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Daily-current-affairs / 06 Oct 2025

“भारत में नक्सलवाद का पतन: सुरक्षा, शासन और सामाजिक परिवर्तन के अंतर्संबंधों का विश्लेषण”

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संदर्भ:

पश्चिम बंगाल में नक्सलबाड़ी विद्रोह के लगभग छह दशक बाद, भारत में माओवादी आंदोलन एक निर्णायक नाजुक मोड़ पर है। केंद्र और राज्य सुरक्षा बलों के निरंतर कार्यवाही के तहत, यह आंदोलन आंतरिक विभाजनों और घटती परिचालन क्षमता से जूझ रहा है। केंद्रीय गृह मंत्री अमित शाह ने मार्च 2026 तक नक्सल-मुक्त भारत का लक्ष्य घोषित किया है, जो देश में वामपंथी उग्रवाद (Left Wing Extremism - LWE) को समाप्त करने पर सरकार के बढ़ते फोकस को दर्शाता है।

नक्सलवाद की उत्पत्ति और विस्तार

    • नक्सलवाद या वामपंथी उग्रवाद की शुरुआत 18 मई 1967 को पश्चिम बंगाल के नक्सलबाड़ी गांव से हुई। इस आंदोलन का नेतृत्व चारु मजूमदार ने किया, जिन्होंने ऐतिहासिक आठ दस्तावेज़” (Historic Eight Documents) लिखे, जो दीर्घकालिक क्रांतिकारी युद्ध की वैचारिक नींव बने।
      • मजूमदार ने भारतीय राज्य को एक बुर्जुआ संस्था बताया, मुख्यधारा के वामपंथी दलों की संशोधनवादीनीतियों की आलोचना की और माओ त्से तुंग के चीन तथा क्यूबा की क्रांति से प्रेरित सशस्त्र संघर्ष का आह्वान किया।
      • मूल नक्सल आंदोलन ने भारतीय कम्युनिस्ट पार्टी (मार्क्सवादी) में विभाजन उत्पन्न किया, जिसके परिणामस्वरूप 1969 में भारतीय कम्युनिस्ट पार्टी (मार्क्सवादी-लेनिनवादी) की स्थापना हुई।
      • हालाँकि प्रारंभिक विद्रोहों को दबा दिया गया, लेकिन विचारधारा आंध्र प्रदेश, बिहार, झारखंड, ओडिशा, छत्तीसगढ़, महाराष्ट्र और पश्चिम बंगाल के कुछ हिस्सों में फैल गई, विशेष रूप से हाशिए पर पड़ी और आदिवासी समुदायों में इसकी जड़ें मजबूत हुईं।
    • समय के साथ यह आंदोलन विकसित हुआ और 1980 में पीपुल्स वॉर ग्रुप तथा बाद में 2004 में सीपीआई (माओवादी) का गठन हुआ, जिसने कई सशस्त्र गुटों का विलय किया। इसका सशस्त्र संगठन पीपुल्स लिबरेशन गोरिल्ला आर्मी (PLGA)” सुरक्षा बलों, नागरिकों और बुनियादी ढांचे पर हमलों और बाल भर्ती के लिए जिम्मेदार रहा, जिससे यह भारत की आंतरिक सुरक्षा के लिए एक बड़ा खतरा बन गया।
    • वामपंथी उग्रवाद ने 92,000 वर्ग किलोमीटर क्षेत्र में फैले 180 जिलों को प्रभावित किया, जिसे भारत का तथाकथित रेड कॉरिडोरकहा गया। हालांकि, पिछले दशक में सुरक्षा प्रवर्तन, विकास हस्तक्षेप और सामुदायिक सहभागिता की मिश्रित सरकारी रणनीति ने आंदोलन के प्रभाव और पहुंच को काफी हद तक सीमित कर दिया है।

