संदर्भ:
जून 2025 में Science पत्रिका में प्रकाशित एक महत्वपूर्ण शोध में अमेरिका के National Institutes of Health, Capstan Therapeutics और University of Pennsylvania के वैज्ञानिकों ने CAR T-सेल थेरेपी को इंसान के शरीर के भीतर ही विकसित करने की एक नई तकनीक प्रस्तुत की है। इस पद्धति में मैसेंजर आरएनए (mRNA) और लिपिड नैनोकण (LNPs) का उपयोग करके प्रतिरक्षा कोशिकाओं (इम्यून सेल्स) को सीधे यह निर्देश दिया जाता है कि वे बिना किसी लैब आधारित जटिल प्रक्रियाओं, कीमोथेरेपी या लंबे अस्पताल प्रवास की आवश्यकता के रोग पैदा करने वाली कोशिकाओं की पहचान कर उन्हें नष्ट करें।
CAR T-सेल थेरेपी क्या है?
CAR T-सेल थेरेपी एक उन्नत इम्यूनोथेरेपी है, जिसमें मरीज की टी कोशिकाओं को शरीर से निकालकर प्रयोगशाला में जेनेटिक रूप से इस तरह बदला जाता है कि वे कैंसर कोशिकाओं को पहचान सकें (अधिकतर CD19 नामक प्रोटीन को लक्ष्य बनाते हैं)। इसके बाद इन संशोधित टी कोशिकाओं को दोबारा शरीर में डाल दिया जाता है, जहां वे कैंसर कोशिकाओं को ढूंढ़कर उन्हें नष्ट करती हैं।
- यह थेरेपी विशेष रूप से खतरनाक ब्लड कैंसर जैसे डिफ्यूज लार्ज बी-सेल लिम्फोमा और एक्यूट लिम्फोब्लास्टिक ल्यूकेमिया के इलाज में प्रभावी साबित हुई है।
- हालांकि, यह प्रक्रिया अत्यंत महंगी, समय-साध्य और अत्यधिक तकनीकी संसाधनों पर निर्भर होती है।
- भारत में एक मरीज के इलाज की अनुमानित लागत ₹60–70 लाख तक होती है, जिसमें लगभग आधी राशि प्रयोगशाला में सेल्स को तैयार करने में और बाकी कीमोथेरेपी, अस्पताल में भर्ती और साइड इफेक्ट्स के इलाज पर खर्च होती है।
शरीर के भीतर टी-कोशिकाओं की इंजीनियरिंग:
इस नए अध्ययन में पारंपरिक जटिल प्रक्रियाओं को हटाकर एक नई तकनीक अपनाई गई है, जिसमें CD8-लक्षित लिपिड नैनोकणों (CD8-tLNPs) की मदद से mRNA को सीधे शरीर में मौजूद परिसंचारी (circulating) प्रतिरक्षा कोशिकाओं तक पहुँचाया जाता है। ये नैनोकण विशेष एंटीबॉडी से सुसज्जित होते हैं, जो सीधे CD8+ T कोशिकाओं को पहचानते हैं और उन्हें कृत्रिम रिसेप्टर (जैसे CD19 या CD20 को पहचानने वाले) बनाने का निर्देश देते हैं। इसके परिणामस्वरूप, ये टी कोशिकाएं शरीर के भीतर ही कैंसर से लड़ने वाली सक्रिय कोशिकाओं में बदल जाती हैं।
- चूहों में इस तकनीक से ट्यूमर के आकार में कमी और बी कोशिकाओं की संख्या में व्यापक गिरावट देखी गई।
- बंदरों में सिर्फ 2–3 बार इन्फ्यूजन देने के बाद, लगभग 85% CD8+ टी कोशिकाओं को सफलतापूर्वक पुनः प्रोग्राम किया गया, जिससे तिल्ली, अस्थि मज्जा और लिम्फ नोड्स जैसे ऊतकों में 95% तक बी कोशिकाएं समाप्त हो गईं।
