(इनफोकस - InFocus) विशेष विवाह अधिनियम, 1954 (Special Marriage Act, 1954)
सुर्ख़ियों में क्यों?
हाल ही में, विशेष विवाह अधिनियम को लेकर दिल्ली हाईकोर्ट में एक याचिका दाखिल की गई है। याचिकाकर्ता ने स्पेशल मैरिज एक्ट 1954 में बदलाव की मांग की है। याचिका में इस एक्ट के सेक्शन 6 और 7 को चुनौती देते हुए कहा गया है कि यह एक्ट संविधान के अनुच्छेद-14 यानी समानता के अधिकार और अनुच्छेद- 21 यानी जीवन और वैयक्तिक स्वतंत्रता के अधिकार का हनन करता है।
- साथ ही, साल 1954 के मुकाबले अब संचार की नई तकनीक जैसे फ़ोन, मोबाइल और मेल की सुविधा उपलब्ध है जहाँ आप कुछ सेकेंड में संदेश दे सकते हैं तो 30 दिन का नोटिस पीरियड काफ़ी लंबा हो जाता है।
- इस मामले में हाई कोर्ट ने केंद्र सरकार और दिल्ली सरकार को नोटिस दिया है और 27 नवंबर तक जवाब माँगा है।
स्पेशल मैरिज एक्ट क्या है?
भारत में ज़्यादातर शादियां हर धर्म के अपने क़ानून और 'पर्सनल लॉ' के तहत होती हैं। इसके लिए पुरुष और महिला दोनों को एक ही धर्म का होना ज़रूरी होता है। लेकिन अगर दो अलग-अलग धर्म के लोगों को आपस में शादी करनी हो तो उसके लिए 'स्पेशल मैरिज ऐक्ट' बनाया गया है। स्पेशल मैरिज एक्ट के तहत अलग-अलग धर्म के पुरुष और महिला बिना धर्म बदले क़ानूनन शादी कर सकते हैं।
स्पेशल मैरिज एक्ट के तहत विवाह की क्या प्रक्रिया है?
साधारण कोर्ट मैरिज में पुरुष और महिला अपने फोटो, 'एड्रेस प्रूफ़', 'आईडी प्रूफ़' और गवाह को साथ ले जाएं तो 'मैरिज सर्टिफ़िकेट' उसी दिन मिल जाता है जबकि ‘स्पैशल मैरिज ऐक्ट' में थोड़ा व़क्त लगता है।
- दरअसल स्पेशल मैरिज एक्ट के एक प्रावधान के तहत पब्लिक नोटिस अनिवार्य है। इसमें आप शादी के लिए एसडीएम को अर्ज़ी देते हैं।
- इसमें आपको अपनी पूरी जानकारी, नाम, धर्म, उम्र आदि देनी होती है।
- फिर फार्म-2 है जिसमें आप जो भी जानकारी देते हैं, उसे एसडीएम के दफ़्तर के बाहर 30 दिन तक लगाया जाता है ताकि ये जाना जा सके कि किसी को कोई आपत्ति तो नहीं है। अगर किसी को आपत्ति है, तो वो उसे उसे रजिस्टर करवाएं।
- इस नोटिस का मक़सद ये है कि शादी करने वाला पुरुष या महिला कोई झूठ या फ़रेब के बल पर शादी ना कर पाए। अगर ऐसा कुछ हो तो एक महीने में सच सामने आ जाए।
स्पेशल मैरिज एक्ट में क्या समस्या है?
जब एक ही धर्म के लोग शादी करते हैं तो उनकी शादी एक ही दिन में हो जाती है, लेकिन अगर अलग-अलग धर्म के लोग शादी करते हैं तो उसमें तीस दिन का समय लगता है।
- ऐसे में, इस प्रावधान को शादी के इच्छुक जोड़ों की निजता के अधिकार का उल्लंघन और भेदभावपूर्ण माना जा रहा है।
- साथ ही, जो जोड़ा शादी कर रहा होता है वो भावनात्मक, कई बार आर्थिक और परिवार की तरफ़ से संघर्ष कर रहा होता है।
- ऐसे में, वे परिवार ही नहीं, अराजक तत्वों के निशाने पर भी आ जाते हैं। जहाँ उन पर अपने ही धर्म में शादी का दबाव डाला जाता है।
- इसके अलावा, ये भी देखा गया है कि लड़की चाहे किसी भी समुदाय की हो परेशानी सबसे ज़्यादा उसे ही उठानी पड़ती है।
धार्मिक स्वतन्त्रता को लेकर संविधान क्या कहता है?
भारतीय संविधान में लोगों को कुछ मौलिक अधिकार दिया गया है। इसका वर्णन संविधान के भाग-3 में अनुच्छेद 12 से अनुच्छेद 35 में मिलता है। उन्हीं अधिकारों में धार्मिक स्वतंत्रता का अधिकार भी शामिल है। जिसका उल्लेख संविधान के अनुच्छेद 25 से लेकर 28 तक में किया गया है। भारत में यह अधिकार हर एक नागरिक को समान रूप से हासिल है।
बहरहाल यह केवल कानूनी लड़ाई का मामला नहीं है बल्कि एक सामाजिक समस्या भी है, क्योंकि क़ानून में बदलाव हो भी जाये लेकिन जब तक समाज के नजरिए में बदलाव नहीं होगा, ये दिक़्क़त बनी ही रहेगी।