संदर्भ:
भारत के उच्चतम न्यायालय ने हाल ही में वन (संरक्षण) अधिनियम, 1980 (FCA) की सख्त व्याख्या की पुष्टि की है। न्यायालय ने व्यवस्था दी है कि अधिनियम की धारा 2 के तहत केंद्र सरकार की पूर्व अनुमति के बिना वन भूमि को कृषि उद्देश्यों के लिए पट्टे (lease) पर नहीं दिया जा सकता और न ही उपयोग किया जा सकता है। इस वैधानिक आवश्यकता के उल्लंघन में दिए गए किसी भी पट्टे को अवैध और शुरुआत से ही शून्य (void ab initio) घोषित किया गया है।
मामले की पृष्ठभूमि:
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- यह मामला कर्नाटक सरकार द्वारा कर्नाटक उच्च न्यायालय के 2009 के एक आदेश के खिलाफ दायर अपील से उत्पन्न हुआ।
- 1976 और 1986 के बीच, राज्य सरकार ने धारवाड़ जिले के बेनाची और तुमारिकोप्पा गांवों में 134 एकड़ और 6 गुंटा वन भूमि एक सहकारी समिति को कृषि उद्देश्यों के लिए पट्टे पर दी थी।
- सहकारी समिति ने वन क्षेत्र को साफ किया और खेती शुरू कर दी। पट्टे की अवधि समाप्त होने पर, राज्य सरकार ने नवीनीकरण से इनकार कर दिया और 1985 में पट्टा समाप्त कर दिया।
- सहकारी समिति ने कई कानूनी कार्यवाहियों के माध्यम से इस समाप्ति को चुनौती दी।
- अंततः, वन विभाग ने 2007 में कब्जा वापस ले लिया और कर्नाटक वन अधिनियम के तहत बेदखली की कार्यवाही शुरू की।
- यह मामला कर्नाटक सरकार द्वारा कर्नाटक उच्च न्यायालय के 2009 के एक आदेश के खिलाफ दायर अपील से उत्पन्न हुआ।
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शामिल प्रमुख कानूनी मुद्दे:
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- क्या वन भूमि का उपयोग कृषि उद्देश्यों के लिए किया जा सकता है?
- केंद्र सरकार की पूर्व अनुमति के बिना दिए गए पट्टों की वैधता।
- वन (संरक्षण) अधिनियम, 1980 की धारा 2 का दायरा और अनिवार्य प्रकृति।
- क्या न्यायिक अनुमति के माध्यम से अवैधता को जारी रखा जा सकता है?
- क्या वन भूमि का उपयोग कृषि उद्देश्यों के लिए किया जा सकता है?
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उच्चतम न्यायालय की टिप्पणियां और निर्णय:
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- वन (संरक्षण) अधिनियम, 1980 का उल्लंघन:
- FCA की धारा 2 केंद्र सरकार की पूर्व अनुमति के बिना गैर-वानिकी उद्देश्यों के लिए वन भूमि के डाइवर्जन (उपयोग परिवर्तन) को प्रतिबंधित करती है।
- न्यायालय ने स्पष्ट रूप से कहा कि कृषि एक 'गैर-वानिकी गतिविधि' है।
- खेती की अनुमति देने के लिए अनिवार्य रूप से वन भूमि की सफाई करनी पड़ती है, जो सीधे तौर पर अधिनियम के उद्देश्यों के विपरीत है।
- वन (संरक्षण) अधिनियम, 1980 का उल्लंघन:
- पट्टा शुरुआत से ही अवैध:
- न्यायालय ने माना कि पट्टा देना स्वयं में गैर-कानूनी था, क्योंकि इससे वनों की कटाई और पर्यावरणीय क्षरण हुआ।
- FCA के उल्लंघन में निष्पादित कोई भी पट्टा शुरुआत से ही शून्य है और इसे बाद में वैध नहीं ठहराया जा सकता।
- न्यायालय ने माना कि पट्टा देना स्वयं में गैर-कानूनी था, क्योंकि इससे वनों की कटाई और पर्यावरणीय क्षरण हुआ।
- अवैधता को जारी रखने की अनुमति नहीं:
- न्यायालय ने उच्च न्यायालय के उस निर्देश को खारिज कर दिया जिसमें सहकारी समिति को पट्टा जारी रखने की मांग करने की अनुमति दी गई थी।
- इसने स्पष्ट रूप से फैसला सुनाया कि अदालतें ऐसी राहत नहीं दे सकतीं जो किसी अवैधता को कायम रखती हों।
- न्यायालय ने उच्च न्यायालय के उस निर्देश को खारिज कर दिया जिसमें सहकारी समिति को पट्टा जारी रखने की मांग करने की अनुमति दी गई थी।
- पर्यावरणीय उदाहरण पर विश्वास:
- निर्णय में ऐतिहासिक पर्यावरणीय न्यायशास्त्र, विशेष रूप से 'टी.एन. गोदावर्मन थिरुमूलपाद बनाम भारत संघ' मामले पर भरोसा किया गया, जिसने "वन" की परिभाषा का विस्तार किया और सख्त संरक्षण मानकों की आवश्यकता पर बल दिया।
- निर्णय में ऐतिहासिक पर्यावरणीय न्यायशास्त्र, विशेष रूप से 'टी.एन. गोदावर्मन थिरुमूलपाद बनाम भारत संघ' मामले पर भरोसा किया गया, जिसने "वन" की परिभाषा का विस्तार किया और सख्त संरक्षण मानकों की आवश्यकता पर बल दिया।
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निर्णय का महत्व:
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- पर्यावरण संरक्षण: यह 'एहतियाती सिद्धांत' (precautionary principle) और 'अंतर-पीढ़ीगत समानता' के सिद्धांत को मजबूत करता है। यह कृषि उपयोग के बहाने वन भूमि के बड़े पैमाने पर डाइवर्जन को रोकता है।
- संघीय संतुलन: यह वन संरक्षण में केंद्र सरकार की पर्यवेक्षी भूमिका को मजबूत करता है, भले ही वन भूमि राज्य के स्वामित्व में हो।
- कानून का शासन: यह स्पष्ट संदेश देता है कि अवैध कार्यकारी कार्यों को समय बीतने या लंबे मुकदमेबाजी के आधार पर वैध नहीं ठहराया जा सकता।
- सतत विकास: यह स्पष्ट करता है कि आर्थिक और आजीविका गतिविधियां कड़ाई से पारिस्थितिक और वैधानिक सीमाओं के भीतर होनी चाहिए।
- पर्यावरण संरक्षण: यह 'एहतियाती सिद्धांत' (precautionary principle) और 'अंतर-पीढ़ीगत समानता' के सिद्धांत को मजबूत करता है। यह कृषि उपयोग के बहाने वन भूमि के बड़े पैमाने पर डाइवर्जन को रोकता है।
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निष्कर्ष:
उच्चतम न्यायालय का यह निर्णय भारत के पर्यावरणीय शासन में एक निर्णायक प्रगति है। वैधानिक अनुमोदन के बिना वन भूमि को गैर-वानिकी उद्देश्यों के लिए उपयोग न करने देने और नियमितीकरण के बजाय बहाली (restoration) को प्राथमिकता देकर, न्यायालय ने अल्पकालिक आर्थिक विचारों के ऊपर पारिस्थितिक अखंडता को बनाए रखा है। यह निर्णय सतत विकास और पर्यावरण संरक्षण के प्रति भारत की संवैधानिक और वैधानिक प्रतिबद्धता की पुष्टि करता है।

