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Blog / 11 Apr 2025

विधेयकों की समय से मंजूरी पर सर्वोच्च न्यायालय का फैसला

 सन्दर्भ :

हाल ही में सर्वोच्च न्यायालय ने तमिलनाडु के राज्यपाल की उस कार्रवाई की कड़ी आलोचना की, जिसमें उन्होंने राज्य विधानसभा द्वारा पारित कई महत्वपूर्ण विधेयकों को मंजूरी देने में अनावश्यक देरी की। न्यायालय ने स्पष्ट रूप से कहा कि राज्यपाल द्वारा इन विधेयकों को आरक्षित करना व अनावश्यक राष्ट्रपति के पास भेजना असंवैधानिक था। ये सभी विधेयक पहले ही राज्यपाल द्वारा लौटाए जाने के बाद, विधानसभा द्वारा दोबारा पारित किए जा चुके थे। इस संवैधानिक गतिरोध को समाप्त करने के लिए सर्वोच्च न्यायालय द्वारा अनुच्छेद 142 का प्रयोग करते हुए इन विधेयकों को प्रत्यक्ष रूप से मंजूरी दे दी गई।

सर्वोच्च न्यायालय के निर्णय के मुख्य बिंदु:

1. विधेयकों को राष्ट्रपति के पास भेजना असंवैधानिक:

  • राज्यपाल द्वारा जिन 10 विधेयकों को राष्ट्रपति के पास भेजा गया था, वे पहले ही विधानसभा द्वारा पुनः पारित किए जा चुके थे।
  • संविधान के अनुच्छेद-200 के अनुसार, राज्यपाल केवल पहली बार विधेयक प्रस्तुत होने पर ही उसे राष्ट्रपति के पास विचार हेतु भेज सकते हैं। यदि वही विधेयक विधानसभा द्वारा संशोधनों के साथ या बिना संशोधनों के फिर से पारित होता है, तो राज्यपाल संवैधानिक रूप से स्वीकृति देने के लिए बाध्य होता है। वह इस स्तर पर राष्ट्रपति के विचार के लिए विधेयक को सुरक्षित नहीं रख सकता।

2. अनुच्छेद 200 का उल्लंघन:

  • विधानसभा द्वारा विधेयकों पर पुनर्विचार करने के बाद उसे राष्ट्रपति के पास भेजना संविधान के अनुच्छेद 200 के पहले प्रावधान का उल्लंघन है। यह अनुच्छेद राज्य विधानमंडल द्वारा पारित विधेयकों के संबंध में राज्यपाल के कर्तव्यों और शक्तियों का वर्णन करता है।

3. राष्ट्रपति की कार्रवाई भी अमान्य:

  • चूंकि राष्ट्रपति को विधेयक भेजने की प्रक्रिया ही असंवैधानिक थी, इसलिए उस पर आधारित राष्ट्रपति की कोई भी कार्रवाई भी कानूनी रूप से अमान्य मानी जाएगी।

4. अनुच्छेद 142 के अंतर्गत सुप्रीम कोर्ट की प्रत्यक्ष मंजूरी:

  • सुप्रीम कोर्ट ने संविधान के अनुच्छेद 142 का उपयोग करते हुए सम्पूर्ण न्यायसुनिश्चित करने के लिए स्वयं 10 विधेयकों को मंजूरी प्रदान की। इससे तमिलनाडु में उत्पन्न संवैधानिक गतिरोध समाप्त हो गया।

5. राज्यपाल की भूमिका पर स्पष्टता:

  • न्यायालय ने स्पष्ट किया कि राज्यपाल का कर्तव्य लोकतांत्रिक प्रक्रिया का समर्थन करना है, न कि उसमें बाधा उत्पन्न करना।
  • राज्यपाल को जनता द्वारा चुनी गई सरकार की इच्छा का सम्मान करना चाहिए और संविधान के अनुसार कार्य करना चाहिए।

भविष्य के लिए दिशा-निर्देश और प्रभाव:

1. राज्यपाल के लिए समय-सीमा तय की गई:

सुप्रीम कोर्ट ने विधेयकों पर निर्णय लेने में देरी रोकने के लिए राज्यपाल की भूमिका के संबंध में स्पष्ट समय-सीमाएँ निर्धारित कीं:

  • यदि राज्यपाल राज्य मंत्रिपरिषद की सलाह पर विधेयक को स्वीकृति नहीं देते, तो उन्हें एक माह के भीतर निर्णय लेना होगा।
  • यदि वे मंत्रिपरिषद की सलाह के विपरीत विधेयक को प्रस्तावित संशोधन सहित विधानसभा को वापस करते हैं, तो यह कार्य तीन माह के भीतर किया जाना चाहिए।
  • यदि राज्यपाल मंत्रिपरिषद की सलाह के विरुद्ध विधेयक को राष्ट्रपति के पास विचारार्थ भेजते हैं, तो यह प्रक्रिया भी तीन माह में पूरी होनी चाहिए।
  • यदि विधानसभा किसी विधेयक को दोबारा पारित कर देती है, तो राज्यपाल को उसे एक माह के भीतर स्वीकृति देनी होगी।

2. संस्थागत स्पष्टता और जवाबदेही की आवश्यकता:

  • न्यायालय ने सुझाव दिया कि राज्यपाल की संवैधानिक शक्तियों और भूमिकाओं को लेकर स्पष्ट दिशानिर्देश बनाए जाने चाहिए, जिससे मनमानी और विलंब जैसी स्थितियों से बचा जा सके।
  • राज्यपाल और राज्य सरकार के बीच संवाद और समन्वय की प्रक्रिया को अधिक पारदर्शी और संस्थागत रूप दिया जाना चाहिए।

3. लोकतांत्रिक शासन की मजबूती:

  • सुप्रीम कोर्ट के इस निर्णय ने यह दोहराया कि राज्यपाल को लोकतंत्र और संविधान की मूल भावना के अनुरूप कार्य करना चाहिए।
  • उन्हें विधायिका की स्पष्ट इच्छा और जनमत का सम्मान करना चाहिए, ताकि राज्य में सुचारु और प्रभावी शासन सुनिश्चित हो सके।

निष्कर्ष:

सुप्रीम कोर्ट का यह ऐतिहासिक निर्णय न केवल भारतीय संविधान के नियमों की रक्षा करता है, बल्कि लोकतांत्रिक मूल्यों को भी सशक्त रूप से स्थापित करता है। इस फैसले से यह स्पष्ट संदेश दिया गया कि राज्यपाल को विधायी प्रक्रिया का सम्मान करना चाहिए और अपने पद का उपयोग असंवैधानिक रुकावटें उत्पन्न करने के लिए नहीं करना चाहिए। कोर्ट द्वारा अनुच्छेद 142 के तहत 10 विधेयकों को प्रत्यक्ष रूप से मंजूरी देना, एक अभूतपूर्व कदम है जिसने राज्य सरकार और विधायिका के बीच संतुलन बहाल करने का कार्य किया।