भारत में नक्सलवाद की वर्तमान स्थिति

    • माओवादी आंदोलन वर्तमान में नेतृत्व संकट से जूझ रहा है। कई शीर्ष नेता, जिनमें पूर्व महासचिव नाम्बाला केशव राव उर्फ बसवराज और केंद्रीय समिति के सदस्य कट्टा रामचंद्र रेड्डी, कदारी सत्यनारायण रेड्डी, गजरला रवि, चलपति, सहदेव सोरेन, बालकृष्ण, नरसिम्हा और चालम शामिल हैं, हाल के अभियानों में मारे जा चुके हैं। कई सशस्त्र कैडर भी निष्क्रिय किए जा चुके हैं, जिससे संगठन विखंडित हो गया है।
    • माओवादी गतिविधियों के शेष केंद्र बस्तर, दंडकारण्य और छत्तीसगढ़-तेलंगाना सीमा क्षेत्र में सिमट गए हैं, जहाँ हथियार और गोला-बारूद की कमी है, क्योंकि सुरक्षा बलों ने बड़े पैमाने पर जब्ती की है।
    • भर्ती में भी तीव्र गिरावट आई, पहले यह आंदोलन आदिवासी और गैर-आदिवासी दोनों से कैडर जुटाता था, लेकिन अब आदिवासी युवाओं में सशस्त्र संघर्ष के प्रति आकर्षण कम हो गया है। सरकारी कल्याण योजनाएँ, निःशुल्क शिक्षा और मोबाइल व इंटरनेट कनेक्टिविटी ने उन्हें उग्रवाद से अलग वैकल्पिक अवसर प्रदान किए हैं।
    • बुजुर्ग नेताओं में स्वास्थ्य और आयु से संबंधित समस्याएँ भी परिचालन क्षमता को कम कर रही हैं। कई लोग सरकार की पुनर्वास योजनाओं के तहत आत्मसमर्पण और सेवानिवृत्ति को एक व्यावहारिक विकल्प मान रहे हैं। शीर्ष नेताओं की पत्नियाँ और साथी पहले ही आत्मसमर्पण कर चुकी हैं।

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वामपंथी उग्रवाद के विरुद्ध सरकारी रणनीति:

भारत की रणनीति तीन स्तंभों पर आधारित है सुरक्षा प्रवर्तन, विकास हस्तक्षेप और सामुदायिक सहभागिता।

1. सुरक्षा उपाय

सरकार का “SAMADHAN” सिद्धांत एक व्यापक प्रति-उग्रवाद ढांचा प्रदान करता है, जिसमें शामिल हैं
केंद्रीय सशस्त्र पुलिस बलों (CAPFs) और इंडिया रिज़र्व (IR) बटालियनों की तैनाती।
राज्य पुलिस बलों का आधुनिकीकरण प्रशिक्षण, हथियार और संचार प्रणाली में सुधार।
विशेष बुनियादी ढांचा योजना (SIS) के तहत खुफिया इकाइयों, सुदृढ़ पुलिस थानों और विशेष बलों को सशक्त बनाना।
वित्तीय निगरानीधन शोधन निवारण अधिनियम (PMLA) के तहत उगाही और हवाला नेटवर्क जैसे वित्तीय स्रोतों पर कार्रवाई।
तेलंगाना की ग्रेहाउंड्स और महाराष्ट्र की C-60 जैसी विशेष इकाइयाँ खुफिया-आधारित सटीक अभियानों के माध्यम से व्यापक क्षेत्रीय गश्त की बजाय लक्ष्य-विशिष्ट कार्रवाई पर केंद्रित हैं।

2. विकास और कल्याण हस्तक्षेप

यह मानते हुए कि सामाजिक-आर्थिक वंचना उग्रवाद को बढ़ावा देती है, सरकार ने LWE-प्रभावित क्षेत्रों में लक्षित कार्यक्रम शुरू किए हैं
विशेष केंद्रीय सहायता (SCA)सड़कों, स्कूलों, स्वास्थ्य सुविधाओं और जलापूर्ति जैसी बुनियादी अवसंरचना में अंतर को दूर करना।
वित्तीय समावेशन दूरस्थ गांवों में बैंक शाखाएँ, एटीएम और बैंकिंग प्रतिनिधि स्थापित करना।
कौशल विकास और शिक्षा कार्यक्रम नए आईटीआई, कौशल विकास केंद्र, और आदिवासी छात्रों के लिए एकलव्य मॉडल आवासीय विद्यालय (EMRS)
धरती आबा जनजातीय ग्राम उत्कर्ष अभियानबुनियादी सुविधाएँ, आजीविका सहायता और अवसंरचना विकास उपलब्ध कराना।
3-C कनेक्टिविटीसड़क, मोबाइल नेटवर्क और वित्तीय पहुंच को प्राथमिकता देना।
इन प्रयासों ने सामाजिक-आर्थिक परिदृश्य को बदल दिया है, जिससे आदिवासी युवाओं को सशस्त्र आंदोलनों के बजाय वैकल्पिक अवसर प्राप्त हुए हैं।

3. सामुदायिक सहभागिता और जन-धारणा प्रबंधन

      • सिविक एक्शन प्रोग्राम (CAP) सुरक्षा बलों को मानवीय चेहरा प्रदान करता है और स्थानीय समुदायों के बीच विश्वास निर्माण करता है स्वास्थ्य शिविर, विद्यालय सहायता और सामुदायिक आयोजन जैसे कार्यक्रमों के माध्यम से।
        एक समन्वित मीडिया और जनधारणा प्रबंधन योजना माओवादी प्रचार का मुकाबला करती है, सरकारी पहलों को उजागर करती है और युवाओं की आकांक्षाएँ बढ़ाती है। ऐसे प्रयास शांति के लाभों को मूर्त रूप देते हैं और उग्रवादी विचारधारा की अपील को कमजोर करते हैं।

