट महानगरीय क्षेत्रों में वसीयत के मामलों में अनिवार्य रूप से न्यायालय से प्रोबेट (अनुमोदन) प्राप्त करना पड़ता था।
- आपदा प्रबंधन अधिनियम, 2005: इस अधिनियम की धारा 30 में विद्यमान एक मसौदा संबंधी त्रुटि को संशोधित किया गया है, जिसमें “prevention” (रोकथाम) शब्द के स्थान पर “preparation” (तैयारी) शब्द का प्रयोग किया गया है, ताकि प्रावधान का आशय स्पष्ट हो सके।
- जनरल क्लॉज़ेज़ अधिनियम, 1897 तथा सिविल प्रक्रिया संहिता, 1908: इन कानूनों में प्रयुक्त “registered post” (पंजीकृत डाक) शब्दावली को बदलकर “speed post with registration” (पंजीकरण सहित स्पीड पोस्ट) किया गया है, जिससे प्रावधानों को वर्तमान डाक सेवाओं के अनुरूप बनाया जा सके।
- भारतीय उत्तराधिकार अधिनियम, 1925: इस अधिनियम की धारा 213 को हटाने का प्रावधान किया गया है। इस धारा के तहत कुछ धार्मिक समुदायों को विशिष्ट महानगरीय क्षेत्रों में वसीयत के मामलों में अनिवार्य रूप से न्यायालय से प्रोबेट (अनुमोदन) प्राप्त करना पड़ता था।
उद्देश्य और तर्क:
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- इस विधेयक का प्रमुख उद्देश्य पुराने और अप्रासंगिक कानूनों को निरस्त कर कानूनी ढांचे को वर्तमान सामाजिक, आर्थिक और प्रशासनिक आवश्यकताओं के अनुरूप बनाना है।
- सरकार का तर्क है कि अनावश्यक और अप्रचलित कानूनों को हटाने से नागरिकों के लिए प्रक्रियाएँ सरल होंगी, नियमों का बोझ घटेगा और परिणामस्वरूप जीवन को सुगम बनाने तथा व्यापार करने में आसानी होगी।
- इसके अतिरिक्त, इन सुधारों का उद्देश्य औपनिवेशिक काल से चली आ रही विधायी विरासत को समाप्त करना और कानून व्यवस्था को अधिक आधुनिक, पारदर्शी एवं नागरिक-केंद्रित बनाना भी है।
- इस विधेयक का प्रमुख उद्देश्य पुराने और अप्रासंगिक कानूनों को निरस्त कर कानूनी ढांचे को वर्तमान सामाजिक, आर्थिक और प्रशासनिक आवश्यकताओं के अनुरूप बनाना है।
व्यापक विधायी प्रवृत्ति:
यह विधेयक कानूनों के युक्तिकरण (Rationalisation) की एक व्यापक और निरंतर प्रक्रिया का हिस्सा है, जिसके अंतर्गत वर्ष 2014 के बाद से अब तक 1,560 से अधिक केंद्रीय कानूनों को निरस्त किया जा चुका है।
ऐतिहासिक रूप से भी संसद समय-समय पर रिपीलिंग एंड अमेंडिंग एक्ट्स पारित करती रही है, जिनके माध्यम से दर्जनों, और कई अवसरों पर सैकड़ों, अप्रचलित और अप्रासंगिक कानूनों को कानून पुस्तिका से हटाया गया है।
महत्त्व:
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- कानूनी स्पष्टता और सुलभता: अनावश्यक और अप्रचलित कानूनों को हटाने से नागरिकों, व्यवसायों तथा प्रशासनिक संस्थाओं के लिए भ्रम की स्थिति कम होती है और कानूनी अनिश्चितता में कमी आती है।
- शासन की दक्षता: सीमित, स्पष्ट और प्रासंगिक कानूनों के होने से विधायी समन्वय बेहतर होता है तथा नीति-निर्माण और प्रशासनिक कार्यान्वयन अधिक प्रभावी बनता है।
- प्रतीकात्मक सुधार: यह पहल इस बात का संकेत है कि राज्य अपने कानूनी ढांचे को बदलते समय की आवश्यकताओं और संवैधानिक मूल्यों के अनुरूप आधुनिक एवं उत्तरदायी बनाने के लिए प्रतिबद्ध है।
- कानूनी स्पष्टता और सुलभता: अनावश्यक और अप्रचलित कानूनों को हटाने से नागरिकों, व्यवसायों तथा प्रशासनिक संस्थाओं के लिए भ्रम की स्थिति कम होती है और कानूनी अनिश्चितता में कमी आती है।
निष्कर्ष:
निरसन और संशोधन विधेयक, 2025 का संसद द्वारा पारित होना भारत के कानूनी ढांचे को आधुनिक, सरल और प्रासंगिक बनाने की दिशा में एक महत्वपूर्ण विधायी पहल है। इसके माध्यम से पुराने और अनुपयोगी कानूनों को कानून पुस्तिका से हटाया गया है तथा कुछ मौजूदा कानूनों में आवश्यक सुधार किए गए हैं। यद्यपि यह कानूनी व्यवस्था शासन सुधार और प्रशासनिक दक्षता के व्यापक उद्देश्यों को सुदृढ़ करती है, फिर भी यह आवश्यक है कि ऐसे सुधार संतुलित हों और नागरिकों के संवैधानिक अधिकारों तथा विधिक संरक्षण को पूरी तरह सुरक्षित रखा जाए।
