संदर्भ:
हाल ही में भारत के मुख्य न्यायाधीश न्यायमूर्ति सूर्यकांत ने दक्षिण गोवा में आयोजित एक राष्ट्रीय सम्मेलन में भारत की न्यायिक प्रणाली को लेकर एक दूरदर्शी और परिवर्तनकारी दृष्टिकोण प्रस्तुत किया। उन्होंने मुकदमे-केंद्रित न्याय व्यवस्था से आगे बढ़ते हुए “बहु-द्वार न्यायालय” मॉडल को अपनाने पर जोर दिया, जिसमें मध्यस्थता सहित अन्य वैकल्पिक विवाद समाधान तंत्र (एडीआर) को न्याय वितरण की प्रक्रिया में केंद्रीय स्थान दिया जाए।
बहु-द्वार न्यायालय की अवधारणा:
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- बहु-द्वार न्यायालय की अवधारणा अदालतों को केवल निर्णय सुनाने वाले मंच के रूप में नहीं, बल्कि समग्र और बहुविकल्पीय विवाद समाधान केंद्र के रूप में स्थापित करती है।
- इस मॉडल के अंतर्गत न्यायालय में आने वाले व्यक्ति को उसके विवाद की प्रकृति, जटिलता और उपयुक्तता के आधार पर विभिन्न मार्ग उपलब्ध कराए जाते हैं, जैसे मध्यस्थता, पंचाट, सुलह तथा पारंपरिक मुकदमेबाज़ी।
- यह व्यवस्था मुकदमों पर अत्यधिक निर्भरता को कम करते हुए आपसी सहमति, संवाद और सहभागिता पर आधारित समाधान को प्रोत्साहित करती है।
- पारंपरिक न्यायिक प्रक्रिया के अतिरिक्त वैकल्पिक उपाय प्रदान कर यह मॉडल पक्षकारों को निर्णय-प्रक्रिया में सक्रिय भूमिका देता है, न्याय तक पहुँच को सरल बनाता है तथा न्याय वितरण प्रणाली को अधिक प्रभावी और व्यावहारिक बनाता है।
- बहु-द्वार न्यायालय की अवधारणा अदालतों को केवल निर्णय सुनाने वाले मंच के रूप में नहीं, बल्कि समग्र और बहुविकल्पीय विवाद समाधान केंद्र के रूप में स्थापित करती है।
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बहु-द्वार न्यायालय मॉडल के लाभ:
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- दोनों पक्षों के लिए लाभकारी समाधान: मध्यस्थता के माध्यम से विवादों का शीघ्र निपटारा संभव होता है, जिससे मुकदमेबाज़ी की लागत कम होती है, समय की बचत होती है और न्यायालयों में लंबित मामलों का दबाव घटता है। साथ ही, यह प्रक्रिया पक्षकारों के पारस्परिक संबंधों को बनाए रखने में सहायक होती है।
- उपयुक्त मामलों में न्यायिक निर्णय की निरंतरता: सभी विवाद वैकल्पिक समाधान के लिए उपयुक्त नहीं होते। ऐसे मामलों में न्यायालय अपनी संवैधानिक भूमिका निभाते हुए विवाद के गुण-दोष के आधार पर न्यायिक निर्णय देने में पूर्णतः सक्षम रहते हैं।
- सांस्कृतिक और भाषाई संवेदनशीलता का समावेश: प्रभावी मध्यस्थता के लिए यह आवश्यक है कि मध्यस्थ स्थानीय भाषा में संवाद कर सके तथा क्षेत्रीय परंपराओं, सामाजिक मूल्यों, भावनात्मक पहलुओं और स्थानीय परिस्थितियों की सम्यक समझ रखता हो, जिससे समाधान अधिक स्वीकार्य और टिकाऊ बन सके।
- दोनों पक्षों के लिए लाभकारी समाधान: मध्यस्थता के माध्यम से विवादों का शीघ्र निपटारा संभव होता है, जिससे मुकदमेबाज़ी की लागत कम होती है, समय की बचत होती है और न्यायालयों में लंबित मामलों का दबाव घटता है। साथ ही, यह प्रक्रिया पक्षकारों के पारस्परिक संबंधों को बनाए रखने में सहायक होती है।
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महत्व:
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- न्याय तक पहुँच: बहु-द्वार न्यायालय मॉडल भारतीय संविधान के अनुच्छेद 39A में निहित समान न्याय और निःशुल्क विधिक सहायता के सिद्धांतों के अनुरूप है। यह पारंपरिक मुकदमेबाज़ी से आगे बढ़कर न्याय को अधिक सुलभ, शीघ्र और किफ़ायती बनाता है तथा विरोधात्मक प्रक्रिया के स्थान पर सहभागितापूर्ण और सहमति-आधारित न्याय को बढ़ावा देता है।
- न्यायिक सुधार: यह दृष्टिकोण न्यायालयों में लंबित मामलों को कम करने, विवाद समाधान तंत्र को सुदृढ़ बनाने और वैकल्पिक विवाद समाधान (एडीआर) को न्याय वितरण प्रणाली की मुख्यधारा में एकीकृत करने की दिशा में महत्वपूर्ण कदम को दर्शाता है।
- एडीआर और नीतिगत क्रियान्वयन: मध्यस्थता को व्यवस्थित और संस्थागत रूप प्रदान करने से राष्ट्रीय एडीआर नीति को बल मिलता है तथा समुदाय-आधारित और विकेंद्रीकृत विवाद समाधान प्रक्रियाओं को प्रोत्साहन मिलता है, जो अंतरराष्ट्रीय सर्वोत्तम प्रथाओं के अनुरूप हैं।
- न्याय तक पहुँच: बहु-द्वार न्यायालय मॉडल भारतीय संविधान के अनुच्छेद 39A में निहित समान न्याय और निःशुल्क विधिक सहायता के सिद्धांतों के अनुरूप है। यह पारंपरिक मुकदमेबाज़ी से आगे बढ़कर न्याय को अधिक सुलभ, शीघ्र और किफ़ायती बनाता है तथा विरोधात्मक प्रक्रिया के स्थान पर सहभागितापूर्ण और सहमति-आधारित न्याय को बढ़ावा देता है।
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निष्कर्ष:
“बहु-द्वार न्यायालय” मॉडल, मध्यस्थता को न्याय प्रणाली की मुख्यधारा में सम्मिलित कर तथा प्रशिक्षित मध्यस्थों के आधार का विस्तार कर, न केवल लंबित मामलों में कमी लाना है, बल्कि सहभागितापूर्ण, मानवीय और किफ़ायती न्याय को सुदृढ़ करना भी है। यह परिवर्तन मात्र एक कानूनी सुधार तक सीमित नहीं है, बल्कि भारत की न्याय संस्कृति को अधिक समावेशी, सुलभ और गरिमामय बनाने की दिशा में एक व्यापक सामाजिक परिवर्तन को दर्शाता है।

