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Blog / 30 Aug 2019

(आर्थिक मुद्दे) कंपनी संशोधन अधिनियम, 2019 (Companies Amendment Act, 2019)

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(आर्थिक मुद्दे) कंपनी संशोधन अधिनियम, 2019 (Companies Amendment Act, 2019)


एंकर (Anchor): आलोक पुराणिक (आर्थिक मामलो के जानकार)

अतिथि (Guest): यतीश राजावत (वरिष्ठ आर्थिक पत्रकार), मनीष कुमार गुप्ता (चार्टर्ड एकाऊंटेंट)

चर्चा में क्यों?

बीते 31 जुलाई को राष्ट्रपति ने कंपनी (संशोधन) विधेयक, 2019 को अपनी मंजूरी दे दी। ये कानून कंपनी संशोधन दूसरा अध्यादेश 2019 का स्थान लेगा। इसका उद्देश्य कॉर्पोरेट सामाजिक उत्तरदायित्व यानी CSR के मानकों को कठोर बनाना और इस कानून के उल्लंघन करने वालों के खिलाफ़ सख्त नियम बनाना है।

क्या है कंपनी अधिनियम?

कंपनी अधिनियम, 2013 भारत में 30 अगस्त 2013 को लागू हुआ था। इसका उद्देश्य भारत के कॉरपोरेट गवर्नेंस और निगरानी प्रक्रियाओं को वैश्विक मानकों के अनुसार बनाना था। यह कानून भारत में कंपनियों के खुलने से लेकर उनके बंद होने तक सभी स्थितियों में गाइड के रूप में काम करता है। कंपनी कानून के तहत राष्ट्रीय कंपनी कानून न्यायाधिकरण यानी नेशनल कंपनी लॉ ट्रिब्यूनल की स्थापना की गई है। कंपनी अधिनियम, 2013 ने ही ‘एक व्यक्ति कंपनी’ की अवधारणा की शुरुआत की।

क्या मकसद था इस संशोधन का?

मौजूदा संशोधन का प्रमुख उद्देश्य CSR के नियमों को और अधिक सख्त बनाना है। साथ ही इस संशोधन के जरिए राष्ट्रीय कंपनी कानून न्यायाधिकरण यानी NCLT के काम के भार को कम करना भी इसके उद्देश्यों में शामिल है।

संशोधन के प्रमुख बिंदु

यदि कोई कंपनी अपने द्वारा निर्धारित कॉर्पोरेट सामाजिक दायित्व यानी CSR फंड की राशि एक तय समय सीमा में खर्च नहीं कर पाती है तो ये अमाउंट अपने आप ही एक विशेष खाते में जमा हो जाएगी।

  • हिंदुस्तान पहला ऐसा देश है जिसने देश की सभी कंपनियों के लिये CSR की धनराशि को खर्च करना कानूनी रूप से अनिवार्य बना दिया है।
  • सभी कंपनियों के लिए ये जरूरी होगा कि वे एक साल में सीएसआर को खर्च करने से जुड़े प्रस्ताव को तैयार करें और अगले 3 सालों में इस प्रस्तावित धनराशि को खर्च करें।
  • इस नए कानून में कंपनी रजिस्ट्रार को ये अधिकार दिया गया है कि वे कंपनियों के रजिस्टर से ऐसी कंपनियों का नाम हटा सकते हैं, जो कंपनी कानून के मुताबिक़ कोई भी व्यवसाय या काम नहीं कर रही हैं।
  • कुछ मामलों को छोड़कर कंपनियों को यह अधिकार दिया गया है कि वे एकाउंटिंग के सुविधानुसार अपना वित्तीय वर्ष तय कर सकती हैं।
  • इसके अलावा कंपनी ट्रिब्यूनल यानी NCLT के भार को कम करने के लिहाज से ये तय किया गया है कि 25 लाख तक के विवादों का निपटारा क्षेत्रीय स्तर का अधिकारी करेगा।
  • इस नए कानून में सार्वजनिक कंपनी को निजी कंपनी में बदलने से जुड़े कुछ आवश्यक शक्तियों को NCLT के बजाय केंद्र सरकार को दे दिया गया है। साथ ही राष्ट्रीय वित्तीय रिपोर्टिंग प्राधिकरण यानी NFRA की कुछ शक्तियों को पहले से अधिक स्पष्ट कर दिया गया है।
  • मौजूदा संशोधन से पहले कुल 81 प्रकार के कानून उल्लंघनों को आपराधिक श्रेणी में माना जाता था, लेकिन संशोधन के बाद इनमें से 16 को सिविल मामलों के तहत शामिल कर दिया गया है।

नोट : 23 अगस्त 2019 को आयोजित एक प्रेस कॉन्फ्रेंस में केंद्रीय वित्त मंत्री निर्मला सीतारमण ने घोषणा किया कि अब कॉरपोरेट सामाजिक दायित्व के मामलों में कानून के उल्लंघन में कंपनियों पर आपराधिक मामले नहीं दर्ज़ किए जायेंगे।

क्या है राष्ट्रीय कंपनी कानून न्यायाधिकरण?

NCLT का गठन कंपनी अधिनियम, 2013 की धारा 18 के तहत किया गया था। NCLT एक अर्द्ध-न्यायिक निकाय है, जो भारतीय कंपनियों से संबंधित मुद्दों पर निर्णय देने का काम करता है। यह ट्रिब्यूनल कंपनियों के दिवालिया होने से जुड़े कानून पर जस्टिस इराडी कमेटी की सिफारिश के आधार पर 1 जून, 2016 से काम कर रहा है। मौजूदा वक्त में, NCLT में कुल ग्यारह पीठ हैं, जिसमें नई दिल्ली में दो और अहमदाबाद, इलाहाबाद, बंगलूरू, चंडीगढ़, चेन्नई, गुवाहाटी, हैदराबाद, कोलकाता और मुंबई में एक-एक पीठ है।

क्या ख़ामियाँ रह गई इस कानून में?

आलोचकों का मानना है कि सीएसआर के तहत खर्च को आवश्यक बना देने से व्यापारिक नैतिकता यानी कारपोरेट एथिक्स की गारंटी नहीं मिल जाती। कई ऐसी कंपनियां हैं जो अपने ग्राहकों, निवेशकों और सरकार के साथ धोखाधड़ी में लिप्त है, इसके बावजूद उन्हें उनके CSR खर्च के लिए पुरस्कार और वाहवाही मिलती रहती है। उदाहरण के तौर पर सत्यम कंप्यूटर्स ने बड़े पैमाने पर धोखाधड़ी की थी, लेकिन इसी कंपनी के बैराजू फ़ाउंडेशन को कई पुरस्कारों से नवाजा गया था। साथ ही, सीएसआर खर्च के नाम पर कंपनियां धोखाधड़ी में लिप्त ट्रस्ट, फ़ाउंडेशन या फिर गैर सरकारी संगठनों की फंडिंग करके भ्रष्टाचार को बढ़ावा दे सकती हैं।

आगे क्या किया जाना चाहिए?

तमाम विशेषज्ञों का कहना है कि सीएसआर खर्च के मानकों को पूरा न कर पाना सिविल अपराध की श्रेणी में रखा जाए न कि दाण्डिक अपराध की श्रेणी में। साथ ही सीएसआर के तहत खर्च की जाने वाली धनराशि को कर कटौती के रूप में लिया जाना चाहिए। इससे सीएसआर खर्च को लेकर कंपनियों के दृष्टिकोण में बदलाव आने की उम्मीद है।

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