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Blog / 25 Jul 2025

विटामिन D और मस्तिष्क विकास

सन्दर्भ- 
हाल ही में “द लैंसेट सायकेट्री” में प्रकाशित एक प्रमुख अध्ययन ने जन्म के समय शरीर में मौजूद विटामिन D के स्तर को भविष्य में होने वाले तंत्रिका विकास (neurodevelopmental) और मानसिक स्वास्थ्य संबंधी विकारों से जोड़ा है। इस अध्ययन ने वैश्विक स्तर पर ध्यान आकर्षित किया है, विशेष रूप से भारत जैसे देशों में, जहाँ प्रचुर धूप के बावजूद विटामिन D की कमी पाई जाती है।

डेनमार्क अध्ययन से मुख्य निष्कर्ष
डेनमार्क के शोधकर्ताओं ने 1981 से 2005 के बीच जन्मे 88,764 लोगों के आंकड़ों का विश्लेषण किया। इन लोगों के जन्म के समय लिए गए सूखे रक्त के नमूनों को राष्ट्रीय नवजात जांच कार्यक्रम के तहत संग्रहित किया गया था। इन नमूनों में निम्न की जांच की गई:
25-हाइड्रॉक्सीविटामिन D (25(OH)D)विटामिन D का मानक माप
विटामिन D-बाइंडिंग प्रोटीन शरीर में विटामिन D को पहुंचाने और उसके प्रभाव को बनाए रखने में सहायक

इन व्यक्तियों की मानसिक रोगों जैसे सिज़ोफ्रेनिया, ADHD, ऑटिज़्म, डिप्रेशन, बाइपोलर डिसऑर्डर और एनोरेक्सिया के लिए निगरानी की गई।

मुख्य निष्कर्ष:
जन्म के समय विटामिन D का उच्च स्तर निम्न जोखिम से जुड़ा पाया गया:
o सिज़ोफ्रेनिया का 18% कम जोखिम
o ADHD का 11% कम जोखिम
o ऑटिज़्म का 7% कम जोखिम
मॉडलिंग अनुमान के अनुसार, यदि सभी नवजातों में विटामिन D का स्तर ऊपरी 60% श्रेणी में हो:
o 15% सिज़ोफ्रेनिया
o 9% ADHD
o 5% ऑटिज़्म
मामलों को संभावित रूप से रोका जा सकता है।
डिप्रेशन और बाइपोलर डिसऑर्डर से कोई स्पष्ट संबंध नहीं पाया गया, संभवतः इनके जीवन में देर से प्रकट होने के कारण।

संबंध का कारण जानने के प्रयास
क्या विटामिन D की कमी से मानसिक रोग होते हैं, यह पता लगाने के लिए दो आनुवंशिक विधियाँ अपनाई गईं:
पॉलीजेनिक रिस्क स्कोर (PRS): जिन व्यक्तियों में स्वाभाविक रूप से विटामिन D स्तर अधिक था, उनमें मानसिक विकारों का जोखिम कम पाया गया। इससे उलटा कारण (reverse causation) की संभावना कम हुई।
मेंडेलियन रैंडमाइजेशन: इससे यह स्पष्ट हुआ कि विटामिन D का स्तर, विशेषकर ADHD के जोखिम को सीधे प्रभावित करता है। हालांकि कुछ आनुवंशिक गुणों के आपसी प्रभाव की संभावना बनी रहती है।

भारत में विटामिन D की चुनौती
भारत में पर्याप्त धूप होने के बावजूद विटामिन D की कमी व्यापक रूप से देखी जाती है:
उत्तराखंड के एक अध्ययन में, 74% शिशु और 85.5% माताएँ विटामिन D की कमी से ग्रसित थीं।
बेंगलुरु में 92.1% नवजातों में विटामिन D की कमी पाई गई।
शोध दर्शाता है कि माँ के विटामिन D स्तर और शिशु के स्तर में सीधा संबंध होता है यह पीढ़ी दर पीढ़ी चली आ रही कमी को दर्शाता है।

मुख्य समस्याएँ:
गर्भावस्था के दौरान, विशेष रूप से तीसरी तिमाही में, कैल्शियम और विटामिन D की आवश्यकता तेजी से बढ़ती है।
सिर्फ धूप पर्याप्त नहीं, इसके साथ संतुलित आहार या पूरक (supplementation) आवश्यक होता है।
ग्रामीण और अर्ध-शहरी क्षेत्रों में विटामिन D की नियमित जांच दुर्लभ है।

आगे का रास्ता
जीवन की शुरुआत में पोषण, विशेष रूप से विटामिन D, मस्तिष्क विकास में अहम भूमिका निभाता है।
रोकथाम के लिए गर्भावस्था की शुरुआत से ही नियमित सप्लीमेंटेशन कारगर हो सकता है।
भारत में चिकित्सकीय अनुभव बताता है कि तीसरी तिमाही में उच्च मात्रा में विटामिन D सप्लीमेंट सुरक्षित रूप से माँ और बच्चे के स्तरों में सुधार करता है।

निष्कर्ष
विटामिन D सिर्फ हड्डियों के लिए नहीं, मस्तिष्क के विकास को भी प्रभावित कर सकता है। यह कोई रामबाण इलाज नहीं है, लेकिन गर्भावस्था और जीवन के शुरुआती वर्षों में इसकी पर्याप्त मात्रा ADHD, सिज़ोफ्रेनिया और ऑटिज़्म जैसे मानसिक रोगों के जोखिम को कुछ हद तक कम कर सकती है। भारतीय संदर्भ में, समय पर जांच और पूरक देना आने वाली पीढ़ियों के मानसिक और शारीरिक स्वास्थ्य की रक्षा के लिए एक महत्त्वपूर्ण सार्वजनिक स्वास्थ्य उपाय हो सकता है।