सन्दर्भ:
हाल ही में भारतीय रुपये का पहली बार 90 रुपये प्रति डॉलर के स्तर को पार करना वर्ष की सबसे महत्वपूर्ण आर्थिक घटनाओं में से एक है। यह वैश्विक और घरेलू अर्थव्यवस्था में बन रहे गहरे दबावों का संकेत है। किसी मुद्रा का ऐसे मनोवैज्ञानिक रूप से महत्वपूर्ण स्तर को पार करना आयात लागत, मुद्रास्फीति, बचत, घरेलू बजट, व्यावसायिक निर्णयों और समग्र आर्थिक भावना पर प्रभाव डालता है। यह ऐसे समय में भारत की बाहरी आर्थिक बुनियादों पर कठिन प्रश्न खड़े करता है, जब वैश्विक अनिश्चितताएँ पहले से ही उच्च स्तर पर हैं।
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- यद्यपि भारत दुनिया की सबसे तेज़ी से बढ़ती बड़ी अर्थव्यवस्थाओं में से एक है, लेकिन मुद्रा का प्रदर्शन अक्सर केवल घरेलू वृद्धि के बजाय बाहरी संतुलन और पूंजी प्रवाह के प्रति अधिक संवेदनशील रहता है। अतः रुपये की लगातार कमजोरी को भू-राजनीतिक तनावों, व्यापारिक चुनौतियों और बाज़ार अपेक्षाओं के व्यापक संदर्भ में समझने की आवश्यकता है।
- यद्यपि भारत दुनिया की सबसे तेज़ी से बढ़ती बड़ी अर्थव्यवस्थाओं में से एक है, लेकिन मुद्रा का प्रदर्शन अक्सर केवल घरेलू वृद्धि के बजाय बाहरी संतुलन और पूंजी प्रवाह के प्रति अधिक संवेदनशील रहता है। अतः रुपये की लगातार कमजोरी को भू-राजनीतिक तनावों, व्यापारिक चुनौतियों और बाज़ार अपेक्षाओं के व्यापक संदर्भ में समझने की आवश्यकता है।
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यह स्तर क्यों महत्वपूर्ण है?
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- 90 रुपये प्रति डॉलर का स्तर पार करने से प्रतीकात्मक और व्यावहारिक दोनों प्रकार के प्रभाव पड़ते हैं। वित्तीय बाज़ार आमतौर पर ऐसे महत्वपूर्ण संख्याओं पर स्वचालित स्टॉप-लॉस और हेजिंग आदेश रखते हैं। इन स्तरों के टूटते ही डॉलर की अतिरिक्त मांग बढ़ जाती है, जिससे गिरावट और तीव्र हो जाती है।
- इससे भी और अधिक महत्वपूर्ण बात यह है कि रुपये की कमजोरी सीधे परिवारों को प्रभावित करती है। विदेश में छात्रों को भेजने वाले परिवारों के लिए 1,00,000 डॉलर की फीस विनिमय दर 85 से 90 होने पर 5 लाख रुपये बढ़ जाती है जो भारत की प्रति व्यक्ति आय के दोगुने से भी अधिक की छलांग है। विदेश यात्रा, रेमिटेंस और आयात-आधारित दैनिक उपभोग वस्तुएँ भी अचानक महंगी हो जाती हैं।
- 90 रुपये प्रति डॉलर का स्तर पार करने से प्रतीकात्मक और व्यावहारिक दोनों प्रकार के प्रभाव पड़ते हैं। वित्तीय बाज़ार आमतौर पर ऐसे महत्वपूर्ण संख्याओं पर स्वचालित स्टॉप-लॉस और हेजिंग आदेश रखते हैं। इन स्तरों के टूटते ही डॉलर की अतिरिक्त मांग बढ़ जाती है, जिससे गिरावट और तीव्र हो जाती है।
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रुपये की कमजोरी के पीछे वैश्विक कारक:
