संदर्भ:
हाल ही में जारी एक सरकारी रिपोर्ट ने भारत में अस्पृश्यता से जुड़े मामलों की गंभीर स्थिति को उजागर किया है। अदालतों में इन मामलों की लंबित दर 97% से अधिक है, और जो मामले निपटाए गए हैं, उनमें लगभग सभी में आरोपी बरी हो गए हैं। हालाँकि नागरिक अधिकार संरक्षण अधिनियम (पीसीआर अधिनियम), 1955 अस्पृश्यता के विभिन्न रूपों को परिभाषित करता है और उन्हें दंडनीय अपराध मानता है, लेकिन उपलब्ध आंकड़े यह दर्शाते हैं कि इस कानून का प्रभावी रूप से क्रियान्वयन नहीं हो पा रहा है।
भारत में अस्पृश्यता:
अस्पृश्यता एक भेदभावपूर्ण प्रथा है, जिसका सबसे अधिक असर अनुसूचित जातियों (दलितों) और अनुसूचित जनजातियों पर होता है। इसमें लोगों को सामाजिक जीवन, संसाधनों और सार्वजनिक सेवाओं से अलग-थलग कर दिया जाता है।
हालाँकि संविधान के अनुच्छेद 17 के तहत अस्पृश्यता को खत्म कर दिया गया है और 1955 का नागरिक अधिकार संरक्षण अधिनियम भी मौजूद है, फिर भी यह समस्या अब भी प्रत्यक्ष और अप्रत्यक्ष रूप से बनी हुई है।
प्रमुख निष्कर्ष:
- पंजीकृत मामलों में गिरावट: पीसीआर अधिनियम के तहत दर्ज मामलों की संख्या में गिरावट आई है, 2022 में केवल 13 मामले दर्ज किए गए, जो 2021 में 24 और 2020 में 25 से कम है।
- अत्यधिक लंबित मामले: अदालतों में इन मामलों की लंबित दर 97% से अधिक है। वर्तमान में इस अधिनियम के तहत 1,242 मामले विचाराधीन हैं।
- ज्यादातर मामले बरी:
2022 में अदालतों ने कुल 31 मामलों का निपटारा किया, जिनमें से सिर्फ 1 मामले में सजा हुई, बाकी 30 में आरोपी बरी हो गए।
यह पैटर्न पिछले वर्षों में भी दिखा, जब 2019 से 2021 के बीच सभी 37 मामलों में आरोपी बरी हो गए थे।
अन्य कानूनों से तुलना:
अनुसूचित जाति एवं अनुसूचित जनजाति (अत्याचार निवारण) अधिनियम, 1989: पीसीआर अधिनियम के विपरीत, अनुसूचित जाति और अनुसूचित जनजाति (अत्याचार निवारण) अधिनियम, 1989 के तहत मामलों की संख्या में निरंतर वृद्धि देखी गई है। वर्ष 2022 में कुल 62,501 मामले इस अधिनियम के अंतर्गत दर्ज किए गए, जो यह दर्शाता है कि जातीय भेदभाव से संबंधित गंभीर मामलों में अब इस कानून का अधिक प्रयोग किया जा रहा है।
कार्यान्वयन संबंधी चुनौतियाँ:
• आंकड़ों की कमी: बिहार, पंजाब, उत्तर प्रदेश और झारखंड जैसे कई राज्यों ने अंतरजातीय विवाह प्रोत्साहन योजनाओं से संबंधित आंकड़े उपलब्ध नहीं कराए। वहीं, अरुणाचल प्रदेश, मेघालय, मिजोरम, नागालैंड और लक्षद्वीप जैसे कुछ राज्यों ने "शून्य" (NIL) जानकारी प्रस्तुत की।
• असंगत कार्यान्वयन: रिपोर्ट में यह भी उजागर किया गया है कि विभिन्न राज्यों में पीसीआर अधिनियम का क्रियान्वयन असमान और असंगत है। कुछ राज्यों ने बार-बार अनुस्मारक भेजे जाने के बावजूद आवश्यक जानकारी साझा नहीं की, जो इस कानून के प्रभावी पालन में बड़ी बाधा है।
अन्य समस्याएँ:
- कमजोर जांच और अभियोजन प्रक्रिया
- सबूतों की कमी या गवाहों का मुकर जाना
- समाज में गहरे बैठे पूर्वाग्रह और पक्षपात
· एससी/एसटी (अत्याचार निवारण) अधिनियम के साथ ओवरलैप , जो 1989 में अधिनियमित होने के बाद से गंभीर जाति-आधारित भेदभाव के मामलों के लिए पसंदीदा कानूनी ढांचा बन गया है
निष्कर्ष:
अस्पृश्यता से जुड़े मामलों में पीसीआर अधिनियम की कमजोर प्रभावशीलता गंभीर चिंता का विषय है, जो यह दर्शाता है कि यह कानून अपने उद्देश्य को पूर्ण रूप से हासिल नहीं कर पा रहा है। ऐसे में सरकार को इसके प्रभावी कार्यान्वयन के लिए ठोस और समन्वित प्रयास करने की आवश्यकता है। इसमें समाज में जागरूकता बढ़ाना, कानून प्रवर्तन एजेंसियों को प्रशिक्षण देना और यह सुनिश्चित करना शामिल है कि मामलों की गंभीरता से जांच हो और अभियोजन प्रक्रिया मजबूत हो। इसके साथ ही, सरकार को राज्यों में डेटा संग्रह की पारदर्शिता बढ़ाने और कार्यान्वयन की असंगतियों को दूर करने के लिए भी ठोस कदम उठाने चाहिए, ताकि यह कानून वास्तव में अस्पृश्यता उन्मूलन के अपने लक्ष्य को प्राप्त कर सके।