भारत में "एक राष्ट्र, एक चुनाव" (ONOE) पर लंबे समय से चर्चा हो रही है। यह एक परिवर्तनकारी चुनावी सुधार के रूप में देखा जा रहा है, जिसका उद्देश्य शासन को बेहतर बनाना और खर्च को कम करना है। इस प्रस्ताव का लक्ष्य लोकसभा और सभी राज्य विधानसभाओं के चुनावों को एक साथ कराना है, जिससे बार-बार होने वाले चुनावों से होने वाले व्यवधानों को कम किया जा सके।
पृष्ठभूमि और तर्क
सामूहिक चुनाव भारत की मूल परंपरा रही है। स्वतंत्रता के बाद पहले दो दशकों तक लोकसभा और राज्य विधानसभाओं के चुनाव एक साथ होते थे। यह व्यवस्था 1967 तक चली। राजनीतिक अस्थिरता और कुछ राज्य सरकारों के समय से पहले भंग होने के कारण चुनाव चक्र असंतुलित हो गया।
तब से बार-बार चुनाव भारतीय लोकतंत्र की पहचान बन गए हैं, जिससे कई समस्याएं उत्पन्न हुई हैं:
• बार-बार आचार संहिता लागू होने से विकास कार्य रुक जाते हैं और फैसलों में देरी होती है।
• चुनावी खर्च बहुत अधिक बढ़ गया है, जिसमें प्रशासनिक और सुरक्षा लागत शामिल है।
• नीति निर्माता लंबे समय की बजाय अल्पकालिक लोकलुभावन उपायों पर ध्यान देते हैं।
• मतदाताओं को बार-बार मतदान करना पड़ता है, जिससे थकान होती है।
ONOE का उद्देश्य एकल चुनाव चक्र के माध्यम से इन अकार्यक्षमताओं को कम करना है।
पूर्व मुख्य न्यायाधीशों के प्रमुख अवलोकन
संसद की संयुक्त समिति के समक्ष अपने विचार रखते हुए पूर्व मुख्य न्यायाधीशों ने गहराई से विश्लेषण प्रस्तुत किया:
1. मौलिक संरचना सिद्धांत: दोनों न्यायाधीशों ने स्पष्ट किया कि यह विधेयक सैद्धांतिक रूप से संविधान की मूल संरचना का उल्लंघन नहीं करता। उन्होंने कहा कि असमय चुनाव स्वतंत्र और निष्पक्ष चुनाव के लिए अनिवार्य नहीं हैं, बल्कि सामूहिक चुनाव भारत की मूल प्रणाली रही है।
2. भारत निर्वाचन आयोग की शक्तियाँ: प्रस्तावित विधेयक में निर्वाचन आयोग को दी जाने वाली शक्तियों को लेकर चिंता जताई गई।
• विशेष रूप से यह विधेयक आपातकाल के दौरान चुनाव कैसे होंगे, इस पर मौन है।
• यदि किसी विधानसभा का कार्यकाल समाप्ति के निकट हो, तो क्या चुनाव होंगे या उसका कार्यकाल बढ़ेगा — यह भी स्पष्ट नहीं है।
इन स्थितियों के समाधान के लिए विधेयक को स्पष्ट रूप से तैयार करने की सलाह दी गई ताकि कानूनी विवाद न हों।
3. अनुच्छेद 82A और विधायिकाओं का कार्यकाल: विधेयक में अनुच्छेद 82A(1) जोड़ने का प्रस्ताव है, जिसमें एक नियत तिथि पर सामूहिक चुनाव कराने की बात है। एक न्यायाधीश ने कहा कि यह केवल एक प्रारंभिक तिथि तय करता है और चुनाव प्रक्रिया या कार्यकाल को नहीं बदलता, इसलिए यह संवैधानिक रूप से वैध है। दूसरे न्यायाधीश ने कहा कि संविधान में केवल अधिकतम पाँच वर्ष का कार्यकाल निर्दिष्ट है, न्यूनतम नहीं, और समय से पहले भंग करने की अनुमति है यदि मतदाताओं को जानकारी दी जाए।
4. अविश्वास प्रस्ताव: स्थिरता सुनिश्चित करने के लिए अविश्वास प्रस्ताव से संबंधित नियमों में संशोधन का सुझाव दिया गया। ये संशोधन सदन के नियमों के तहत किए जा सकते हैं, जिससे संवैधानिक संशोधन की आवश्यकता नहीं होगी।
विशेषज्ञ समितियों की सिफारिशें
पिछले वर्षों में विभिन्न आयोगों और विशेषज्ञ समूहों ने सामूहिक चुनावों की सिफारिश की है:
• भारत निर्वाचन आयोग (1983): लोकसभा और विधानसभा चुनाव साथ कराने का सुझाव दिया।
• विधि आयोग (1999): चुनाव साथ कराए जाएँ, लेकिन मतगणना विधानसभा के कार्यकाल समाप्त होने पर हो।
• कार्मिक, लोक शिकायत और विधि एवं न्याय पर स्थायी समिति: दो चरणों में चुनाव कराने का सुझाव दिया।
• नीति आयोग परिचर्चा पत्र (2017): चरणबद्ध रूप से सामंजस्य बैठाने का सुझाव।
• विधि आयोग प्रारूप रिपोर्ट (2018): चुनावों को पहले या बाद में कराकर तालमेल बिठाने के विकल्प सुझाए।
हाल में एक पूर्व राष्ट्रपति की अध्यक्षता वाली उच्च स्तरीय समिति ने दो चरणों में कार्यान्वयन का प्रस्ताव रखा:
