तेजी से परिवर्तन की चाह रखने वाले समाज, यदि संस्थागत स्थिरता सुनिश्चित नहीं करते, तो वे विकास की बजाय अव्यवस्था का सामना करते हैं। — सैमुअल हंटिंगटन |
भारत में भाषा केवल संप्रेषण का माध्यम नहीं है—यह पहचान, सत्ता और शासन का एक प्रमुख आधार है। देश की असाधारण भाषायी विविधता, एक ओर लोकतांत्रिक शक्ति है तो दूसरी ओर नीति-निर्माण की चुनौती भी। नई शिक्षा नीति (NEP) 2020, तीन-भाषा फॉर्मूले को पुनः स्थापित करते हुए, राष्ट्रीय एकता, संज्ञानात्मक विकास और सांस्कृतिक समावेशिता के उद्देश्यों में सामंजस्य स्थापित करने का प्रयास करती है। फिर भी, इसके क्रियान्वयन ने भाषा थोपने की राजनीति, संस्थागत तैयारी और शैक्षणिक समानता को लेकर नई बहसों को जन्म दिया है।
भारत में भाषा नीति का ऐतिहासिक विकास
स्वतंत्रता के बाद भारत में भाषा को लेकर तीव्र बहसें हुईं, जिसका अंत एक संवैधानिक समझौते में हुआ। महात्मा गांधी द्वारा प्रस्तावित हिंदुस्तानी—जो हिंदी और उर्दू का मिश्रण था—को क्षेत्रीय आकांक्षाओं के चलते छोड़ दिया गया। संविधान सभा द्वारा अपनाई गई मुंशी-अय्यंगार फॉर्मूला के तहत, देवनागरी लिपि में हिंदी को राजभाषा घोषित किया गया, जबकि अंग्रेज़ी को 15 वर्षों के लिए सहायक भाषा के रूप में बनाए रखने की व्यवस्था की गई।
हालाँकि, यह व्यवस्था गैर-हिंदी भाषी राज्यों, विशेषकर तमिलनाडु में तीव्र विरोध का कारण बनी। इसके फलस्वरूप, आधिकारिक भाषा अधिनियम, 1963 पारित किया गया, जिसने अंग्रेज़ी के प्रयोग को अनिश्चितकाल तक बढ़ा दिया। 1960 के दशक में शुरू किया गया तीन-भाषा फॉर्मूला, शिक्षा प्रणाली में भाषायी बहुलता को संस्थागत रूप देने का प्रयास था:
· हिंदी भाषी राज्यों में: हिंदी, अंग्रेज़ी, और एक आधुनिक भारतीय भाषा (प्राथमिकता दक्षिण भारतीय भाषा को)
· गैर-हिंदी भाषी राज्यों में: क्षेत्रीय भाषा, अंग्रेज़ी, और हिंदी
हालांकि यह फॉर्मूला राष्ट्रीय एकता और भाषाई संतुलन को बढ़ावा देने के उद्देश्य से लाया गया था, इसकी असमान रूप से लागू होने और केंद्रीयता की प्रवृत्तियों के कारण यह लगातार विवादों में रहा।
भाषा राजनीतिक रूप से विवादास्पद क्यों बनी हुई है?
· सांस्कृतिक पहचान: भाषा सामाजिक और सांस्कृतिक जुड़ाव का प्राथमिक चिन्ह होती है।
· एकरूपता का भय: हिंदी को केंद्रीय रूप से बढ़ावा देने को अक्सर क्षेत्रीय विविधताओं के खिलाफ माना जाता है।
· आर्थिक पहुंच: रोजगार और गतिशीलता में भाषा की उपयोगिता से भाषा-चयन प्रभावित होता है।
· सामाजिक एकजुटता: भाषा समुदायों को जोड़ती है; उसकी उपेक्षा सामाजिक ताने-बाने को कमजोर कर सकती है।
भाषाई अल्पसंख्यकों के लिए संवैधानिक सुरक्षा उपाय
· अनुच्छेद 30: अल्पसंख्यकों को शैक्षणिक संस्थान स्थापित और संचालित करने का अधिकार।
· अनुच्छेद 347: यदि किसी राज्य की पर्याप्त जनसंख्या मांग करे, तो राष्ट्रपति उस भाषा को मान्यता दे सकते हैं।
· अनुच्छेद 350-बी: भाषाई अल्पसंख्यकों के लिए विशेष अधिकारी की नियुक्ति, जो संवैधानिक सुरक्षा सुनिश्चित करे।
NEP 2020 और भाषा का मुद्दा: · प्राथमिक शिक्षा में मातृभाषा या घरेलू भाषा में शिक्षण, आदर्शतः कक्षा 5 तक और संभवतः कक्षा 8 तक। · बहुभाषिकता को संज्ञानात्मक और सांस्कृतिक संपत्ति के रूप में मान्यता। · यह आश्वासन कि किसी राज्य या व्यक्ति पर कोई भाषा थोपी नहीं जाएगी। हालांकि, इस नीति का क्रियान्वयन विशेष रूप से संसाधन-विहीन और हाशिए पर स्थित संदर्भों में कई संरचनात्मक कमजोरियों को उजागर करता है। नीति की आदर्श संरचना और वास्तविक धरातल के बीच असंतुलन, इसके मुक्तिकारी (emancipatory) उद्देश्य को कमजोर कर देता है। |
क्या हैं प्रमुख चुनौतियाँ?