4. पुनर्वास और आत्मसमर्पण कार्यक्रम

कई आत्मसमर्पण कर चुके कैडरों को सरकारी योजनाओं के तहत पुनर्वासित किया गया है, जिनमें वित्तीय सहायता, कौशल प्रशिक्षण और रोजगार अवसर शामिल हैं जो उग्रवाद से अलग एक व्यवहार्य विकल्प प्रदान करते हैं।

स्थायी चुनौतियाँ:

    • वैचारिक अपीलमाओवादी विमर्श अब भी सशस्त्र संघर्ष और क्रांतिकारी न्यायका महिमामंडन करता है।
    • भौगोलिक कठिनाइयाँघने जंगल, पहाड़ी इलाक़े और दूरस्थ गाँव प्रति-उग्रवाद अभियानों को कठिन बनाते हैं।
    • विश्वास की कमीऐतिहासिक उपेक्षा और विकास परियोजनाओं से विस्थापन ने राज्य के इरादों के प्रति संदेह बनाए रखा है।
    • फ्रंट संगठनों और गठबंधनों का समर्थनशहरी नेटवर्क और बाहरी सहयोगी प्रचार, भर्ती और वित्त पोषण में मदद करते हैं, जिनमें कभी-कभी सीमापार संबंध भी होते हैं।

आगे की राह:

1.        विश्वास को बढ़ाना

o    स्थानीय प्रशासन में आदिवासी भागीदारी को बढ़ावा देना।

o    2006 का वन अधिकार अधिनियम प्रभावी रूप से लागू करना, जिससे समुदायों को लघु वनोपज पर अधिकार मिल सके।

o    भूमि अधिग्रहण और पुनर्वास पर बंद्योपाध्याय समिति की जनजाति-संवेदनशील सिफारिशों को अपनाना।

2.      विकासात्मक उपलब्धियों को बनाए रखना

o    आजीविका, शिक्षा, स्वास्थ्य और डिजिटल पहुंच पर निरंतर फोकस।

o    सुनिश्चित करना कि योजनाएँ दूरस्थ क्षेत्रों तक पहुँचें और सबसे वंचित वर्गों को लाभ देना।

3.      वैचारिक अपील का प्रतिकार

o    लोकतांत्रिक भागीदारी और संवैधानिक अधिकारों को प्रोत्साहित करना।

o    आत्मसमर्पित कैडरों को शांति दूतऔर स्थानीय युवाओं के मार्गदर्शक के रूप में शामिल करना।

4.     सुरक्षा और समन्वय

o    खुफिया-आधारित पुलिसिंग और विशेष प्रति-उग्रवाद इकाइयों को सशक्त बनाना।

o    समयबद्ध अभियानों और समग्र विकास उपायों के लिए केंद्र-राज्य समन्वय को मजबूत करना।

निष्कर्ष:

नक्सल-माओवादी आंदोलन, जिसकी शुरुआत सामंती शोषण के विरुद्ध सशस्त्र संघर्ष के रूप में हुई थी, आज सुरक्षा दबाव, नेतृत्व हानि और सामाजिक-आर्थिक परिवर्तनों के कारण पतन की ओर अग्रसर है। कानून प्रवर्तन, विकास और सामुदायिक सहभागिता को मिलाकर सरकार की रणनीति ने इस उग्रवाद की पहुँच को उल्लेखनीय रूप से सीमित किया है।

हालाँकि, चुनौतियाँ बनी हुई हैं। नक्सलवाद का स्थायी उन्मूलन केवल सैन्य अभियानों से नहीं, बल्कि विश्वास निर्माण, सुशासन और सशक्तिकरण के सतत प्रयासों से संभव है। जब तक गरीबी, वंचना और सामाजिक बहिष्कार जैसी जड़ों को समाप्त नहीं किया जाता, तब तक उग्रवाद की पुनरावृत्ति की संभावना बनी रहेगी।

नक्सलबाड़ी से आज तक की यात्रा यह दर्शाती है कि केवल सुरक्षा बलों के बल पर विद्रोह को समाप्त नहीं किया जा सकता समावेशी विकास, नागरिक सहभागिता और संवैधानिक मूल्यों का प्रसार समान रूप से आवश्यक हैं।
नक्सल-मुक्त भारत की प्राप्ति न केवल एक रणनीतिक विजय होगी, बल्कि समान विकास और सामाजिक न्याय की उस परिकल्पना की पूर्ति भी होगी, जो भारत के सबसे हाशिए पर खड़े समुदायों के लिए आशा का प्रतीक बनेगी।

 

UPSC/PSC मुख्य परीक्षा प्रश्न:
नक्सलवाद केवल कानून-व्यवस्था की समस्या नहीं बल्कि एक सामाजिक-आर्थिक चुनौती भी है। चर्चा कीजिए।