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Daily-current-affairs / 12 Jun 2025

भारत में प्रजनन अधिकार और मातृत्व लाभ: संवैधानिक संरक्षण, चुनौतियाँ और आगे की राह

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संदर्भ:
भारत के सर्वोच्च न्यायालय ने हाल ही में एक ऐतिहासिक निर्णय में महिलाओं के प्रजनन अधिकारों को मज़बूती प्रदान की। यह मामला तमिलनाडु सरकार की दो-बच्चे की नीति के आधार पर एक सरकारी स्कूल शिक्षिका को तीसरे बच्चे के लिए मातृत्व अवकाश से वंचित करने से संबंधित था। सुप्रीम कोर्ट ने मद्रास हाई कोर्ट के पहले के निर्णय को पलटते हुए कहा कि मातृत्व अवकाश केवल एक वैधानिक सुविधा नहीं, बल्कि संविधान के अनुच्छेद 21 के अंतर्गत महिलाओं की व्यक्तिगत स्वतंत्रता का एक मौलिक अधिकार है।

यह फैसला मातृत्व लाभ को महिला अधिकारों, सामाजिक न्याय और लोकतांत्रिक समावेशन के महत्वपूर्ण अंग के रूप में प्रस्तुत करता है। साथ ही, यह मातृत्व कानूनों के क्रियान्वयन में व्याप्त समस्याओं और एक अधिक समावेशी व प्रगतिशील नीति की आवश्यकता पर गंभीर प्रश्न भी उठाता है।

प्रजनन अधिकार के रूप में मातृत्व लाभ:

  • सर्वोच्च न्यायालय ने मातृत्व अवकाश को महिलाओं के प्रजनन अधिकारों का हिस्सा माना, जो अनुच्छेद 21 के तहत संरक्षित हैं। इनमें गर्भधारण संबंधी निर्णय लेने की स्वतंत्रता, स्वास्थ्य सेवाओं तक पहुंच और गर्भावस्था के दौरान गरिमा बनाए रखने का अधिकार शामिल हैं।
  • अदालत ने सार्वभौमिक मानवाधिकार घोषणा पत्र (UDHR) जैसे अंतरराष्ट्रीय मानवाधिकार मानकों का भी उल्लेख किया, जो स्वास्थ्य, गोपनीयता और समानता के अधिकार को सुनिश्चित करते हैं। इस निर्णय ने यह स्पष्ट किया कि जनसंख्या नियंत्रण जैसी नीतियाँ महिलाओं के मौलिक अधिकारों का उल्लंघन नहीं कर सकतीं।

मातृत्व लाभों का ऐतिहासिक विकास:

  • मातृत्व संरक्षण की अवधारणा का उद्भव 19वीं सदी के अंत में जर्मनी और फ्रांस जैसे कल्याणकारी राज्यों में हुआ था। उस समय का मुख्य उद्देश्य मातृ-शिशु मृत्यु दर को कम करना और जनसंख्या में गिरावट को रोकना था। आगे चलकर यह महिलाओं को औपचारिक अर्थव्यवस्था में शामिल करने का माध्यम बना।
  • वैश्विक स्तर पर, 1919 में अंतरराष्ट्रीय श्रम संगठन (ILO) ने मातृत्व संरक्षण सम्मेलन अपनाया, जिसने 12 सप्ताह के भुगतानयुक्त अवकाश, निःशुल्क चिकित्सा सेवा, नौकरी की सुरक्षा और स्तनपान के लिए अवकाश को अनिवार्य किया।
  • भारत में, मातृत्व लाभ का मुद्दा स्वतंत्रता-पूर्व काल में सामने आया। डॉ. भीमराव अंबेडकर और एन. एम. जोशी जैसे समाज सुधारकों ने 1929 में बंबई विधान परिषद में मातृत्व लाभ विधेयक पेश किया। उस समय मुंबई के कपड़ा उद्योग में बड़ी संख्या में महिलाएँ कार्यरत थीं, जिन्हें गर्भावस्था के दौरान बेहतर स्वास्थ्य देखभाल की आवश्यकता थी।
  • हालाँकि उद्योगपति आर्थिक नुकसान के डर से इसका विरोध कर रहे थे, फिर भी कुछ प्रांतों जैसे मद्रास (1934), उत्तर प्रदेश (1938), पश्चिम बंगाल (1939) और असम (1944) ने अपने-अपने कानून बनाए। अंततः स्वतंत्रता के बाद 1961 में मातृत्व लाभ अधिनियम पारित किया गया।

Maternity Benefits in India

मातृत्व लाभ अधिनियम, 1961 और 2017 का संशोधन:

यह अधिनियम 10 या अधिक कर्मचारियों वाले संस्थानों (जैसे फैक्ट्री, खदान, प्लांटेशन, दुकानें व सरकारी कार्यालय) में गर्भवती महिलाओं के रोजगार को नियंत्रित करता है। इसमें कर्मचारी राज्य बीमा अधिनियम, 1948 के तहत कवर की गई महिलाएँ भी आती हैं।