1. विकल्प का भ्रम बनाम संरचनात्मक अंतराल
यद्यपि NEP 2020 औपचारिक रूप से भाषायी विकल्प को मान्यता देती है, परंतु प्रशिक्षित शिक्षकों और सहायक संसाधनों की अनुपस्थिति में यह विकल्प केवल एक अवधारणात्मक ढांचा बनकर रह जाता है।
· जैसे महाराष्ट्र और पश्चिम बंगाल में, स्कूलों में संस्कृत या हिंदी जैसे अतिरिक्त विषयों के लिए सेवानिवृत्त या अप्रशिक्षित शिक्षकों की नियुक्ति की जाती है।
· ओडिशा के आदिवासी क्षेत्रों में संथाली भाषी छात्रों को बिना किसी संक्रमण सहायता के बंगाली या हिंदी में पढ़ाया जाता है। इससे शैक्षणिक समानता और गुणवत्ता दोनों प्रभावित होती है।
2. शैक्षणिक बोझ का बढ़ना
कई ग्रामीण और आदिवासी क्षेत्रों में छात्रों को एक साथ चार भाषाएँ पढ़नी होती हैं—घरेलू भाषा, क्षेत्रीय भाषा, हिंदी और अंग्रेज़ी। यह बहुलता सीखने को सशक्त बनाने के बजाय संज्ञानात्मक बोझ, शैक्षणिक तनाव और सतही समझ को जन्म देती है। परिणामस्वरूप, अधिगम परिणाम कमजोर होते हैं और विशेषकर प्रथम पीढ़ी के छात्रों में ड्रॉपआउट की संभावना बढ़ जाती है।
3. भाषाई अदृश्यता और पहचान का ह्रास
भाषा केवल शैक्षणिक नहीं, बल्कि सांस्कृतिक पहचान और भावनात्मक जुड़ाव का माध्यम होती है। जब कक्षा में छात्र की मातृभाषा अनुपस्थित रहती है, तो औपचारिक शिक्षा उसके लिए एक सांस्कृतिक विछिन्नता का अनुभव कराती है। यह न केवल शैक्षणिक बल्कि राजनीतिक भी होता है। अनुसंधानों से पता चला है कि इस तरह की भाषाई उपेक्षा आदिवासी समुदायों में कम सहभागिता, खराब प्रदर्शन और उच्च परित्याग दर से जुड़ी होती है।
उदाहरण:
ओडिशा का बहुभाषिक शिक्षा (MLE) कार्यक्रम
ओडिशा के आदिवासी जिलों में चल रहा MLE कार्यक्रम एक प्रभावशाली वैकल्पिक मॉडल प्रस्तुत करता है। यह योजना संथाली और कुई जैसी भाषाओं में प्रारंभिक शिक्षा प्रदान करती है और फिर क्रमिक रूप से ओड़िया और अंग्रेज़ी में परिवर्तन करती है। एनसीईआरटी द्वारा की गई व्यापक समीक्षा में पाया गया:
· आदिवासी छात्रों की उपस्थिति और आत्मविश्वास में सुधार
· भाषा और गणित में दक्षता में वृद्धि
· अभिभावकों की भागीदारी और शिक्षकों की सक्रियता में वृद्धि
MLE ने प्रमाणित किया है कि जब मातृभाषा आधारित शिक्षा को व्यवस्थित रूप से एकीकृत किया जाए, तो शैक्षणिक और भावनात्मक दोनों स्तरों पर श्रेष्ठ परिणाम मिलते हैं।
इंडोनेशियाई-ऑस्ट्रेलियाई पहल
इंडोनेशिया का अनुभव एक उपयोगी तुलनात्मक ढांचा प्रदान करता है। वहाँ बहासा इंडोनेशिया (Bahasa Indonesia) को राष्ट्रीय भाषा के रूप में अनिवार्य किया गया, जबकि यह केवल 10% आबादी की मातृभाषा है। परिणामस्वरूप शिक्षा की गुणवत्ता में गिरावट और सार्वजनिक असंतोष सामने आया।
