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Blog / 29 Jul 2025

सोहराय कला

संदर्भ:

हाल ही में झारखंड की पारंपरिक दीवार चित्रकला सोहराय को राष्ट्रपति भवन में आयोजित कला उत्सव 2025 में विशेष रूप से प्रदर्शित किया गया। यह दस दिवसीय कलाकार आवास कार्यक्रम भारत की समृद्ध लोक और जनजातीय कलाओं को सम्मान देने के उद्देश्य से आयोजित किया गया था। यह आयोजन उस कला रूप के लिए एक ऐतिहासिक क्षण था, जिसे अब तक मुख्यधारा की सांस्कृतिक चर्चा में अपेक्षाकृत कम स्थान मिला था। कला उत्सव ने न केवल सोहराय चित्रकला को राष्ट्रीय मंच पर पहचान दिलाई, बल्कि इससे जुड़ी आदिवासी परंपराओं और महिला कलाकारों की भूमिका को भी उजागर किया।

सोहराय कला क्या है?
सोहराय एक पारंपरिक आदिवासी चित्रकला है, जो पूर्वी भारत के आदिवासी समुदायों के कृषि जीवन और आध्यात्मिक परंपराओं से जुड़ी हुई है। इसे मुख्य रूप से महिलाएं बनाती हैं, जो कुरमी, संताल, मुंडा, उराँव, अगरिया और घटवाल जैसे जनजातीय समुदायों में प्रचलित है।

·         शब्द की उत्पत्ति: 'सोहराय' शब्द सोरोसे आया है, जिसका मतलब होता है "छड़ी से हांकना" जो मवेशियों को हांकने की प्रक्रिया को दर्शाता है। इसके साथ ही यह सोहराय पर्व से जुड़ा हुआ है, जो फसल कटाई के समय मनाया जाता है।

·         ऐतिहासिक पृष्ठभूमि: यह कला बहुत प्राचीन मानी जाती है, जिसका इतिहास मेसो-चाल्कोलिथिक काल (9000–5000 ईसा पूर्व) से जुड़ा है। झारखंड के हजारीबाग ज़िले के बरकाकागाँव में स्थित इस्को गुफा में मिले प्रागैतिहासिक चित्र आज के सोहराय डिज़ाइनों से काफी मिलते-जुलते हैं।

·         भौगोलिक विस्तार: यह कला झारखंड के अलावा बिहार, ओडिशा और पश्चिम बंगाल के कुछ हिस्सों में भी देखी जाती है।

Sohrai Painting - Wildlife

सोहराय चित्रकला की प्रमुख विशेषताएँ:

·         विषय और प्रतीक:

o    प्रकृति और ग्रामीण जीवन जैसे- जंगल, नदियाँ, जानवर और कृषि से जुड़े चिन्हों पर आधारित।

o    यह चित्र ऋतु परिवर्तन, पारंपरिक मान्यताओं और सामुदायिक अनुष्ठानों से प्रेरित होते हैं।

·         कलात्मक तकनीकें:

o    चित्र प्राकृतिक रंगों से बनाए जाते हैं, जैसे कोयला, मिट्टी, लाल और सफेद माटी।

o    ब्रश के रूप में प्रयोग की गई लकड़ी की टहनियों या बांस की कलम का प्रयोग किया जाता है।

o    ये चित्र आमतौर पर त्योहारों (खासकर सोहराय फसल उत्सव के दौरान) घरों की मिट्टी की दीवारों पर बनाए जाते हैं।

·         दृश्य शैली:

o    इन चित्रों की पहचान “ज्यामितीय आकृतियाँ, संतुलित रचना और चमकदार रंग” है।

o    इनमें प्रमुख रूप से मोर, बैल, हाथी, पेड़-पौधे और अन्य प्राकृतिक रूप शामिल होते हैं।

कला उत्सव 2025 के बारे में:

  • यह उत्सव एक विशेष कलाकार आवास कार्यक्रम था, जिसे राष्ट्रपति भवन में आयोजित किया गया। इसमें देशभर से पारंपरिक और जनजातीय कलाओं से जुड़े कलाकारों को आमंत्रित किया गया, ताकि वे अपनी सांस्कृतिक धरोहर को राष्ट्रीय मंच पर प्रस्तुत कर सकें। हजारीबाग से आए सोहराय कलाकारों ने इस अवसर पर अपनी कला का जीवंत प्रदर्शन किया, जिसने दर्शकों को उनके समुदाय की परंपराओं, जीवनशैली और प्रकृति के प्रति गहरी समझ से परिचित कराया।
  • इस आयोजन का संचालन इंदिरा गांधी राष्ट्रीय कला केंद्र (IGNCA) और उसके रांची स्थित क्षेत्रीय केंद्र द्वारा किया गया। इन संस्थाओं ने कलाकारों के चयन, समन्वय और कार्यक्रम की रूपरेखा तय करने में महत्वपूर्ण भूमिका निभाई।

इस पहचान का महत्व

·         सांस्कृतिक संरक्षण: यह पहल उन पारंपरिक आदिवासी कलाओं के संरक्षण की दिशा में एक महत्वपूर्ण कदम है, जो आधुनिकता, शहरीकरण और संस्थागत समर्थन की कमी के कारण विलुप्ति की कगार पर हैं।

·         कलाकारों का सशक्तिकरण: यह मान्यता उन ग्रामीण महिला कलाकारों को सम्मान और आत्मबल प्रदान करती है, जो सीमित संसाधनों के बावजूद पीढ़ियों से इस कला परंपरा को जीवित रखे हुए हैं।

·         भौगोलिक संकेतक (GI टैग): हजारीबाग की सोहराय कला को भौगोलिक संकेतक टैग प्राप्त है, जिससे इसकी सांस्कृतिक विशिष्टता और बौद्धिक संपदा अधिकारों को विधिक सुरक्षा मिलती है।

निष्कर्ष:

कला उत्सव 2025 जैसे प्रतिष्ठित मंचों पर जनजातीय कलाओं की प्रस्तुति यह सुनिश्चित करती है कि आदिवासी समुदायों की सांस्कृतिक पहचान को न केवल मान्यता मिले, बल्कि उनकी आवाज़ें भी राष्ट्रीय स्तर पर सुनी जाएँ। यदि ऐसी पहलों को निरंतर संस्थागत समर्थन और जन-जागरूकता प्राप्त होती रही, तो सोहराय जैसी पारंपरिक कलाएँ न केवल संरक्षित रहेंगी, बल्कि समृद्ध होकर आगे भी विकसित होंगी। इससे न केवल भारत की सांस्कृतिक विविधता सुदृढ़ होगी, बल्कि उन कलाकारों को भी नया आत्मबल और अवसर मिलेगा, जो पीढ़ियों से इस विरासत को जीवित रखे हुए हैं।