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- मजबूत अमेरिकी डॉलर: अमेरिकी फेडरल रिज़र्व की कड़ी मौद्रिक नीति और सुरक्षित संपत्तियों के प्रति वैश्विक निवेशकों की प्राथमिकता ने डॉलर को मजबूत बनाए रखा है। मामूली वैश्विक झटके भी निवेश को डॉलर-आधारित परिसंपत्तियों की ओर धकेलते हैं, जिससे उभरते बाज़ारों की मुद्राएँ कमजोर होती हैं।
- भू-राजनीतिक अनिश्चितता: संघर्ष, आपूर्ति-श्रृंखला व्यवधान और बढ़ती वस्तु कीमतों ने वैश्विक निवेशकों को जोखिम से बचने वाला बना दिया है। पश्चिम एशिया और यूरोप में तनाव भारत के लिए विशेष रूप से महत्वपूर्ण हैं, क्योंकि ये अक्सर कच्चे तेल के आयात बिल को बढ़ा देते हैं।
- वैश्विक वस्तु मूल्यों में उतार-चढ़ाव: भले ही कच्चे तेल की कीमतें चरम पर न हों, तेल आयात पर भारत की 85% निर्भरता का अर्थ है कि कीमतें बढ़ते ही मुद्रा पर सीधा दबाव बढ़ता है। धातुओं, उर्वरकों और खाद्य वस्तुओं की बढ़ी कीमतें भी डॉलर की मांग बढ़ाती हैं।
- मजबूत अमेरिकी डॉलर: अमेरिकी फेडरल रिज़र्व की कड़ी मौद्रिक नीति और सुरक्षित संपत्तियों के प्रति वैश्विक निवेशकों की प्राथमिकता ने डॉलर को मजबूत बनाए रखा है। मामूली वैश्विक झटके भी निवेश को डॉलर-आधारित परिसंपत्तियों की ओर धकेलते हैं, जिससे उभरते बाज़ारों की मुद्राएँ कमजोर होती हैं।
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घरेलू अवमूल्यन कारक:
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- उच्च आयात निर्भरता: ऊर्जा, इलेक्ट्रॉनिक्स, खाद्य तेल, उर्वरक और औद्योगिक कच्चा माल भारत की आयात टोकरी का बड़ा हिस्सा हैं। जब वैश्विक कीमतें बढ़ती हैं या घरेलू मांग बढ़ती है, तो डॉलर का बहिर्वाह बढ़ जाता है।
- चालू खाते का दबाव: महंगे आयात और ठहरे हुए निर्यात के कारण बढ़ा चालू खाता घाटा अर्थव्यवस्था में डॉलर की उपलब्धता घटा देता है।
- पूंजी निकासी: 2025 में विदेशी पोर्टफोलियो निवेशक भारतीय बाज़ार से धन निकाल रहे हैं और उच्च रिटर्न देने वाले विकसित बाज़ारों में निवेश कर रहे हैं। हर निकासी रुपये को डॉलर में बदलने की मांग बढ़ाती है, जिससे रुपया और कमजोर होता है।
- सीमित आरबीआई हस्तक्षेप: भारत के केंद्रीय बैंक ने केवल अत्यधिक अस्थिरता होने पर रूपए पर हस्तक्षेप किया है। यह रणनीति विदेशी मुद्रा भंडार बचाती है, लेकिन बाज़ार को यह संकेत भी देती है कि मुद्रा और गिर सकती है।
- उच्च आयात निर्भरता: ऊर्जा, इलेक्ट्रॉनिक्स, खाद्य तेल, उर्वरक और औद्योगिक कच्चा माल भारत की आयात टोकरी का बड़ा हिस्सा हैं। जब वैश्विक कीमतें बढ़ती हैं या घरेलू मांग बढ़ती है, तो डॉलर का बहिर्वाह बढ़ जाता है।
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रुपये की कमजोरी भारत-विशिष्ट क्यों दिखाई देती है?