एक संयुक्त इंडोनेशियाई-ऑस्ट्रेलियाई पहल के तहत एक द्विभाषिक संक्रमण मॉडल लागू किया गया, जिसमें आरंभिक शिक्षण में स्थानीय भाषाओं को शामिल किया गया। इसके परिणामस्वरूप:
· छात्रों की सहभागिता और आत्मविश्वास में वृद्धि
· शिक्षक-छात्र संबंधों में सुधार
· कक्षा में भागीदारी और उपस्थिति में बढ़ोत्तरी
यह सिद्ध करता है कि भाषाई सशक्तिकरण को विकेंद्रीकृत और सांस्कृतिक रूप से उत्तरदायी होना चाहिए, न कि केंद्रीय आदेशों द्वारा थोपे जाने वाला।
नीतिगत सिफारिशें:
1. स्थानीय भाषा समितियों की स्थापना
राज्य और ज़िला स्तर पर शिक्षकों, अभिभावकों, भाषाविदों और समुदाय के नेताओं से मिलकर बनी समितियाँ गठित की जाएँ, जो क्षेत्रीय यथार्थ के अनुसार तीन-भाषा फॉर्मूले को लागू करें। इससे भाषा योजना में लोकतांत्रिक सहभागिता सुनिश्चित होगी।
2. MLE कार्यक्रमों का विस्तार
ओडिशा के MLE मॉडल को विविध भाषायी क्षेत्रों में दोहराया और अनुकूलित किया जाए। मातृभाषा से शुरू होकर राज्य और राष्ट्रीय भाषाओं में क्रमिक परिवर्तन का मॉडल शैक्षणिक रूप से प्रभावी है।
3. बहुभाषिक शिक्षक प्रशिक्षण में निवेश
सरकारों को ऐसे शिक्षकों की भर्ती और प्रशिक्षण को संस्थागत रूप देना चाहिए जो प्रमुख और जनजातीय भाषाओं में दक्ष हों। स्थानीय स्नातकों को अपने समुदायों में भाषा शिक्षक बनने के लिए प्रोत्साहित करना आवश्यक है।
4. भाषाई संख्या से अधिक सिखने की प्रकिया को प्राथमिकता
तीसरी और चौथी भाषाओं को जल्दबाजी या समान रूप से लागू करने से बचना चाहिए। स्कूलों को भाषा अधिग्रहण को चरणबद्ध करने की स्वायत्तता दी जाए, जैसा कि राष्ट्रीय शिक्षा नीति (NEP) के दिशा-निर्देशों में संभव है।
निष्कर्ष
भारत का बहुभाषिक शिक्षा प्रयोग संस्थागत क्षमता, सांस्कृतिक संवेदनशीलता और अनुभवजन्य साक्ष्यों पर आधारित होना चाहिए। NEP 2020 समावेशी दृष्टिकोण प्रस्तुत करती है, लेकिन बिना आवश्यक ढांचा और भागीदारी तंत्र के, इसके वादे केवल आकांक्षा बनकर रह सकते हैं।
एक सच्चा बहुभाषिक भारत, विरोधाभास नहीं, बल्कि इसके संवैधानिक बहुलवाद की आत्मा है। चुनौती किसी “सही” भाषा के चयन में नहीं, बल्कि ऐसी भाषा नीति बनाने में है जो सशक्त और समावेशी हो।
मुख्य प्रश्न: एनईपी 2020 भारत की शिक्षा नीति में एक आदर्श बदलाव का प्रतीक है, लेकिन इसका कार्यान्वयन असमान बना हुआ है। आलोचनात्मक मूल्यांकन करें। |