संदर्भ:
22 सितंबर 2025 को भारत के सुप्रीम कोर्ट की एक बेंच (न्यायमूर्ति एम. एम. सुंदरेश और न्यायमूर्ति सतीश चंद्र शर्मा) ने टिप्पणी में कहा है कि आपराधिक मानहानि कानून पर पुनर्विचार करने की आवश्यकता है।
पृष्ठभूमि:
यह मामला फाउंडेशन फॉर इंडिपेंडेंट जर्नलिज्म (जो ‘द वायर’ संचालित करता है) की याचिका के दौरान उठा। याचिका में, पूर्व JNU प्रोफेसर अमीता सिंह द्वारा वर्षों पहले प्रकाशित एक रिपोर्ट के आधार पर दर्ज मानहानि मामले में समन जारी किए जाने के खिलाफ दलील पेश की गई थी।
आपराधिक मानहानि के बारे में:
· भारत में मानहानि दोनों प्रकार की “सिविल और आपराधिक” हो सकती है। आपराधिक मानहानि तब होती है जब कोई व्यक्ति लिखित (लाइबेल) या मौखिक (स्लैंडर) रूप में झूठे और दुर्भावनापूर्ण बयान देता है, जिससे किसी अन्य व्यक्ति की प्रतिष्ठा को नुकसान पहुँचता है।
· पूर्व में इसे भारतीय दंड संहिता (IPC) की धारा 499 के तहत अपराध माना जाता था, जिसके लिए धारा 500 IPC (अब भारतीय न्याय संहिता की धारा 356 द्वारा प्रतिस्थापित) के तहत दो साल तक की जेल, जुर्माना या दोनों का प्रावधान था।
· 2016 में, सुब्रमण्यम स्वामी बनाम भारत संघ के मामले में सुप्रीम कोर्ट ने इन धाराओं के तहत आपराधिक मानहानि की संवैधानिक वैधता को बनाए रखा। अदालत ने कहा कि प्रतिष्ठा जीवन और सम्मान के अधिकार (अनुच्छेद 21) का हिस्सा है और आपराधिक मानहानि अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता (अनुच्छेद 19) पर एक "युक्तिसंगत प्रतिबंध" है।
आपराधिक मानहानि कानून को बनाए रखने के पक्ष और विपक्ष में तर्क:
· पक्ष में तर्क
o यह नागरिक मुकदमों की तुलना में मजबूत निवारक है क्योंकि इसमें जेल या जुर्माने जैसी सजा हो सकती है।
o यह प्रतिष्ठा की सुरक्षा करके सार्वजनिक हित की रक्षा करता है।
o भेदभाव और घृणास्पद भाषण के विरुद्ध कमजोर समूहों को सुरक्षा प्रदान करता है।
· विपक्ष में तर्क
o यह अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता (धारा 19(1)(a)) का उल्लंघन कर सकता है।
o इसका दुरुपयोग शक्तिशाली व्यक्तियों या संस्थाओं द्वारा असहमति को दबाने, पत्रकारों को डराने और आलोचना को दबाने के लिए किया जा सकता है।
महत्व और प्रभाव:
· स्वतंत्र अभिव्यक्ति बनाम प्रतिष्ठा: आपराधिक मानहानि कानून अक्सर अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता पर दबाव डालते हैं। लोग और मीडिया संस्थान इस डर से खुद को सेंसर कर सकते हैं। अपराधीकरण को समाप्त करने से यह भय कम हो जाएगा, जबकि प्रतिष्ठा को होने वाले नुकसान के लिए नागरिक उपचार भी उपलब्ध रहेगा।
· कानूनी सुधार और औपनिवेशिक विरासत: भारत के कई कानून, जैसे आपराधिक मानहानि, संविधान निर्माण से पहले या औपनिवेशिक काल के हैं और आधुनिक लोकतांत्रिक मानकों को पूरी तरह प्रतिबिंबित नहीं करते। सुप्रीम कोर्ट यह संकेत दे रहा है कि कानूनी ढांचे को अपडेट करने की आवश्यकता है।
· तेजी से न्याय और दुरुपयोग कम करना: आपराधिक मानहानि के मामले अक्सर धीमे और संसाधन-सघन होते हैं और कभी-कभी राजनीतिक या व्यक्तिगत उद्देश्यों के लिए दुरुपयोग किए जाते हैं। गैर-अपराधीकरण से लंबित मामलों और दुरुपयोग में कमी आ सकती है।
· मीडिया और पत्रकारिता: डिजिटल मीडिया समेत मीडिया को लाभ हो सकता है। अपराध के डर के बिना पत्रकार अधिक स्वतंत्र और सशक्त जांच रिपोर्टिंग कर पाएंगे। लेकिन संतुलन बनाए रखना जरूरी है ताकि मीडिया अपनी जिम्मेदारियां (सत्यापन और जिम्मेदारी) निभाए और गंभीर मामलों में सिविल कानून के जरिए मानहानि के दावे का निपटारा किया जा सके।
निष्कर्ष:
सुप्रीम कोर्ट की हाल की टिप्पणियाँ भारत के कानूनी और लोकतांत्रिक विकास में महत्वपूर्ण मोड़ हैं। यह आपराधिक दंड से हटने की संभावना की ओर इशारा करती हैं और वैश्विक रुझानों के अनुरूप है, जो अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता को बढ़ावा देते हैं और प्रतिष्ठा की सुरक्षा सिविल कानून के माध्यम से सुनिश्चित करते हैं। इसे कानून बनाने के लिए भविष्य के न्यायिक आदेश या विधायी सुधार का इंतजार होगा। यह विकास भारत के संवैधानिक मूल्यों, प्रेस की स्वतंत्रता और नागरिकों के अधिकारों के लिए बेहद महत्वपूर्ण है।