सन्दर्भ:
आईआईटीएम पुणे, आईएनसीओआईएस हैदराबाद और मैंगलोर विश्वविद्यालय के एक नए अध्ययन से पता चला है कि श्रीलंका का भू-भाग स्वाभाविक रूप से भारत के दक्षिण-पूर्वी तट विशेषकर तमिलनाडु और आंध्र प्रदेश, को दक्षिणी महासागर से आने वाली विनाशकारी लहरों (Swell Waves) से बचाता है। यदि यह भू-आवरण न होता, तो आंध्र प्रदेश के कुछ क्षेत्रों में तरंगों की ऊँचाई कहीं अधिक होती और तटीय बाढ़ का खतरा बढ़ जाता। यह दर्शाता है कि तटीय सुरक्षा रणनीतियों में प्राकृतिक भौगोलिक संरचनाओं को शामिल करना कितना आवश्यक है।
स्वेल लहरों के बारे में:
स्वेल लहर सतही गुरुत्वीय तरंगें होती हैं, जो दूरस्थ तूफानों अक्सर हजारों किलोमीटर दूर से उत्पन्न होती हैं।
दीर्घ-अवधि की स्वेल लहर (जिनकी अवधि 14–16 सेकंड से अधिक होती है) विशेष रूप से शक्तिशाली होती हैं और विशाल महासागरीय दूरी पार करने के बाद भी अत्यधिक ऊर्जा वहन करती हैं।
इनके कारण अक्सर निम्नलिखित प्रभाव देखे जाते हैं:
• तटीय जलमग्नता (Coastal Inundation)
• गंभीर तटीय अपरदन (Beach Erosion)
• बुनियादी ढाँचे और पारिस्थितिक तंत्र को क्षति
भारत में, दक्षिण-पश्चिमी तट, विशेष रूप से केरल इन लहरों से अक्सर प्रभावित होता है। आश्चर्यजनक रूप से, दक्षिण-पूर्वी तट जैसे तमिलनाडु और आंध्र प्रदेश अपेक्षाकृत अप्रभावित रहते हैं।
अध्ययन के बारे में: विधियाँ और निष्कर्ष:
मुख्य निष्कर्ष:
• स्वेल लहरों की ऊँचाई में वृद्धि:
यदि श्रीलंका मौजूद न होता, तो आंध्र प्रदेश तक पहुँचने वाली लहरों की ऊँचाई पाँच गुना तक बढ़ सकती थी।
• अत्यधिक स्वेल लहरों की बढ़ती आवृत्ति:
15 सेकंड से अधिक अवधि वाली लहरों की घटनाएँ उल्लेखनीय रूप से बढ़ जातीं — जहाँ श्रीलंका के साथ परिदृश्य में लगभग 10 घटनाएँ देखी गईं, वहीं “बिना श्रीलंका” वाले परिदृश्य में ये लगभग 24 तक पहुँच गईं।
• अंतरित संरक्षण:
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- तमिलनाडु को लगभग पूर्ण सुरक्षा प्राप्त होती है क्योंकि यह सीधे श्रीलंका के पीछे स्थित है, और दक्षिणी महासागर से आने वाली अधिकांश लहरें या तो श्रीलंका से टकरा कर क्षीण हो जाती हैं या मार्ग बदल देती हैं।
- आंध्र प्रदेश को आंशिक सुरक्षा मिलती है। कुछ लहरें श्रीलंका के चारों ओर घूमकर या अपवर्तन/विवर्तन के माध्यम से वहाँ तक पहुँच जाती हैं। अतः श्रीलंका के अभाव में आंध्र प्रदेश शक्तिशाली लहरों के प्रति कहीं अधिक संवेदनशील हो जाएगा।
- तमिलनाडु को लगभग पूर्ण सुरक्षा प्राप्त होती है क्योंकि यह सीधे श्रीलंका के पीछे स्थित है, और दक्षिणी महासागर से आने वाली अधिकांश लहरें या तो श्रीलंका से टकरा कर क्षीण हो जाती हैं या मार्ग बदल देती हैं।
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• तटीय खतरों पर प्रभाव:
स्वेल की ऊँचाई और आवृत्ति में वृद्धि से तटीय अपरदन, बाढ़, बुनियादी ढाँचे को क्षति और निम्न-भूमि वाले समुदायों के लिए खतरा बढ़ सकता है।
इस प्रकार, श्रीलंका द्वारा प्रदान की गई प्राकृतिक सुरक्षा तटीय जोखिमों को कम करने में वास्तविक और महत्त्वपूर्ण भूमिका निभाती है।
तटीय जोखिम प्रबंधन के लिए महत्व:
1. तटीय योजना और बुनियादी ढाँचा:
भारत के दक्षिण-पूर्वी राज्यों को श्रीलंका की प्राकृतिक सुरक्षा भूमिका को अपने
• जोखिम मूल्यांकन मॉडलों
• तटीय बुनियादी ढाँचे (जैसे सी-वॉल, बंदरगाह, सड़कें) की डिज़ाइन
• आपदा तैयारी योजनाओं, में शामिल करना चाहिए।
2. परिदृश्य मॉडलिंग (Scenario Modelling):
“बिना श्रीलंका” वाले परिदृश्यों पर अध्ययन करना सबसे खराब संभावित स्थिति का अनुमान लगाने में मदद करता है, जिससे तटीय सुरक्षा संरचनाओं के लिए उचित सुरक्षा मार्जिन तय किए जा सकें।
3. दीर्घकालिक लचीलापन (Resilience):
प्राकृतिक सुरक्षात्मक तत्वों जैसे श्रीलंका का भू-भाग और क्षेत्रीय वनस्पति को पहचानना और संरक्षित करना जलवायु जोखिमों से निपटने का एक टिकाऊ और कम-लागत वाला तरीका है।
निष्कर्ष:
आईआईटीएम पुणे, आईएनसीओआईएस और मैंगलोर विश्वविद्यालय के अध्ययन से पुष्टि होती है कि श्रीलंका का भू-भाग तमिलनाडु और आंध्र प्रदेश के कुछ हिस्सों को शक्तिशाली महासागरीय स्वेल लहरों से महत्त्वपूर्ण रूप से बचाता है। जैसे-जैसे तटीय जोखिम बढ़ रहे हैं, प्राकृतिक विशेषताओं जैसे भू-आकृति और वनस्पति को योजना एवं नीति में शामिल करना भारत की तटीय लचीलापन (Coastal Resilience) को सुदृढ़ करने का एक टिकाऊ और प्रभावी उपाय सिद्ध हो सकता है।