अध्ययन के मुख्य लाभ:
- कोई व्यक्तिगत कोशिका निर्माण नहीं: इस तकनीक में प्रयोगशाला में टी-कोशिकाओं को अलग से तैयार करने की आवश्यकता नहीं होती, जिससे प्रक्रिया सरल और सस्ती हो जाती है।
- कीमोथेरेपी की जरूरत नहीं: यह विधि लिम्फोडिप्लेटिंग कीमोथेरेपी से बचाती है, जिससे संक्रमण का खतरा काफी कम हो जाता है।
- mRNA आधारित: यह केवल अस्थायी बदलाव करता है, जिससे दीर्घकालिक जेनेटिक जोखिम भी घटते हैं।
- सरल डिलीवरी प्रणाली: यह दवा की तरह सीधे शरीर में दी जाती है, जिससे इलाज के लिए विशेष या बड़े अस्पतालों की जरूरत नहीं पड़ती।
- बेहतर सुरक्षा: इसमें इस्तेमाल हुआ नया बायोडिग्रेडेबल लिपिड (लिपिड 829) यकृत पर होने वाले दुष्प्रभाव और सूजन को कम करता है।
इस तकनीक का परीक्षण ल्यूपस और मायोसिटिस जैसी ऑटोइम्यून बीमारियों से ग्रस्त मरीजों के रक्त नमूनों पर भी किया गया, जिसमें दोषपूर्ण बी कोशिकाएं सफलतापूर्वक नष्ट कर दी गईं। इससे पता चलता है कि यह पद्धति केवल कैंसर ही नहीं, बल्कि ऑटोइम्यून विकारों के इलाज में भी उपयोगी हो सकती है।
भारत के लिए महत्व:
भारत में बी-कोशिकाओं से जुड़े कैंसर का बोझ काफी अधिक है:
- डिफ्यूज लार्ज बी-सेल लिम्फोमा (DLBCL), भारत में नॉन-हॉजकिन लिम्फोमा के 34–60% मामलों के लिए जिम्मेदार है।
- एक्यूट लिम्फोब्लास्टिक ल्यूकेमिया बच्चों में सबसे आम कैंसर है। साथ ही, ऑटोइम्यून बीमारियों के मामले भी तेजी से बढ़ रहे हैं, कोविड-19 के बाद इनकी व्यापकता में अनुमानतः 30% तक वृद्धि देखी गई है।
वर्तमान में भारत में CAR T-सेल थेरेपी बेहद सीमित है, क्योंकि इसकी लागत बहुत अधिक है, इसमें उन्नत तकनीकी ढांचा चाहिए और यह केवल कुछ विशेष केंद्रों तक ही सीमित है।
ऐसे में यह नई इन्फ्यूजन-आधारित तकनीक लागत को काफी घटा सकती है और छोटे शहरों व सरकारी अस्पतालों तक इसकी पहुंच संभव बना सकती है।
निष्कर्ष:
यह तकनीक अभी प्रीक्लिनिकल चरण में है, लेकिन बिना कीमोथेरेपी या प्रयोगशाला आधारित जटिल प्रक्रियाओं के, शरीर के भीतर ही टी-सेल्स को सक्रिय और संशोधित करना एक महत्वपूर्ण वैज्ञानिक उपलब्धि है। यदि यह मानव परीक्षणों में सफल होती है, तो CAR T-सेल थेरेपी को अधिक व्यापक रूप से इस्तेमाल किया जा सकेगा, खासकर उन मरीजों के लिए जो बुजुर्ग हैं या पहले से गंभीर बीमारियों से ग्रस्त हैं। यह नवाचार न केवल कैंसर बल्कि ऑटोइम्यून रोगों के उपचार में भी एक नया युग शुरू कर सकता है — भारत जैसे देशों में जहां इलाज की लागत और पहुंच एक बड़ी चुनौती है, वहां इसका प्रभाव और भी गहरा हो सकता है।