शुरुआत में, इस अधिनियम में 12 सप्ताह का सवेतन मातृत्व अवकाश प्रदान किया गया था। हालाँकि, 2017 में कानून में महत्वपूर्ण संशोधन किया गया। संशोधित अधिनियम की मुख्य विशेषताएँ इस प्रकार हैं:

  • अवकाश की अवधि में वृद्धि: दो से कम जीवित बच्चों वाली महिलाओं को 26 सप्ताह का भुगतान सहित अवकाश, जबकि दो या अधिक बच्चों वाली महिलाओं को 12 सप्ताह।
  • क्रेच सुविधा: 50 या अधिक कर्मचारियों वाले संस्थानों में बच्चों की देखरेख हेतु क्रेच सुविधा अनिवार्य।
  • कार्यस्थल पर क्रेच विज़िट: माताओं को कार्य के दौरान क्रेच जाने की अनुमति।
  • नियोजकों की जिम्मेदारी: महिला कर्मचारियों को नियुक्ति के समय मातृत्व लाभों की जानकारी देना अनिवार्य।

कार्यान्वयन की चुनौतियाँ:

1.       सीमित कवरेज:
अधिनियम केवल संगठित क्षेत्र में लागू होता है, जबकि भारत की 90% से अधिक कामकाजी महिलाएँ असंगठित क्षेत्र में कार्यरत हैं, जैसे घरेलू कामगार, खेतिहर मजदूर, निर्माण श्रमिक व ठेले-रेहड़ीवाले।

2.     कम जागरूकता और अनुपालन की कमी:
छोटे निजी संस्थानों में काम करने वाली महिलाओं को अधिनियम की जानकारी नहीं होती। कई नियोक्ता कानूनी प्रावधानों का पालन नहीं करते।

3.     पूरी वित्तीय जिम्मेदारी नियोक्ता पर:
मातृत्व अवकाश की पूरी लागत निजी संस्थानों पर होने से वे प्रजनन आयु की महिलाओं को नौकरी देने से हिचकते हैं।

4.     नौकरी में लैंगिक असमानता:
ऑक्सफैम इंडिया की 2022 रिपोर्ट के अनुसार, भारत में पुरुषों और महिलाओं के रोजगार में अंतर का 98% कारण लैंगिक भेदभाव है। परिणामस्वरूप, 2022-23 के PLFS आंकड़ों के अनुसार भारत में महिला श्रम भागीदारी दर केवल 37% है।

समावेशी और लैंगिक-तटस्थ नीतियों की दिशा में:

1.       वैश्विक रुझान:
स्वीडन ने 1974 में साझा पेरेंटल लीव की शुरुआत की। अब नॉर्वे, फिनलैंड, डेनमार्क, एस्तोनिया और यूक्रेन जैसे देश सालभर तक पेड फैमिली लीव देते हैं। इससे पारंपरिक लिंग भूमिकाओं में बदलाव आता है।

2.     भारत की स्थिति:
भारत में पितृत्व या पेरेंटल लीव के लिए कोई राष्ट्रीय नीति नहीं है, जिससे यह धारणा और मजबूत होती है कि देखभाल केवल महिलाओं की ज़िम्मेदारी है।

3.     ठेका श्रमिकों की उपेक्षा:
2023 में दिल्ली उच्च न्यायालय ने कहा कि ठेका श्रमिकों को मातृत्व लाभ से वंचित करना असंवैधानिक और अमानवीय है। फिर भी विश्वविद्यालयों, निजी कंपनियों और सेवा क्षेत्रों में बड़ी संख्या में महिलाएँ आज भी इस सुविधा से वंचित हैं।

निष्कर्ष:

मातृत्व अवकाश केवल कार्यस्थल सुविधा नहीं, बल्कि प्रजनन न्याय, लैंगिक समानता और सामाजिक समावेशन की बुनियाद है। सुप्रीम कोर्ट द्वारा इसे संवैधानिक अधिकार के रूप में मान्यता देना एक सकारात्मक कदम है, जिससे महिलाओं की गरिमा और स्वायत्तता को बल मिलता है। परंतु जब तक ये अधिकार सार्वभौमिक, समावेशी और सही तरीके से लागू नहीं होंगे, तब तक ये अधिकांश भारतीय महिलाओं के लिए केवल कागज़ी हक़ बने रहेंगे। सच्ची लैंगिक न्याय की ओर अगला कदम यह है कि हर महिला, चाहे वह संगठित क्षेत्र में हो या असंगठित में, इन लाभों तक समान रूप से पहुँच पाए।

 

मुख्य प्रश्न : दो-बच्चे की नीति को कड़ाई से लागू करने के सम्बन्ध में मातृत्व लाभों से इनकार किए जाने के क्या संवैधानिक और नैतिक निहितार्थ हैं? क्या ऐसी नीतियाँ मौलिक अधिकारों का उल्लंघन करती हैं? हालिया न्यायिक व्याख्या के आधार पर उत्तर दीजिए।