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Blog / 06 Jun 2025

सुप्रीम कोर्ट ने अवमानना कानून पर स्पष्टता दी

संदर्भ:

भारत के सुप्रीम कोर्ट ने एक ऐतिहासिक फैसले में स्पष्ट किया है कि संसद या राज्य विधानसभाओं द्वारा पारित किसी भी कानून को केवल इस आधार पर अदालत की अवमानना नहीं माना जा सकता कि वह किसी पूर्व न्यायिक आदेश के विपरीत प्रतीत होता है। यह निर्णय लोकतंत्र के तीनों स्तंभोंविधायिका, कार्यपालिका और न्यायपालिकाके बीच संविधान सम्मत संतुलन और अधिकार-सीमा को रेखांकित करने वाला एक महत्वपूर्ण उदाहरण है।

पृष्ठभूमि:

यह मामला 2012 में दायर की गई एक अवमानना याचिका से जुड़ा है, जिसे समाजशास्त्री और दिल्ली विश्वविद्यालय की पूर्व प्रोफेसर नंदिनी सुंदर और अन्य याचिकाकर्ताओं ने सुप्रीम कोर्ट में दायर किया था। याचिका में आरोप था कि छत्तीसगढ़ सरकार ने सुप्रीम कोर्ट के 2011 के आदेश का उल्लंघन किया है, जिसमें अदालत ने राज्य सरकार को निर्देश दिया था कि:

·         सलवा जुडुम जैसे निजी सशस्त्र संगठनों को समर्थन देना बंद किया जाए।

·         आदिवासी युवाओं की विशेष पुलिस अधिकारी (SPO) के रूप में भर्ती रोक दी जाए और उन्हें माओवादी विरोधी अभियानों में शामिल न किया जाए।

·         स्कूलों और आश्रमों से सुरक्षाबलों को हटाया जाए।

·         विशेष पुलिस अधिकारी की कार्रवाई से प्रभावित लोगों को मुआवजा दिया जाए।

हालांकि, इन निर्देशों के बजाय छत्तीसगढ़ सरकार ने "छत्तीसगढ़ सहायक सशस्त्र पुलिस बल अधिनियम, 2011" पारित कर दिया, जिसके माध्यम से विशेष पुलिस अधिकारी की भूमिका को कानूनी रूप से मान्यता दी गई और उन्हें एक नियमित सहायक सशस्त्र बल के रूप में शामिल कर लिया गया।

सुप्रीम कोर्ट की मुख्य टिप्पणियाँ:

·         विधायिका को पूर्ण कानून निर्माण अधिकार: सुप्रीम कोर्ट ने कहा कि प्रत्येक राज्य की विधायिका को संप्रभु अधिकार प्राप्त हैं कि वह अपने क्षेत्राधिकार में कानून बना सके। जब तक कोई कानून संविधान के विरुद्ध घोषित नहीं होता, तब तक वह वैध और लागू रहने योग्य होता है।

·         कानून बनाना अवमानना नहीं माना जा सकता: अदालत ने यह स्पष्ट किया कि किसी न्यायिक आदेश के बाद भी यदि विधायिका कोई कानून पारित करती है, तो मात्र इस आधार पर उसे अवमानना नहीं कहा जा सकता कि वह किसी पूर्व न्यायिक आदेश के विपरीत प्रतीत होता है

·         संवैधानिक संतुलन और कानून का शासन: सुप्रीम कोर्ट ने ज़ोर देकर कहा कि संविधान के उद्देश्यों की पूर्ति के लिए विधायिका, कार्यपालिका और न्यायपालिका के बीच संतुलन बनाए रखना अत्यंत आवश्यक है। इन तीनों संस्थाओं के बीच संतुलन ही लोकतांत्रिक शासन की आधारशिला है।

फैसले के व्यापक प्रभाव:

·         विधायिका की सर्वोच्चता को पुष्टि: यह निर्णय पुनः स्पष्ट करता है कि कानून बनाना विधायिका का विशेषाधिकार है। जब तक कोई कानून संविधान विरोधी घोषित न हो, उसे सिर्फ इसलिए अदालत की अवमानना नहीं कहा जा सकता कि वह किसी न्यायिक आदेश के विपरीत प्रतीत होता है।

·         अवमानना की सीमाओं का निर्धारण: सुप्रीम कोर्ट ने स्पष्ट किया कि यदि विधायिका किसी अदालत के आदेश के बाद भी नया कानून बनाती है, यदि वह विवादास्पद हो तो वह अवमानना की श्रेणी में नहीं आता। इससे अवमानना अधिकार की सीमाएँ स्पष्ट हुई हैं।

·         संवैधानिक उपचारों को प्राथमिकता: अदालत ने यह भी रेखांकित किया कि यदि किसी कानून को असंवैधानिक माना जा रहा है, तो उसे चुनौती देने का उपयुक्त माध्यम अवमानना याचिका नहीं, बल्कि संविधान के अनुच्छेद 226 (उच्च न्यायालय) या अनुच्छेद 32 (सुप्रीम कोर्ट) के तहत याचिका दायर की जा सकती है।

निष्कर्ष:
सुप्रीम कोर्ट का यह महत्वपूर्ण निर्णय न्यायपालिका और विधायिका के बीच संविधान सम्मत सीमाओं को स्पष्ट करता है। अदालत यह तय कर सकती है कि कोई कानून संविधान के अनुरूप है या नहीं, लेकिन वह विधायिका द्वारा कानून बनाने की प्रक्रिया को अवमानना मानकर दंड नहीं दे सकती। यह फैसला लोकतांत्रिक प्रणाली में तीनों अंगों के बीच संतुलन बनाए रखने और विधायी स्वतंत्रता की रक्षा करने की दिशा में एक अहम कदम है।