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Blog / 19 Jul 2025

आदिवासी महिला पैतृक संपत्ति में समान हिस्सेदारी की हकदार: सर्वोच्च न्यायालय

संदर्भ:

हाल ही में भारत के सर्वोच्च न्यायालय ने एक ऐतिहासिक फैसला सुनाया है, जिसमें कहा गया है कि केवल लिंग के आधार पर आदिवासी महिलाओं को पैतृक संपत्ति से वंचित करना न केवल भेदभावपूर्ण है, बल्कि संविधान द्वारा प्रदत्त समानता के अधिकार का भी उल्लंघन है। कोर्ट ने स्पष्ट किया कि भले ही अनुसूचित जनजातियों पर हिंदू उत्तराधिकार अधिनियम लागू नहीं होता, फिर भी आदिवासी महिलाओं को पैतृक संपत्ति में बराबरी का अधिकार है, जब तक यह प्रमाणित न किया जाए कि कोई विशेष परंपरा उनके अधिकार को रोकती है।

मामले की पृष्ठभूमि:

यह मामला एक अनुसूचित जनजाति की महिला धैया से जुड़ा है, जिनके कानूनी उत्तराधिकारी ने उनके नाना की संपत्ति में हिस्सा माँगा। परिवार के पुरुष सदस्यों ने दावा किया कि आदिवासी प्रथा के अनुसार महिलाएं पैतृक संपत्ति में अधिकार नहीं रखतीं।

  • तीन निचली अदालतों (न्यायालय, प्रथम अपीलीय अदालत और उच्च न्यायालय) ने महिला की याचिका खारिज कर दी। उनका तर्क था कि याचिकाकर्ता यह साबित नहीं कर पाए कि कोई परंपरा महिलाओं को उत्तराधिकार का अधिकार देती है।
  • परंतु जब मामला सुप्रीम कोर्ट पहुँचा, तो अदालत ने इस मुद्दे को पूरी तरह नए दृष्टिकोण से देखा और निचली अदालतों के निर्णयों को पलट दिया।

सुप्रीम कोर्ट की मुख्य टिप्पणियाँ:
न्यायमूर्ति संजय करोल और जॉयमाल्य बागची की पीठ ने कहा:

·        सिर्फ पुरुषों को उत्तराधिकार देना कोई तार्किक या संवैधानिक आधार नहीं रखता। यदि किसी महिला या उसके उत्तराधिकारी को सिर्फ इसलिए संपत्ति से वंचित किया जाए क्योंकि वे यह सिद्ध नहीं कर पाए कि कोई अनुकूल परंपरा है, तो यह अन्यायपूर्ण और असंवैधानिक है।

·        परंपरा बनाम संविधान: कोर्ट ने माना कि भले ही हिंदू उत्तराधिकार अधिनियम अनुसूचित जनजातियों पर लागू नहीं होता, लेकिन इसका यह अर्थ नहीं कि महिलाओं को स्वाभाविक रूप से संपत्ति के अधिकार से वंचित किया जा सकता है। यदि कोई परंपरा लिंग के आधार पर भेदभाव करती है, तो उसे संवैधानिक मूल्यों के आगे झुकना होगा।

·        सबूत का बोझ किस पर? कोर्ट ने निचली अदालतों की यह कहते हुए आलोचना की कि उन्होंने महिलाओं पर यह साबित करने का भार डाल दिया कि वे संपत्ति की हकदार हैं। सुप्रीम कोर्ट ने यह स्पष्ट किया कि दावा खारिज करने वाले पक्ष पर यह जिम्मेदारी है कि वे साबित करें कि कोई विशेष परंपरा महिलाओं को उत्तराधिकार से वंचित करती है।

·        संवैधानिक अधिकारों का उल्लंघन: अदालत ने कहा कि महिलाओं को उत्तराधिकार से वंचित करना संविधान के अनुच्छेद 14 (समानता का अधिकार) और अनुच्छेद 15(1) (लिंग के आधार पर भेदभाव का निषेध) का उल्लंघन है। कोर्ट ने अनुच्छेद 38 और अनुच्छेद 46 का भी उल्लेख किया, जो सामाजिक न्याय और कमजोर वर्गों के उत्थान की बात करते हैं।

इस फैसले के प्रमुख प्रभाव:

1.        आदिवासी महिलाओं को अधिकार की पुष्टि:
यह फैसला आदिवासी महिलाओं और उनके उत्तराधिकारियों को यह कानूनी अधिकार देता है कि वे पैतृक संपत्ति में हिस्सा मांग सकते हैंजब तक कि कोई स्पष्ट परंपरा उनके दावे को नकारती न हो।

2.      परंपरागत कानूनों का संवैधानिक अनुकूलन:
यह निर्णय एक सशक्त संदेश देता है कि परंपराएं अब संविधान के सिद्धांतों के अनुसार जांची जाएंगी। न्यायालय अब परंपराओं को न्याय, समानता और सद्भाव के नजरिए से परखेंगी।

3.      कानूनी जिम्मेदारी का संतुलन:
अब महिलाओं को यह सिद्ध करने की आवश्यकता नहीं है कि उन्हें उत्तराधिकार का अधिकार है, बल्कि उनके विरोधियों को यह साबित करना होगा कि कोई परंपरा उन्हें यह अधिकार नहीं देती।

निष्कर्ष:

सुप्रीम कोर्ट का यह फैसला लिंग समानता की दिशा में एक ऐतिहासिक कदम हैविशेष रूप से उन आदिवासी महिलाओं के लिए जो वर्षों से उत्तराधिकार कानून के दायरे से बाहर रहीं। यह निर्णय स्पष्ट करता है कि न तो कानून में और न ही परंपरा में भेदभाव के लिए कोई स्थान है, और संविधान सर्वोपरि है, चाहे कोई परंपरा कितनी ही पुरानी क्यों न हो।