संदर्भ:
हाल ही में केंद्र सरकार ने वक्फ अधिनियम में संशोधन का पक्ष रखते हुए कहा कि वक्फ की स्थापना इस्लाम में कोई आवश्यक धार्मिक प्रथा (Essential Religious Practice) नहीं है, बल्कि यह एक परोपकारी (धार्मिक व चैरिटेबल) कार्य मात्र है। भारत के संविधान के अनुच्छेद 25 और 26 के तहत केवल उन्हीं धार्मिक प्रथाओं को संरक्षण प्राप्त है जो किसी धर्म का अभिन्न और अनिवार्य हिस्सा मानी जाती हैं।
पृष्ठभूमि:
वक्फ (संशोधन) अधिनियम, 2025 को लेकर कई पक्षों ने सुप्रीम कोर्ट में कानूनी चुनौती दी है। याचिकाकर्ताओं का तर्क है कि यह अधिनियम मुस्लिम समुदाय की धार्मिक स्वतंत्रता और वक्फ संपत्तियों के प्रबंधन के अधिकार का उल्लंघन करता है।
· याचिकाकर्ता का कहना है कि यह कानून संविधान के अनुच्छेद 25 के तहत प्रदत्त धार्मिक स्वतंत्रता में हस्तक्षेप करता है।
· साथ ही उनका कहना है कि यह अनुच्छेद 26 के अंतर्गत मुस्लिम समुदाय को अपने धार्मिक संस्थानों और संपत्तियों के स्वतंत्र प्रबंधन के अधिकार को भी बाधित करता है।
· अधिनियम में “वक्फ बाय यूज़र” (लंबे समय से धार्मिक उपयोग के आधार पर संपत्ति को वक्फ घोषित करना) की व्यवस्था को हटाया जाना, समुदाय की धार्मिक परंपराओं को एक गंभीर आघात के रूप में देखा जा रहा है।
आवश्यक धार्मिक प्रथा सिद्धांत:
ये सिद्धांत यह तय करने के लिए एक संवैधानिक कसौटी के रूप में कार्य करता है कि किसी धर्म की कौन-सी प्रथाएं संविधान के अनुच्छेद 25 (धार्मिक स्वतंत्रता) और अनुच्छेद 26 (धार्मिक संस्थानों के प्रबंधन की स्वतंत्रता) के अंतर्गत संरक्षित की जाएंगी।
भारत की न्यायपालिका ने समय-समय पर इस सिद्धांत की सीमाओं और व्याख्या को विभिन्न ऐतिहासिक मामलों के माध्यम से स्पष्ट किया है:
· शिरूर मठ मामला (1954): सुप्रीम कोर्ट ने कहा कि यह निर्णय करने का अधिकार स्वयं धार्मिक समुदायों का है, न कि राज्य का, कि उनके धर्म में कौन-सी प्रथाएं आवश्यक मानी जाती हैं।
· दर्गाह कमेटी बनाम सैयद हुसैन अली (1961): कोर्ट ने माना कि हर परंपरा को सिर्फ धार्मिक आस्था के आधार पर संवैधानिक संरक्षण नहीं मिल सकता, जब तक वह उस धर्म का अनिवार्य हिस्सा न हो।
· सबरीमाला (2018) और ट्रिपल तलाक (2017): इन मामलों में सुप्रीम कोर्ट ने यह फैसला दिया कि कुछ लंबे समय से चली आ रही प्रथाएं आवश्यक धार्मिक प्रथा नहीं मानी जा सकतीं, यदि वे संविधान के मूल अधिकारों का उल्लंघन करती हैं। इस आधार पर दोनों प्रथाओं को असंवैधानिक घोषित किया गया।
वक्फ क्या है?
इस्लामी कानून के अंतर्गत वक्फ एक ऐसी व्यवस्था है जिसमें कोई मुसलमान अपनी चल या अचल संपत्ति को धार्मिक, परोपकारी या सामाजिक कल्याण से संबंधित कार्यों के लिए स्थायी रूप से समर्पित कर देता है। वक्फ घोषित की गई संपत्ति को न तो बेचा जा सकता है और न ही स्थानांतरित किया जा सकता है। इसका उद्देश्य समुदाय की भलाई और धार्मिक गतिविधियों को सतत रूप से समर्थन देना होता है।
वक्फ की इसी अवधारणा का एक विस्तार है "वक्फ बाय यूज़र", जिसमें कोई संपत्ति (जैसे मस्जिद, कब्रिस्तान या दरगाह) यदि लंबे समय से खुले रूप में धार्मिक या परोपकारी कार्यों के लिए उपयोग की जा रही हो, तो उसे औपचारिक वक्फ दस्तावेज के अभाव में भी वक्फ संपत्ति माना जा सकता है।
निष्कर्ष:
सुप्रीम कोर्ट ने वक्फ (संशोधन) अधिनियम, 2025 को चुनौती देने वाली याचिकाओं पर अपना निर्णय फिलहाल सुरक्षित रख लिया है। अब न्यायालय का फैसला यह निर्धारित करेगा कि यह अधिनियम संविधान सम्मत है या नहीं, और साथ ही यह मुस्लिम अल्पसंख्यक समुदाय के धार्मिक अधिकारों एवं वक्फ संपत्तियों के प्रबंधन पर किस प्रकार का प्रभाव डालता है। यह निर्णय न केवल इस अधिनियम की वैधता, बल्कि भारत में धार्मिक स्वतंत्रता की परिभाषा और उसकी सीमाओं को भी स्पष्ट करेगा।