1. पहला चरण: लोकसभा और राज्य विधानसभा चुनावों का सामंजस्य।
2. दूसरा चरण: नगरपालिका और पंचायत चुनावों को 100 दिनों के भीतर तालमेल में लाना, जिसके लिए भारत के आधे राज्यों की स्वीकृति आवश्यक होगी।
ONOE के संभावित लाभ
प्रस्ताव के समर्थक कई लाभ गिनाते हैं:
• नीति गतिरोध में कमी: आचार संहिता केवल पाँच साल में एक बार लागू होगी, जिससे सरकारों को नीतियाँ निर्बाध रूप से लागू करने का अवसर मिलेगा।
• चुनावी खर्च में कमी: साझा लॉजिस्टिक्स, सुरक्षा और प्रशासनिक योजना से संसाधनों की बचत होगी।
• लोकलुभावन राजनीति में कमी: बार-बार चुनावों के अभाव में सरकारें दीर्घकालिक विकास पर ध्यान देंगी।
• प्रशासनिक दक्षता में सुधार: चुनाव संबंधी अपराध और विवाद घट सकते हैं, जिससे न्यायपालिका और कानून व्यवस्था तंत्र पर दबाव कम होगा।
• शासन के राजनीतिकरण में कमी: संसद और विधानसभा की कार्यवाही चुनावी रणनीतियों से कम बाधित होगी।
अंतरराष्ट्रीय अनुभव
अन्य लोकतंत्रों में सफलतापूर्वक सामूहिक चुनाव होते हैं। उदाहरण:
• स्वीडन: हर चार साल में राष्ट्रीय संसद, प्रांतीय परिषद और नगरपालिका चुनाव एक ही दिन होते हैं।
• दक्षिण अफ्रीका: हर पाँच साल में राष्ट्रीय और प्रांतीय चुनाव साथ होते हैं।
इन उदाहरणों से पता चलता है कि स्पष्ट कानूनी ढांचे और मजबूत संस्थानों के साथ सामूहिक चुनाव संभव हैं।
चुनौतियाँ और आलोचनाएँ
संवैधानिक और कानूनी मुद्दे
• सामंजस्य के लिए अनुच्छेद 83, 172, 327 और जनप्रतिनिधित्व अधिनियम, 1951 में संशोधन आवश्यक है।
• क्या राज्य विधानसभाओं के कार्यकाल को छोटा या लंबा किया जा सकता है — यह संघीय ढांचे के सिद्धांत पर प्रश्न उठाता है।
• अविश्वास प्रस्ताव के माध्यम से विधानसभा को भंग करने की व्यवस्था तय कार्यकाल की अवधारणा से टकराती है।
व्यवहारिक और प्रशासनिक चुनौतियाँ
• भारत में 96 करोड़ से अधिक मतदाता और 10 लाख से अधिक मतदान केंद्र हैं।
• सभी स्तरों पर एक साथ चुनाव कराना अत्यधिक संसाधनों और जटिल समन्वय की माँग करता है।
संघवाद और राजनीतिक प्रतिनिधित्व
• स्थानीय मुद्दे राष्ट्रीय विषयों की छाया में दब सकते हैं, जिससे क्षेत्रीय दलों की भूमिका कमजोर हो सकती है।
• मतदाता राष्ट्रीय दलों को प्राथमिकता दे सकते हैं, जिससे विविधता घट सकती है।
जवाबदेही में कमी
• बार-बार चुनाव होने से नेता जनसमस्याओं से जुड़े रहते हैं।
• पाँच साल में केवल एक चुनाव होने से राजनीतिक जवाबदेही और जनभागीदारी कम हो सकती है।
आगे की राह-
इन मुद्दों से निपटने के लिए चरणबद्ध और परामर्शात्मक दृष्टिकोण जरूरी है:
• सर्वसम्मति बनाना: राजनीतिक दलों, संवैधानिक विशेषज्ञों और निर्वाचन आयोग को मिलकर रोडमैप तय करना होगा।
• चरणबद्ध क्रियान्वयन: धीरे-धीरे तालमेल बिठाने से व्यवस्था में बदलाव लाने में सहूलियत होगी।
• कानूनी सुरक्षा: संघीय सिद्धांतों की रक्षा और आपातकाल या समयपूर्व भंग की स्थिति में प्रक्रिया स्पष्ट रूप से तय करनी होगी।
• व्यापक चुनाव सुधार: सामूहिक चुनावों के साथ चुनावी वित्त पोषण, खर्च पर निगरानी और निष्पक्ष प्रतिनिधित्व जैसे सुधार भी जरूरी होंगे।
निष्कर्ष
"एक राष्ट्र, एक चुनाव" भारत की चुनाव प्रक्रिया को सुव्यवस्थित करने और शासन को मजबूत बनाने की एक साहसी कल्पना प्रस्तुत करता है। लेकिन इसके साथ जटिल संवैधानिक, राजनीतिक और प्रशासनिक प्रश्न जुड़े हैं जिन्हें नज़रअंदाज़ नहीं किया जा सकता। सुनियोजित रणनीति, स्पष्ट कानून और व्यापक सहमति ही सुनिश्चित कर सकते हैं कि यह सुधार भारत के लोकतांत्रिक ढांचे को मज़बूत करे और संघीय चरित्र को बनाए रखे।
मुख्य प्रश्न: "एक राष्ट्र, एक चुनाव" की अवधारणा को अक्सर भारत में बार-बार होने वाले चुनावों और नीति गतिरोध की समस्या का समाधान बताया जाता है। इसके कार्यान्वयन से जुड़े संवैधानिक, व्यावहारिक (संचालन संबंधी) और संघीय चुनौतियों की समालोचनात्मक समीक्षा कीजिए। |