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Blog / 13 Jan 2020

(डेली न्यूज़ स्कैन - DNS हिंदी) क्यूरेटिव पिटिशन (Curative Petition)

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(डेली न्यूज़ स्कैन - DNS हिंदी)  क्यूरेटिव पिटिशन (Curative Petition)


बीते 7 जनवरी को दिल्ली की पटियाला हाउस कोर्ट ने निर्भया कांड के चारों दोषियों की डेथ वारंट पर मुहर लगा दी। कोर्ट की मंजूरी मिलने के बाद अब 22 जनवरी को इन चारों दोषियों को फाँसी के फंदे पर लटका दिया जाएगा। फाँसी की तारीख मुकर्रर होने के बाद जहां जेल प्रशासन ने इसकी तैयारी शुरू कर दी है तो वहीं इन दोषियों में से एक ने अपने बचने का एक अंतिम दाँव खेला है। दोषी विनय ने सुप्रीम कोर्ट में एक सुधारात्मक याचिका यानी क्यूरेटिव पिटिशन दायर किया है। और अदालत से गुहार लगाई है कि उसकी सजा में थोड़ी नरमी बरती जाए।

डीएनएस में आज हम आपको क्यूरेटिव पिटिशन के बारे में बताएँगे और साथ ही, इसके दूसरे पहलुओं से भी आपको रूबरू कराएँगे।

दरअसल जब किसी भी जघन्य अपराध के लिए किसी ट्रायल कोर्ट द्वारा सजा सुनाई जाती है तो इसकी पुष्टि हाईकोर्ट द्वारा होनी ज़रूरी होती है। इसके बाद सज़ायाफ्ता के पास सुप्रीम कोर्ट जाने का क़ानूनी अधिकार होता है। अगर वहां से भी बात नहीं बनी तो अनुच्छेद 137 के तहत सप्रीम कोर्ट में एक रिव्यू पिटिशन यानी पुनर्विचार याचिका दायर करने का विकल्प होता है। अगर रिव्यू पिटिशन भी ख़ारिज़ हो जाता है तो दोषियों के पास सुप्रीम कोर्ट में ही उपचारात्मक याचिका यानी क्यूरेटिव पिटिशन लगाना और फिर राष्ट्रपति के पास दया याचिका दायर करने का आख़िरी विकल्प होता है। इन सभी जगह से निराशा हाथ लगने के बाद कोर्ट द्वारा सज़ायाफ्ता के लिए डेथ वारंट जारी कर दिया जाता है उसके बाद अपराधी को फाँसी के फंदे पर चढ़ा दिया जाता है।

क्यूरेटिव पिटिशन शब्द अंग्रेजी के CURE शब्द से बना है जिसका मतलब उपचार यानी इलाज करना होता है। ये पुनर्विचार याचिका से थोड़ा अलग होता है। रिव्यू पिटिशन में पक्षकार अदालत से ये आग्रह करते हैं कि वो अपने फैसले पर एक बार फिर से विचार करे, जबकि क्यूरेटिव पिटिशन में पूरे केस में ऐसे बिंदुओं को उठाया जाता है जिन पर पक्षकारों को लगता है कि इन पर ध्यान दिए जाने की ज़रुरत है। यानी याचिकाकर्ता को ये बताना ज़रूरी होता है कि वो किस आधार पर सुप्रीम कोर्ट के फैसले को चुनौती दे रहा है।

क्यूरेटिव पिटीशन की अवधारणा सुप्रीम कोर्ट द्वारा साल 2002 के एक मामले रूपा अशोक हुर्रा बनाम अशोक हुर्रा एवं अन्य में लाई गई थी। ये मामला पति-पत्नी के बीच तलाक से जुड़ा हुआ था, जिसमें महिला ने शुरुआत में तो तलाक के लिए अपनी सहमति दे दी थी लेकिन बाद में वो मुकर गई। और मामला सर्वोच्च न्यायालय पहुंच गया।

इस मामले में फैसला सुनाते हुए सर्वोच्च न्यायालय ने कहा कि अगर पक्षकारों के मन में कोई तकनीकी दिक्कत या आशंका है उसे दूर करने का एक ज़रिया होना चाहिए। ताकि उन्हें उचित न्याय मिल सके। कोर्ट ने आगे कहा कि अगर पक्षकारों को लगता है कि मामले में न्याय के नैसर्गिक सिद्धांतों का उल्लंघन हुआ है तो वे क्यूरेटिव पिटिशन दायर कर सकते हैं। आपको बता दें कि न्याय के नैसर्गिक सिद्धांतों के मुताबिक कोई भी व्यक्ति अपने ही मामले में जज नहीं हो सकता और साथ ही मामले से जुड़े सभी पक्षकारों को अपनी बात कहने का पूरा मौका मिलना चाहिए। इस तरह सर्वोच्च न्यायालय ने क्यूरेटिव पिटिशन का कॉन्सेप्ट दिया।

क्यूरेटिव पिटिशन को दायर करने से पहले इसे किसी वरिष्ठ अधिवक्ता द्वारा सर्टिफाइड होना ज़रूरी होता है। इसके बाद इस याचिका को सर्वोच्च न्यायालय के तीन सीनियर मोस्ट जजों और जिन जजों ने फैसला सुनाया था उनके पास भेजा जाता है। अगर इस बेंच के ज़्यादातर जज इस बात से सहमत होते हैं कि मामले की दोबारा सुनवाई की जानी चाहिए तो याचिका को स्वीकार कर लिया जाता है। इसके बाद इस पिटीशन को दोबारा उन्हीं जजों के पास भेज दिया जाता है, जिन्होंने इस मामले की सुनवाई की होती है।

अदालत ने यह भी कहा था कि अगर कोई व्यक्ति गलत नियत से क्यूरेटिव पिटिशन का दुरुपयोग करता है तो उसे इसका ख़ामियाज़ा भुगतना पड़ सकता है।

निर्भया मामले में अगर सुप्रीम कोर्ट इस क्यूरेटिव पिटिशन को स्वीकार कर लेता है और अगले 12 दिनों के भीतर इस पर कोई फैसला नहीं सुनाता तो इन दोषियों के फांसी की तारीख टल सकती है। इसके अलावा इन दोषियों में से एक ने राष्ट्रपति रामनाथ कोविंद के पास भी दया याचिका दायर की हुई है। अगर राष्ट्रपति इन दोषियों की दया याचिका पर अगले 12 दिनों में कोई निर्णय नहीं लेते तो भी फाँसी की तारीख टल सकती है।

बहरहाल इस मामले में क्या होगा ये तो आने वाला वक्त ही बताएगा लेकिन निर्भया की आत्मा को शांति तभी मिलेगी जब उसके गुनहगारों को सजा मिलेगी।

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