हाल के महीनों में अमेरिकी डॉलर सूचकांक में भारी वृद्धि नहीं हुई है। यह दर्शाता है कि घरेलू कारक, विशेष रूप से भारत में उच्च डॉलर मांग, अधिक प्रभावी हैं। कॉरपोरेट अधिक हेजिंग कर रहे हैं, आयातक अग्रिम भुगतान कर रहे हैं और विदेशी ऋण चुकौती बढ़ी है। ये सभी कारक मिलकर रुपये पर लगातार दबाव डाल रहे हैं। विदेशी निवेशकों द्वारा उभरते बाज़ारों में निवेश कम करने से भी स्थिति बिगड़ी है।
वस्तु कीमतों पर प्रभाव:
कमजोर रुपये का सीधा असर आयातित महंगाई पर देखा जाता है। भले ही वैश्विक कीमतें अपरिवर्तित रहें, भारतीय उपभोक्ताओं को रुपये के संदर्भ में अधिक भुगतान करना पड़ता है। प्रमुख प्रभावित क्षेत्रों में शामिल हैं:
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- कच्चा तेल और ईंधन: उच्च लैंडिंग लागत से ईंधन की कीमतें बढ़ती हैं, जिससे परिवहन और रसद लागत भी बढ़ जाती है। इसका भोजन, माल ढुलाई, विनिर्माण और खुदरा कीमतों पर व्यापक प्रभाव पड़ता है।
- खाद्य तेल: भारत ताड़ और सोयाबीन तेल के दुनिया के सबसे बड़े आयातकों में से एक है। कमजोर मुद्रा से सीधे रसोई का खर्च और खाद्य महंगाई बढ़ती है।
- सोना और चांदी: त्योहारी और शादी-ब्याह के मौसम में आभूषण खरीदना महंगा हो जाता है। भारत का सोने का आयात भी व्यापार घाटे को बढ़ाता है, जिससे मुद्रा पर दबाव और बढ़ता है।
- औद्योगिक धातुएँ: तांबा, एल्यूमीनियम और अन्य धातुएँ अधिक महंगी हो जाती हैं, जिससे बुनियादी ढाँचे, निर्माण और विनिर्माण उद्योगों के लिए इनपुट लागत बढ़ जाती है।
- कच्चा तेल और ईंधन: उच्च लैंडिंग लागत से ईंधन की कीमतें बढ़ती हैं, जिससे परिवहन और रसद लागत भी बढ़ जाती है। इसका भोजन, माल ढुलाई, विनिर्माण और खुदरा कीमतों पर व्यापक प्रभाव पड़ता है।
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परिवारों और छात्रों पर प्रभाव:
गिरता रुपया—
• विदेशी शिक्षा को अत्यधिक महंगा बना देता है।
• विदेश यात्रा की लागत बढ़ाता है।
• आयातित वस्तुओं और गैजेटों को महंगा करता है।
• मुद्रास्फीति को बढ़ावा देता है—5% अवमूल्यन से लगभग 35 आधार अंक बढ़ सकते हैं।
यदि रुपया और कमजोर होता है?
आयातित मुद्रास्फीति और तीव्र होगी
• चालू खाता घाटा और बढ़ेगा
• सरकारी व कॉरपोरेट उधारी लागत बढ़ेगी
• निवेशक भावना कमजोर होगी
फिर भी मजबूत घरेलू खपत, स्थिर जीडीपी वृद्धि और स्वस्थ विदेशी मुद्रा भंडार कुछ राहत प्रदान करते हैं।
उपलब्ध नीतिगत विकल्प
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- मौद्रिक नीति—ब्याज दर समायोजन, तरलता प्रबंधन
- RBI का FX प्रबंधन—डॉलर बेचना, नियंत्रित अवमूल्यन, फ़ॉरवर्ड ऑपरेशन
- सरकारी उपाय—FDI आकर्षण, निर्यात-उन्मुख विनिर्माण, आयात निर्भरता में कमी (ऊर्जा संक्रमण, सेमीकंडक्टर, इलेक्ट्रॉनिक्स उत्पादन)
- मौद्रिक नीति—ब्याज दर समायोजन, तरलता प्रबंधन
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निष्कर्ष:
रुपये का 90 रुपये प्रति डॉलर को पार करना भारत की अर्थव्यवस्था के लिए एक महत्वपूर्ण मोड़ है। गिरावट की गति और समय यह संकेत देता है कि भारत गहरे संरचनात्मक दबावों का सामना कर रहा है। वैश्विक तनाव, पूंजी प्रवाह अस्थिरता और व्यापार घाटा इस गिरावट के प्रमुख कारण रहे हैं, जबकि उच्च आयात निर्भरता ने प्रभाव को और बढ़ाया है।
| UPSC/PCS मुख्य प्रश्न: हाल के वर्षों में भारतीय रुपये के लगातार अवमूल्यन के प्रमुख वैश्विक और घरेलू कारणों की परीक्षा कीजिए। ये कारक भारत की व्यापक आर्थिक स्थिरता को कैसे प्रभावित करते हैं? |

